मेरी तीन कहानियां ...
28 साल बाद कही की यात्रा फिर करने का मौका मिलना उस पुरानी यात्रा मे बिताये हुए पल को बार -बार आंखो के सामने आने जैसा है। ये बात है 1991 की जब उन्नीस...


28 साल बाद कही की यात्रा फिर करने का मौका मिलना उस पुरानी यात्रा मे बिताये हुए पल को बार -बार आंखो के सामने आने जैसा है। ये बात है 1991 की जब उन्नीस...
28 साल बाद कही की यात्रा फिर करने का मौका मिलना उस पुरानी यात्रा मे बिताये हुए पल को बार -बार आंखो के सामने आने जैसा है। ये बात है 1991 की जब उन्नीस साल की उम्र मे पहली बार बॉम्बे अब मुम्बई जाने की इच्छा हुई । हमारे अभिन्न मित्र (नाम नही बता सकता क्योंकि कहानी बनी ही उन्के कारण है।)और हम मुम्बई जाने वाली ट्रेन में बैठ गये। खचा-खच भरी ट्रेन के जनरल बोगी मे पुलिस वले से जुगाड लगाकर खिडकी के रास्ते बर्थ कब्जाने की बात तो शायद अब भी होती होगी पर मेरी बात 28 साल पुरानी है। यात्रा पहले से तय न होने और बनारस से महानगरी की यात्रा जिन लोगो ने की है वो लाईन लगाकर या जुगाड लगाकर जनरल बोगी मे घुसने का दर्द जानते होन्गे।
यात्रा शुरु से ही हाहाकारी रही। पर मरता क्या न करता ।
मर्द की जुबान एक, मर्द को दर्द नही होता जैसे जुमलों को सुनकर पले-बढ़े बनारसी लडके के पास मित्र को दिया वचन सात जन्मो के वचन से भी मजबूत प्रतीत हो रहा था। एक बार भी ये बोल नही पाये कि बिना आरक्षण चलना वो भी इतनी लम्बी यात्रा काले पानी की सजा से कम नही है।
गोआ एअरपोर्ट पर बूकिन्ग काउंटर खुल गया।
बाकी यात्रा विवरण कुछ देर बाद॰॰॰
गाड़ी चल पडी ,उसी के साथ जवाँ दिल के सपने, अगल-बगल से आ रही तरह-तरह की बदबू और खुस्बू की तरह ही, मन की गहराइयों मे तैरने लगे। जिस मुश्किल से जनरल डिब्बे में जगह ली उतनी ही मुश्किल उसे बचा के रखना था। पर ह्म् भी बनारसी भाई काहे हार माने। अपनी सीट बचा ली पर इस चक्कर मे न तो पानी ही पीने जा सके न पेट मे उबलते द्रव्य को गन्तव्य तक पहुचा सके। वैसे तो हर डिब्बे मे खाने -पीने के लिये कुछ आ जाता है पर जहां सांस लेना दूभर हो वहा सामन क्या मच्छर की भी औकात नही थी कि अपने लिये जगह बना सके।
उस समय यात्रा का जोश और अल्हड़ जवानी का बैंक बैलेंस हमे यात्रा के कष्ट से लड़ने की हिम्मत दे रहा था। अब बैंक बैलेंस ऐसी यात्रा से बचाता है। पर आज भी करोणो लोग रोज उसी तरह से यात्रा करते नजर आ जायेंगे।
खैर अपनी गाड़ी बॉम्बे के पास पहुच रही थी ।अगल-बगल के लोग लगातार कूद-फांद कर दरवाजा पार् कर रहे थे। हमें ये पता ही नही था कि उतरना कहा है।एक बार तो हम लोग भी कूदने के जुगाड मे लगे की भला हो पास वाले राम जी भाई का जो हमे यात्रा के दौरान ही मिले थे, उन्होने बताया की हमे छत्रपति शिवाजी पर उतरना चाहिये।
