मेरी तीन कहानिया : बॉम्बे टू गोवा- अध्याय पांच
चौपाटी से एक नयी तरह की सांस्कृतिक सोच से पाला पड़ने के बाद हम चल पड़े सनोज भाई के रिश्तेदार की दुकान की तरफ | हम जब वहा पहुचे तो मराठा भवन देखा जहा...


चौपाटी से एक नयी तरह की सांस्कृतिक सोच से पाला पड़ने के बाद हम चल पड़े सनोज भाई के रिश्तेदार की दुकान की तरफ | हम जब वहा पहुचे तो मराठा भवन देखा जहा...
चौपाटी से एक नयी तरह की सांस्कृतिक सोच से पाला पड़ने के बाद हम चल पड़े सनोज भाई के रिश्तेदार की दुकान की तरफ | हम जब वहा पहुचे तो मराठा भवन देखा जहा बाल ठाकरे साहेब के बारे में पता चला | किस तरह एक क्षेत्रीय दल या इंसान राष्ट्रीय राजनीति में दखल रखता है उसका भी जायजा मिला | बाला साहेब के बारे में लोग काफी अच्छी सोच रखते थे | वो मराठा स्वाभिमान के प्रतीक के रूप में स्थापित हो चुके थे | जब हम फ्रूट जूस कॉर्नर पर पहुचे तो देखा की बड़ी भीड़ थी | हम लोगो को देखकर अमर भाई ने हमे सबसे अच्छा फ्रूट जूस का बड़ा वाला ग्लास पकडाया | हम भी काफी देर से पैदल चलने के कारण थके से लग रहे थे और उस जूस के ग्लास ने हमे नयी उर्जा से भर दिया |
हम रात वही काफी देर तक अमर
भाई के फ्रूट जूस कॉर्नर पर बैठ कर सोच रहे थे की आखिर हम पूर्वांचल के लोगो को
मुंबई क्यों आना पड़ता है | यहाँ पर फ्रूट जूस बेच रहा
आदमी अपने गाँव का प्रतिष्ठित किसान है पर उसे फूटपाथ के एक कोने पर मुश्किल से दस
बाई दस की दूकान जो एकदम फूटपाथ पर खुलती है उसमे अपना जीवन लगा देता है | ग्राहकों की लगातार आमद से हमे महसूस हो गया की ये दूकान
लक्ष्मी मैया की कृपा से चल रही है | लगातार लोग आये जा
रहे है और उन्नीस सौ नब्बे में उस दूकान पर हमारे देखते -देखते हजारों की बिक्री
हो गयी | उस समय देश के नौकरीपेशा जब एक महीने बाद अपनी
तनख्वा पाते थे तो वो भी तीन चार हजार के करीब होती थी और यहाँ तो तीन -चार हजार
कुछ घंटो में ही | सही लगा | क्यों हम नौकर बने मालिक बन रोज तीन - चार हजार कमायें |
यही सोचते - सोचते हम अमर भाई के घर पहुचे | रास्ते में हमे वो मैदान भी दिखा जहा सुनील गावस्कर खेला
करते | थोडा आगे जाकर हमने सुनील गावस्कर का घर भी देखा
| उस समय क्रिकेट का जनून हम लोगो को पागल कर देता
था | उस दिन गावस्कर का घर न हुआ हमे लगा कि मक्का -मदीना और माता वैष्णो देवी की यात्रा
जितना पुण्य हम उस घर को देख कर ही कमा चुके थे |
खैर अमर भाई के घर पहुचते -पहुचते काफी देर हो चुकी थी | उन्होंने पहले ही बता दिया होगा तभी जैसे ही हम घर पहुचे तो एक सुंदर महिला ने दरवाजा खोला | मैंने ये भापते हुए की वो जरूर अमर जी की पत्नी है उन्हें प्रणाम किया | सनोज भाई अपनी पूर्व में की गयी गलती यानि की नौकरानी को प्रणाम करने की भूल से सबक लेते हुए अब किसी को प्रणाम नहीं कर रहे थे | अब घर के लोगो को लगा की ,मै ही उनका रिश्तेदार हू | उन्होंने मुझे अंदर बुलाया और प्रेम पूर्वक घर और बुआ जी के यानि सनोज की माता जी के बारे में बाते करने लगी | मैंने थोड़ी देर बाद उनको बताना उचित समझा और फिर मौका देखकर बता दिया की सनोज जी वो है जो बाहर बैठे है | उनको भी लगा होगा की कैसा रिश्तेदार है जो उनको जानता नहीं और रात बिताने यही आ गया |
मुंबई में पहली बार गरमा
गर्म खाना और वो भी माँ के हाथ जैसा अपना यानी पूर्वांचल का पराठा , सब्जी में बैगन की कलौजी , आलू परवल का रसेदार और आम की चटनी मानो यात्रा में लोटरी लग गयी | पिछली बार की तरह कोई शर्म नहीं गर्म पराठा और सब्जी की
तबतक सप्लाई होती रही जब तक हम छक कर खाने के बाद बेहोश से नहीं हो गए | लगा की यही लेट जाये | पर दुसरे के घर की कुछ मर्यादा होती है तो हम किसी तरह फिर उठ कर बैठ गए |
अब पहली बार उनका घर हमारे
नजरों के सामने आया | अभी तक की भूख ने और कुछ
नहीं देखने दिया था | अब नीद जोर मार रही थी और
आँखे अपना बिस्तर दूंढ रही थी | इसी में हमने देखा की घर तो
