भारत में प्रतिरोध का सिनेमा : एंग्री यंग मैन
१९७३ में प्रकाश मेहरा ने जंजीर फिल्म बनायीं | इस फिल्म के नायक अमिताभ बच्चन उनकी पहली पसंद नहीं थे | पर यह फिल्म अमिताभ बच्चन को एक पुलिस ऑफिसर के...


१९७३ में प्रकाश मेहरा ने जंजीर फिल्म बनायीं | इस फिल्म के नायक अमिताभ बच्चन उनकी पहली पसंद नहीं थे | पर यह फिल्म अमिताभ बच्चन को एक पुलिस ऑफिसर के...
१९७३ में प्रकाश मेहरा ने जंजीर फिल्म बनायीं | इस फिल्म के नायक अमिताभ बच्चन उनकी पहली पसंद नहीं थे | पर यह फिल्म अमिताभ बच्चन को एक पुलिस ऑफिसर के रोल में दमदार भूमिका और एंग्री यंग मैन इमेज के रूप में स्थापित करने वाली फिल्म बन गयी | हालाकि इस फिल्म में प्राण ने शानदार अभिनय से शेर खान के किरदार को अमर कर दिया | इस फिल्म का गाना यारी है इमान मेरा यार मेरी जिंदगी आज भी भारत की महफ़िलो में शान के साथ बजता है |
जंजीर फिल्म और इसी तरह की अन्य फिल्मो ने
भारत में एक नयी फिल्म क्रांति ला दी | भारत में लोगो के अंदर स्वतंत्रता की खुमारी ख़त्म हो रही
थी | अब १९४७ के बाद एक ऐसी पीढ़ी आ चुकी थी जो २३ -२४ साल की हो चुकी थी | उन्हें
अब स्वतंत्रता की कहानी नहीं लुभाती थी | उनके सामने योरॉप और अमेरिका में हो रहे
बदलाव और विकास दिखाई दे रहा था | इन सब की जब वो तुलना करते थे तो उन्हें भारत
में बेकारी, गरीबी और भ्रष्ट्राचार दिखाई पड़ता था | सरकार में वो लोग आ चुके थे वो
स्वतंत्रता आन्दोलन की पिछली पंक्ति में खड़े थे | यही पर जब सिनेमा में नायक लोगो
को मारता था और कभी –कभी समाज के नियमो से बौखला कर या तो उनको तोड़ने या फिर उसी
भ्रष्ट सत्ता का हिस्सा बन जाता था | जंजीर का खलनायक प्राण है पर वो खलनायक होते
हुए भी मानवीय मूल्यों और पुरानी परम्पराओं को मानता हुआ दिखाई पड़ता है |
हालाकि एंग्री यंग मैन शब्द भारत में अमिताभ बच्चन का एक दूसरा रूप है पर वास्तव में ये १९५० और १९६० के दशक के ब्रिटेन की भी कहानी है | जहा एक और ब्रिटिश राज ख़त्म हो रहा था वही दूसरी ओर पढेलिखे को नौकरी कम मिल रही थी या फिर उसके शिक्षा से कम स्तर की नौकरी थी | द इकोनॉमिस्ट के अनुसार १९५९ -६० में ८८ प्रतिशत टैक्स पेयर की प्राइवेट इनकम ३.7 प्रतिशत थी पर 7 प्रतिशत धनी व्यक्तियों का कुल धन में ८८ फीसदी कब्ज़ा था | इन्ही परिस्थितियों के बीच ओस्बोर्न ने अपना नाटक “ लुक बैक इन एंगर “ लिखा जिसका नायक जिम्मी पोर्टर एक विश्वविध्यालय से पढ़ा विद्रोही व्यक्ति था, जो सत्ता में बैठे लोगो से इस लिए नाराज था कि उसे उसकी क्षमता के अनुसार नौकरी नहीं मिली थी | १९५६ में लन्दन के रॉयल कोर्ट में जब ये नाटक दिखाया जा रहा था तो यही पर ओस्बोर्न का नाटक देखने आया एक व्यक्ति जो उस थिएटर का प्रेस ऑफिसर जोर्जे फेरोन था, उसे ये बिलकुल अच्छा नहीं लगा |
उसने ओस्बोर्न से बातचीत में अपने भाव को
व्यक्त करते हुए कहा की आप बिलकुल एंग्री यंग मैन लगते है | प्रेस वालो से बातचीत