गाड़ी रुकी और हमारे कदम पड गयें मायानगरी की धरती पर। एक झटका लगा पीछे से किसी ने कहा की बगल हट । मुडा तो लगा की नरमुंडो के सागर मे कही मेरी आत्मा पहुच चुकी है। हर तरफ सर ही सर । धड देखना हो तो लेटना पडेगा और एक मिनट अगर रूक जाता तो ये भी इच्छा पूरी हो जाती ।
अपना तो कोई जानने वाला बॉम्बे मे नही था। पर अपने मित्र के जानने वाले उस शहर की एक बड़ी हस्ती थे। हम लोगो ने उन्के घर जाने का मन बना लिया। जैसे ही हम उन्के घर पहुच कर घंटी बजाते है, एक सुन्दर लड्की दरवाजा खोलती है। चुकि हमारे मित्र ने भी अपने रिश्तेदार के बारे मे ज्यादा जानकारी नही ली थी इसी लिये उन्होने उस लड्की को नमस्कार किया पर जाने क्यों मेरा मन नही हुआ। जैसे ही हम कमरे मे पहुचे बुजुर्ग ने मुझे ही मेरा मित्र समझ कर स्वागत करना शुरु कर दिया। मैने अपने मित्र को उन्के ही रिश्तेदार से मिलवाया। अब हमारे उपर मिठाई की बारिश हो रही थी ।एक मिठाई खाने के बाद ही समझ आ गयी की हमे प्यार से पुरानी मिठाई खिलाई जा रही है। हमारे मित्र ने एक मिठाई खाने के बाद बताया की वो ब्रत है और उस खट्टी मिठाई से पीछा छुड़ाया। पर मै उतना खुश किस्मत नही रहा ।मुझे उन्के प्यार की कई बासी बरसात झेलनी पडी।
अभी मिठाई की बारिश से उबरे नही थे तभी वही लड्की चाय लेकर आ गयी जिसने दरवाजा खोला था। पहली बार अपने कपडे और पहनावा जिसपर हम बनारस मे ताव खाते थे वो एकाएक बहुत खराब लगने लगे। हमे जब पता लगा की वो लड्की जिसने दरवाजा खोला था वो नौक्ररानी थी तो हमे अपने कपडो पर और लज्जा आने लगी।
खैर बात होते-होते पेट मे उबाल आना शुरु हो चुका था। खट्टी मिठाईयाँ अब कही नीचे बैठ चुकी थी। फिर से कुछ खा लेने की इच्छा हो ही रही थी कि वही लड्की फिर से हमे अजीब नजरो से देखते हुए पास आके र्बोली " खाना लग गया है बुआ जी इन्तजार कर रही है"। हम अपनी पिछली बेज्जती को भूल लपक कर खनेके टेबल पर जा बैठे। हमारे मित्र नाम रख ही देता हू" सनोज" के भाई और बहन (दूर के रिश्ते) डाइनिंग टेबल पर हमार इन्तजार कर रहे थे। और सिर्फ इन्तजार हमारा ही नही था ये शायद दो सभ्याताओ का मिलन था। बहन जी का वस्त्र ऐसा था जो बनारस मे किसी बहन के अपने भाई के सामने पहनने की हिम्मत न होती।नजरे नीचे किये उनसे बात होती रही और भोजन चलता रहा। एक दो रोटी के बाद कोई आमलेट खा रहा था तो कोई शान्त हो चुका था। भूख तो जैसे हमारे ही पेट पर आक्रमण कर चुकी थी। दनादन खाते हुए एकाएक फिर वही चेहरा दिखाई पड्ता है। इस बार थोडा परेशान। बुआ जी आंटा तो खत्म हो गया और गूँथ दूँ क्या। ये शब्द भेदी बान की तरह हमारे कानो मे घाव कर गया। मरता क्या न करता स्वर भी तंगी से निकल रहे थे पर हमे भी तो घोषणा करनी थी सो कर दिया। पर हमारे सनोज भाई न माने और रोटी खाने की फरमाइश कर दी।