इतिहास से निकालकर : फ्रेंज ओस्टिन - भाग २, " दुनिया कहती मुझको पागल मै कहती दुनिया है पागल "|

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इतिहास से निकालकर : फ्रेंज ओस्टिन  - भाग २,  दुनिया कहती मुझको पागल मै कहती दुनिया है पागल |

१९३६ में ही एक और फिल्म आती है जन्मभूमि इस फिल्म के माध्यम से भी अंध विश्वास और जाति प्रथा पर प्रभावशाली तरीके से प्रहार किया जाता है | इसमें एक दृश्य है जिसमे एक व्यक्ति अत्यंत बीमार है और वो डॉक्टर अजय कुमार से कहता है कि वो जीना चाहता है पर डॉक्टर उसको बचा नही पाता |

वही एक पागल स्त्री बाहर गाना गा रही है " दुनिया कहती मुझको पागल मै कहती दुनिया है पागल "| जब उसकी आवाज मरीज को सुनायी पड़ती है तो वो डॉक्टर से कहता है की वो पागल उसकी दोस्त है |

जब डॉक्टर उस पागल स्त्री को बीमार के पास लाता है तो वो कहती है की दो पागल ठीक है | जब मरीज बताता है की डॉक्टर उनके दोस्त है तो वो कहती है की पागल का दोस्त पागल , चलो दो पागल रह जायेंगे |

ये संवाद बहुत कुछ कहता है | ये फिल्म के मूल विषय अंध विश्वास और छुआछुत को एक तरह से पागलपन की तरह ही देख रहे है | जब डॉक्टर अपने होने वाली पत्नी प्रतिमा को ख़त लिखता है की वो उससे शादी नही कर सकता क्योंकि उसे गाँव में रहकर गरीबो की सेवा करनी है | प्रतिमा का पिता तुरंत उसके चरित्र पर सवाल खड़ा करता है और उनका संवाद कि

"तुम क्या जानो मर्दों को , आ गया होगा किसी और पर दिल इस कारण तुमसे शादी नही करना चाहता "|

ये संवाद उस समय के मनःस्थिति को प्रदर्शित करता है जिसमे पुरुष उच्चता के शिखर पर है और वो जो भी करता है उसको एक ही तरह के मापदंड से नापा जाता है |

फिल्म में अंध विश्वास , सूदखोरी , छुआछूत के खिलाफ जब अजय डॉक्टर ने लोगो को जागृत किया तो एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में जमींदार उनका विरोध करता है |

फिल्म का गाना "ढली रात आया प्रभात हम निद्रा से जागे" इस फिल्म के समस्याओं को बड़ी अच्छी तरह प्रदर्शित करता है | फिल्म के एक दृश्य में पंडित जी जब जमींदार के यहाँ आते है तो उनको हुक्का पीने के लिए दिया जाता है |

एकाएक लोगो की नजर जब पंडित जी के हुक्के पर पड़ती है तो पता चलता है की वो कायस्थों का हुक्का था | अब तो पंडित जी चिल्लाने लगते है कि उनको अपने धर्म से निकालने के लिए जानबूझ कर जिसने हुक्का बनाया था उसने डॉक्टर अजय के कहने के कारण ही इस तरह की हरकत की है |

फिल्म में नायक को जेल से निकालने के लिए नायिका का समर्पण हमें हिंदी की ज्यादातर फिल्मो की याद दिला देता है जिसमे अपने प्रेमी की ख़ुशी के लिए नायिका अपना सब कुछ लुटा देने को ख़ुशी- ख़ुशी तैयार है |

हिमांशु राय के प्रोडक्शन और फ्रेंज ओस्टिन के निर्देशन में १९३७ में बनी फिल्म इज्जत भी हिंदी फिल्म के विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है | इसमें भी अशोक कुमार और देविका रानी है |

ये फिल्म मराठा गौरव और भीलो के बीच बनाये गए सम्बन्ध और उसमे आये उतार चढ़ाव की कहानी है | किस तरह से मराठा और भीलों के बीच अच्छे रिश्ते बने थे पर मराठा पटेल के मरने के बाद उसके भतीजे ने पटेल बनते ही भीलों के बीच फिर से पुरानी दुश्मनी चालू कर दी |

अब भीलो ने अपने गाँव आश्ती से पहाड़ों में जाने का फैसला कर लिया पर बालाजी के कारण अपने एक साथी की मौत से भीलो का गुस्सा फिर भड़क जाता है|

मराठा से लड़ने के लिए नया लीडर कन्हैया चुन लिया जाता है | उसके और उसके प्रतिद्वंदी के बीच हुए प्रतियोगिता में कन्हैया विजयी होता है | भीलों का नेता बनते ही वो मराठों से तुरंत लड़ता नही है बल्कि वो एक की गलती के लिए सभी मराठों को जिम्मेदार नही मानता है | वो बालाजी से तो बदला लेना चाहता है पर समझदारी के साथ |

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