के दौरान ओस्बोर्न ने ये बात उनसे साझा की और जल्दी ही ये मीडिया में लोकप्रिय
शब्द हो गया | भारत में भी ये प्रतिरोध का सिनेमा था जो अपने नायक को अपने लिए
परदे पर लड़ते देख तालिया बजाय करता था |
१९७० और ८० के समय का भारत ब्लैक
मार्केटिंग , स्मगलिंग , जमाखोरी , और युवा प्रतिरोध का समय था | नेहरूवियन मोडल
से जो विकास का वादा सरकार ने किया था वो पूरा नहीं हो पाया | इंग्लैंड की तरह
भारत में भी एक ऐसा वर्ग पैदा हो चूका था जिसका ज्यादा तर संशाधनो पर कब्ज़ा हो
चुका था | भारत का युवा जो यहाँ के विश्व विद्यालयों से पढ़ कर निकल रहा था उसे
अपना भविष्य नहीं दिखाई पड़ रहा था | यही वो समय था जब १९७१ की दुर्गा , इंदिरा
गाँधी अपने राजनीतिक अवसान पर थी | कांग्रेस दो भागो में विभक्त हो चुकी थी | रही
सही कसर आपातकाल ने पूरी कर दी | देश का युवा सत्ता के खिलाफ खड़ा हो गया और उसने
सरकार बदल दी | पर सरकार बदली नसीब नहीं बदला और ये प्रतिरोध सिनेमा के परदे पर
उतर आया |
जहा एक ओर शेर खान था वही दूसरी और एक और
खलनायक तेजा है जो बदलते भारत का नया चेहरा है | एक ऐसा व्यक्ति जो सफेदपोश है और
आधुनिक दुनिया में व्यापारी के नाम से जाना जाता है पर वो समाज को निरंतर चोट
पंहुचा रहा है | तेजा का विजय को फर्जी केस में फसा देना और सिस्टम की अक्षमता कही
न कहीं न्याय , पोलिस और सत्ता के गठबंधन को दर्शाता है | पर शायद सलीम –जावेद को
ये पूरा सिस्टम ख़राब नहीं लगता इसिलए पोलिस कमिश्नर सिंह विजय पर विश्वास करता है
पर वो भी सिस्टम के सामने लाचार दिखाई पड़ता है | तेजा एक और बदलते भारत का नया
खलनायक है जो पढ़ा –लिखा सफेदपोश है जो सिस्टम की कमजोरी में अपनी ताकत बना लेता है
और दूसरी तरह शेर खान है जो जुआ और स्मगलिंग जैसे अपराध में लिप्त है पर कही न कही
उसके अन्दर अभी भी एक अच्छा इन्सान जिन्दा है |
जंजीर से भारत में प्रतिरोध का सिनेमा नजर आने लगता है पर यही पर एक ऐसे हीरो का भी जन्म हो जाता है जो फिल्म नोयर से प्रभावित है | दीवार फिल्म का हीरो भी सत्ता के खिलाफ लड़ता है पर वो लड़ते –लड़ते उसी में शामिल हो जाता है जिससे लड़ाई थी | जब दीवार का हीरो अपने भाई से कहता है कि मेरे पास गाड़ी है , बंगला है , बैंक बैलेंस है और तुम्हारे पास क्या है ? तो ये डायलाग उस समय के युवा के न सिर्फ चिंता को व्यक्त करता है बल्कि उनके सपने भी इसके दिखाई पड़ते है जिन्हें वो सही तरीके से हांसिल नहीं कर पा रहा था |
इस फिल्म में बढे शहरो में आये छोटे शहर
के लोगो की कहानी भी नजर आ जाती है | गाँव से आया इमानदार और मेहनती किसान या
मजदूर जब शहर के माया जाल में फसता है तो वो आवारा का राजू बनता है या जंजीर का
विजय | वो या तो शहर के नियमो को बदलने की कोशिश करता है या फिर दीवार के हीरो की
तरह उसी को अपनी नियति मान शामिल हो जाता है | ये दोनों ही पात्र भारत के प्रतिरोध
के सिनेमा की उपज है और वो दो अलग –अलग विचारधाराओ का प्रतिनिधित्व करते है |