शुद्र द राइजिंग: विवशता सिर्फ एक जाति की कहानी नही है यहाँ हर वो पिसता है जो गरीब है , जो अपनी रक्षा करने में सक्षम नही है

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शुद्र द राइजिंग: विवशता सिर्फ एक जाति की कहानी नही है यहाँ हर वो पिसता है जो गरीब है , जो अपनी रक्षा करने में सक्षम नही है

शुद्रा : द राइजिंग

फिल्म का लेखन , और निर्देशन करने वाले संजीव जैसवाल ने फिल्म की शुरुआत में ही आर्य और मूलनिवासी के विवादित विषय को फिल्म का आधार बना कर शुद्र की पीड़ा को नाटकीय रूपांतरण की ओर मोड़ दिया है | शुद्र विषय भारत के एक बड़े वर्ग के संघर्ष और बदलाव की कहानी है पर कहानी , कलाकार और अभिनय के स्तर पर और मेहनत की जाती तो फिल्म को और स्वाभाविक और दुःख को और प्रभावशाली तरीके से दिखाया जा सकता था |

फिल्म की भाषा और संवाद में जांगर चोर , सगरो , हरामी , सार नही के, मनई , जैसे शब्द आधुनिक भारत में ही मिलते है और फिल्म आर्य और मूलनिवासी के विषय को दिखाने का प्रयास करती है जिसमे ये सफल नही है | भाषा के स्तर पर अगर इस फिल्म को देखा जाए तो इसकी सेटिंग उत्तर प्रदेश या फिर किसी हिंदी भाषी क्षेत्र की दिखाई देती है | पर जिस तरह का वस्त्र शुद्र लोगो को पहने दिखाया गया है वो इस फिल्म के कथानक से मेल नही खाता है |

फिल्म का मूल वही है ब्राहमण छुआछात को बढ़ावा देता दिखाई देता है और क्षत्रिय समाज में शुद्र स्त्री के प्रति कुदृष्टि रखे हुए है |फिल्म की शुरुआत में ही ये स्थापित किया जा चुका है | अपने पिता के लिए पानी की तलाश में भटकता शुद्र जब पानी के लिए तालाब के पास जाता है तो उसको पानी की जगह पत्थर से मारते है और सभी उसको घायल वही छोड़ कर चले जाते है | ये विषय महान समाज सुधारक रहे डॉ. अम्बेडकर के जीवन का केंद्र रहा है और उन्होंने इसके लिए लम्बे आन्दोलन कर शुद्रो को पानी की बराबरी हासिल करवाई थी | इस फिल्म की शुरुआत के जितने सीन है उसमे कहीं भी नयापन नही है | इस फिल्म के दृश्य शायद अगर तुलना करे तो पार , मंथन , अछूत कन्या , जैसे फिल्मों के दृश्यों के आस पास भी नही है |

जब एक स्त्री कहती है की ठाकुर ही हमारे भगवान् है और अगर ये ठाकुर के पास नही जायेगी तो गावं की सभी स्त्रियों को दिक्कत होगी | ये संवाद अपने आप में वर्ग विभेद को दिखाता है | भारत में जब से मुग़ल आये तब से उन्होंने जहाँ भी विजय पायी वहां की स्त्री को अपने हरम में और पुरुष को दास बना लेने की परंपरा डाल दी | फिल्म में ये दृश्य कही न कही मुग़ल काल के शासन से प्रेरित दिखाई देते है | मुगलों के आने के बाद या तो लोगो ने इस्लाम कबूल कर लिया और अपनी बहन बेटियों को बचाया या फिर उनके साथ मिल कर अपने लोगों के खिलाफ राजा मानसिंह की तरह लड़ कर सत्ता का सुख लेने लगे | पर उनकी भी बहन और परिवार को मुगलों से शादी करनी पड़ी थी |

विवशता सिर्फ एक जाति की कहानी नही है यहाँ हर वो पिसता है जो गरीब है , जो अपनी रक्षा करने में सक्षम नही है | क्योंकि भारत में निषाद राज का भी उदाहरण है जिन्होंने अपनी ताकत के दम पर न सिर्फ अपने कुल की प्रतिष्ठा बढाई बल्कि राजा राम की भी मदद की | जुल्म की कहानी को अगर किस जाति से बाँध देंगे तो हिटलर की जाती और मुगलों की धर्मान्धता की भी चर्चा करनी पड़ेगी | फिल्म में ठाकुर की स्त्री भी उतनी ही लाचार है जितनी शुद्र की क्योंकि वो भी अपने पति के अत्याचारों के खिलाफ खड़े होने का साहस नही करती है | चारण की पत्नी जब ठकुराइन से अपने आप को बचाने के लिए कहती है तो ठाकुर की स्त्री की लाचारी भी उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देती है | श्याम बेनेगल की अवार्ड जीतने वाली फिल्म अंकुर के दृश्यों से अगर इस फिल्म की तुलना करे तो वहा शबाना आजमी ने दलित स्त्री के किरदार में जान फूंक दी थी और वो एक सशक्त स्त्री के रूप में परदे पर शुद्र विमर्श करती है और ठाकुर के अत्याचारों से अकेले ही मुकाबला करती है | पर शुद्र द राइजिंग फिल्म का देश काल और समय स्पष्ट नही हो पाता है , जिस तरह के दृश्य है वो भारत के स्वतंत्रता बाद के नहीं है |