एक रेलगाड़ी का पूरा कम्पार्टमेंट था | जैसे लोग बर्थ पर सोते है वैसे ही पार्टीशन कर
ड्राइंग रूम था जहा हम विरजमान थे | खाना खाकर हाथ धोने
के बहाने हम लोगों ने पुरे घर का एक्स रे कर लिया था | ड्राइंग रूम के बाद मुश्किल से पाच बाई पाच के पार्टीशन में अमर भाई का बेडरूम
था | और इसी तरह वो सीधा मकान कई भागो में
सुविधानुसार बटा था | हम लोग बनारस के घर जहा गाय
के रहने के लिए भी हम बढ़िया जगह देते है की उसे भी तंगी न महसूस हो| अमर भाई के मकान को देखकर तीन चार हजार रोज का ख्याल भाग
गया और लगा की अरे भाई जब सोने के लिए ही जगह नहीं तो ये पैसा किस काम का |
अब हमे उनका कमरा देख चौपटी का दृश्य याद आने लगा | क्यों लोग चौपाटी के अँधेरे में प्रेमालाप करते दिख जाते है
| अब जब घर में आप के पाच बाई पाच के स्पेस के ठीक
बगल में आपके बच्चे , माँ -बाप सो रहे हो तो आप क्या करेंगे | कई हिंदी फिल्मों के उन दृश्यों की याद आ गयी जहा मुंबई और ऐसे ही बड़े महानगर
में रह रहे हीरो अपनी हेरोइन के साथ किचन में प्रेमालाप करते दिख जाते थे |
अमर भाई के घर में तो किचन भी ओपन था |
सनोज भाई का घर बनारस में
एक प्रतिष्ठित जगह था और उसमे पर्याप्त कमरे , कम से कम २५ से तीस थे ही और गाय माता के लिए अलग से कमरा | यही हाल हमारे यहाँ था नीचे के पाच कमरे आने वाले लोगो के लिए और उपर पांच कमरों में हम
सब रहा करते थे | नीचे पिताजी गाँव से लगातार आने वाले लोगो के स्वागत में लगे
रहते थे | गाय माता हमे नित्य पौष्टिक दूध दे देती थी |
गाँव से आये हुए चावल , गेहू , मटर , चना, दाल, से घर का एक कमरा बड़े -बड़े
कंडाल में रखे अनाज से भरा पड़ा था | चावल - गेहू ख़रीदा
जाता है ये हमे उस समय तक ज्ञात नहीं था | न ही कभी ये पता चला
की कौन रिश्तेदार आया और कौन कब गया | आज जब हम स्पेंसर और
बिगबाजार में जाकर एक एक किलो का चावल, दाल का पैकेट लाते
है तो लगता है की भारत विकसित हो गया या हम पीछे चले गए | दिन अच्छा कौन सा था - वो जब आपको किसी का आना और घर में दस -दस दिन तक जमे
रहना | फिर भी घर के किसी सदस्य के चेहरे पे शिकन नहीं |
गर्मियों में छत पर सोने का
चलन, घर के सारे लोग अपनी-अपनी खटिया की रक्षा में
लगे हुए एक अदद पंखे का रुख अपनी तरफ मोड़ने का संघर्ष, और रात में अगर भगवान् ने हवा चला दी तो सैकड़ो ए सी फेल | कभी नाराज हो कर बिना खाए
छत पर सो जाओ तो माँ का रात में पूरा खाना लेकर आना और राजा की तरह सबको दिखा कर
रात में छत पर खाना शायद दुनिया का सबसे बड़ा सुख था जिसका एहसास वक़्त बीत जाने पर
सभी को होता है | हम लोगों ने कभी भी ये नहीं
महसूस किया की इतने आने -जाने वाले लोग और इतने भाई बहन (तीन बहन और तीन भाई कमोबेश यही हाल उस समय सब परिवारों का था ) सभी
को पढ़ा -लिखा कर योग्य बनाने वाले माँ बाप किस तरह चीजो को मैनेज करते थे |
खैर खाना खत्म हो चुका था
सोने के लिए दिल बैचन हो रहा था | तभी अमर भाई ने कहा की हम
लोग छत पर चलते है वही सोयेंगे | ये सुनते ही हमे मजा आ गया |
बॉम्बे में छत पर सोना हमे बनारस की याद दिला गया | पर जब उम छत पर जाने के लिए निकले तो सांस अटक गयी |
एक पतली सी सीढ़ी जो सीधे आसमान में जाते दिखाई दे रही थी |
जरा सा फिसले और कई मंजिल नीचे | सनोज भाई तो नीचे ही अटक गए मैंने किसी तरह हिम्मत कर उपर जाने की तयारी की |
मुझे एक मंजिल तक पहुच जाने के बाद सनोज भाई का भी
कॉन्फिडेंस लेवल बढ़ा और वो भी लपक कर आ गए | सीढ़ी चढ़ने में जो भी सांस रुकी थी जब हम छत पर पहुचे तो मजा आ गया | बगल में डी ए वी स्कूल की खाली जमीन और अगल -बगल किसी की
नजरे हम पर नहीं | बॉम्बे में वो रात कमाल की
रात थी | छत पर लेट कर तारे गिनने का काम बनारस ही नहीं
बॉम्बे में भी किया जा सकता था ये हमे पहली बार एहसास हुआ |
आगे की यात्रा में फिर
मिलेंगे तब तक आप भी रात में तारों की गिनती करे ....