फिल्म में ठाकुर के अत्याचार का शिकार चरना की पत्नी जब अपने पति के पास पहुचती है तो उसको दवा की जगह झाड फूंक करते हुए पूरा गावं दिखाई देता है | वैध के पास से जब तक चरना की पत्नी दावा ले कर आती है तब तक उसकी मृत्यु हो जाती है | चरना की मौत के बाद उसको जलता दिखाना ये बताता है की हर तरह के अत्याचार के बाद भी शुद्र उसी सनातन की परंपरा का पालन कर रहा था जिससे लड़ाई चल रही थी | इस बात से फिल्म की शुरुआत अपने आप में प्रासंगिक नहीं रहती है जहाँ पर मूलनिवासी और आर्य को अलग –अलग बताया गया था |

बाला जब चरना की मौत के लिए ठाकुर की हत्या का प्लान बनाता है तो माधव उसका विरोध करता है | पर उसके विरोध को लोग दर किनार कर देते है | इस फिल्म के संवाद समय और काल को लेकर संदेह पैदा करते है | नगर में गुप्तचरी जैसे शब्द काफी पुराना है | पर उनकी वेश भूषा उस वक्त को सही तरीके से नही दिखा पाती है | ठाकुरों को अत्याचारी बताते हुए जब एक पात्र कहता है कि ये भी नही पता चलता की जिस औलाद को हम सीने से लगा कर घूमते है वो अपनी है या ठाकुरों की | ये समाज में ठाकुरों को अत्याचारी के रूप में दिखाने का प्रयास है | पर इस तरह के अत्याचार को हम एक जाती या समाज से नही जोड़ सकते है | जो जब बलशाली रहा उसने दुसरे की स्त्री और धन को लूटा है |

एक छोटे बच्चे का ॐ नमः शिवाय का जाप और उसके बाद पंचायत बुलाना इस फिल्म को नाटकीय बना देता है | हालाकि इस तरह की घटनाओं से इनकार नही किया जा सकता अपर भारत में अंधविश्वास के कारण लोगों ने अपने ही घर के चिराग को भी ख़त्म कर दिया है | यहाँ पर कुल मिला कर ये फिल्म पहले से स्थापित दो जाति ठाकुर और ब्राह्मणों के अत्याचार को बताने का प्रयास करती दिखती है पर इस काम में वो पहले की फिल्मों से कही अलग नही होती है |

इससे पहले भी इस विषय पर दमदार और महत्वपूर्ण फिल्म बन चुकी है और ये फिल्म उन फिल्मों के आगे कही ठहरती नही है पर आज कल जिस तरह से फिल्म के नाम पर रजनीति हो रही है वहाँ पर फिल्म के कथानक , कलाकारों के अभिनय , देश काल का चित्रण ,संवादों के चयन के आधार पर न होकर सिर्फ जाति और धर्म तक टिक गयी है |

ठाकुर के बेटे के क़त्ल के बाद ठकुराइन का कहना की उसके पापो का घड़ा भर गया सनातन परंपरा में अच्छे और बुरे का भेद बताता है | पापी चाहे जो हो उसको एक न एक दिन सजा मिलती ही या ये सनातन परम्परा का विश्वास है |

शुद्र द राइजिंग एक ऐसी फिल्म ही जिसमे इस जाति के उपर हुए अत्याचारों को बताने का प्रयास किया है पर वो इसमें उस तरह से सफल नही दिखती जितनी होनी चाहिए थी | इस विषय को सिर्फ शारीरिक शोषण और अन्धविश्वास से अलग हट कर उनके संघर्ष को और भी प्रभावी तरीके से पेश किया जा सकता है | खैर इस निर्देशक की एक आने वाली फिल्म कोटा को कश्मीर फाइल्स और शुद्र द राइजिंग विवाद का फायदा मिलेगा और आने वाले समय में वो फिल्म दर्शको को लुभा सकती है |


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