मंथन एक ऐसी फिल्म है जिसे हर भारतीय को जरूर देखना चाहिए: प्रो गोविंद जी पांडे

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मंथन एक ऐसी फिल्म है जिसे हर भारतीय को जरूर देखना चाहिए: प्रो गोविंद जी पांडे

प्रो गोविंद जी पाण्डेय

मंथन 1976 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है, जिसका निर्देशन श्याम बेनेगल ने किया है, जो वर्गीज कुरियन के दुग्ध सहकारी आंदोलन से प्रेरित है और इसे बेनेगल और विजय तेंदुलकर ने संयुक्त रूप से लिखा है।

यह भारत की श्वेत क्रांति की पृष्ठभूमि के बीच की फिल्म है जिसमे इस क्रांति के पीछे की कहानी को बयान करने का प्रयास किया गया है । इस परियोजना की बड़ी सफलता के अलावा, इसने "सामूहिक शक्ति" की शक्ति का भी प्रदर्शन किया क्योंकि यह पूरी तरह से 500,000 किसानों द्वारा क्राउडफंडिंग की गई थी, जिन्होंने प्रत्येक को 2 रुपये का दान दिया था। मंथन पहली क्राउडफंडेड भारतीय फिल्म है।

फिल्म गुजरात में गरीब किसानों के एक समूह की कहानी है जो एक डेयरी सहकारी बनाने के लिए एक साथ आते हैं। उनका नेतृत्व डॉ राव (गिरीश कर्नाड) द्वारा किया जाता है, जो उनके जीवन को बेहतर बनाने में उनकी मदद करने के लिए दृढ़ हैं।

किसानों को स्थानीय दूध माफिया मिश्रा जी (अमरीश पूरी ) के विरोध सहित कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन वे अंततः अपने मिशन में कामयाब होते है पर उसकी एक बड़ी कीमत उनको चुकानी पड़ती है |

मंथन एक शक्तिशाली फिल्म है जो सामाजिक परिवर्तन, महिला सशक्तिकरण और आपसी सहयोग के विषयों की पड़ताल करती है। यह गिरीश कर्नाड, नसीरुद्दीन शाह और स्मिता पाटिल सहित कई ऐसे नए कलाकारों जो फिल्म एवं टेलीविज़न इंस्टिट्यूट पुणे से पढ़ कर आये थे या फिर थिएटर की दुनिया में संघर्ष कर रहे थे , के मजबूत प्रदर्शन के साथ एक अच्छी तरह से बनाई गई फिल्म है। फिल्म का छायांकन काफी कमाल का है जो ग्रामीण गुजरात की सुंदरता को दर्शाता है।



मंथन फिल्म में ग्रामीण किसानों के सामने आने वाली चुनौतियों का यथार्थवादी चित्रण इटेलियन नव यथार्थवाद से प्रभावित है। फिल्म इन किसानों द्वारा अनुभव की जाने वाली गरीबी, शोषण और भ्रष्टाचार को दिखाने से पीछे नहीं हटती है। फिल्म में किसानों की ताकत और लचीलापन, और उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए उनके दृढ़ संकल्प को भी दर्शाया गया है।

मंथन की एक और ताकत सहकारी आंदोलन का चित्रण है। हालांकि भारत में सहकारी आंदोलन का काफी लम्बा इतिहास रहा है और बहुत सी सरकारी योजनाओ को सहकारी आंदोलनों की सहायता से लोगो के बीच फैलाया गया है | इस फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे सहकारी आंदोलन लोगों को सशक्त बना सकता है और उन्हें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद कर सकता है। यह सफलता प्राप्त करने में सहयोग और टीम वर्क के महत्व को भी दर्शाता है।

मंथन फिल्म अपने समय की एक महत्वपूर्ण और व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म थी। इसने सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता, और इसे बर्लिन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में गोल्डन बियर के लिए भी नामांकित किया गया था। फिल्म को ग्रामीण जीवन के यथार्थवादी चित्रण, सहकारी आंदोलन के चित्रण और इसके मजबूत प्रदर्शन के लिए सराहा गया था।

फिल्म के पात्र डॉ. राव , भोला और बिंदु के बीच घूमती फिल्म मिश्रा जी जो गांव वालो से दूध खरीद कर अपनी डेरी चलाते है और गांव का सरपंच जो दोनों ओर के लोगों के साथ सामंजस्य स्थापित करता रहता है पर उसका पात्र बदलता रहता है |

मंथन में डॉ. राव के रूप में गिरीश कर्नाड का अभिनय भारतीय सिनेमा में सबसे यादगार प्रदर्शनों में से एक है। कर्नाड इस भूमिका में गहरी मानवता और दृढ़ विश्वास लाते हैं, और उनका प्रदर्शन प्रेरणादायक और दिल तोड़ने वाला दोनों है। वो जहां एक तरफ अपने काम के प्रति समर्पित है वही उनकी बिन्दु के प्रति उपजी सहानुभूति जिसको परदे पर प्यार तो नहीं कहा गए पर वो दिखाने का प्रयास था , बड़ा ही दिलचस्प है | एक तरफ बिन्दु का पति है जो समझता है कि डॉ राव और बिन्दु मे कुछ चल रहा है वही दूसरी ओर डॉ राव की पत्नी है जो उनपर संदेह करती है और इस कारण उन्हे वहा से वापस जाना पड़ता है |

जिस सीन मे डॉ राव के पास तबादले की चिट्ठी आती है वो बडा ही दिलचस्प है उसमे वो थके -हारे से अपनी पत्नी से कहते है कि उनका तबादला हो गया है वही पीछे से रेडियो पर हिम्मत और हौसले को लेकर बडा ही खूबसूरत आडियो चल रहा होता है |




डॉ राव और भोला के बीच का संबंध भी ठीक नहीं है पर बिन्दु के कारण भोला का मन बदलता है और अंत मे जब डॉ राव स्टेशन पर ट्रेन पकड़ने के लिए जाते है तो भोला का उनको रोकने के लिए दौड़ना और पैरलेल एडिटिंग के माध्यम से जिस तरह से इस दृश्य को पिरोया है वो बहुत खूबसूरत बना है | जब तक भोला आता है ट्रेन जा चुकी होती है |

कर्नाड का चरित्र डॉ राव की आंतरिक उथल-पुथल को दर्शाता है क्योंकि वह गावं मे डेरी की स्थापना मे आर रही चुनौतियों को दूर करने के लिए संघर्ष करते हैं। वह बुद्धिमान है और उनके अंदर दूसरों के लिए करुणा भी है, लेकिन वह दोषपूर्ण और कमजोर भी है। वह गलतियां करते हैं, लेकिन वह किसानों की मदद करने के अपने सपने को कभी नहीं छोड़ते हैं।

बिंदु एक गरीब किसान की पत्नी हैं, जो अपने पति और उनके समुदाय को अपने जीवन को बेहतर बनाने में मदद करने के लिए दृढ़ हैं। वह एक मजबूत और स्वतंत्र महिला हैं जो उन चीजों के लिए खड़े होने से डरती नहीं हैं जिनमें वह विश्वास करती हैं। हालांकि, वह कई चुनौतियों का भी सामना करती है, जिसमें गरीबी, शोषण और खुद ग्रामीणों की उदासीनता शामिल है।

पर इस फिल्म में इस पात्र की जो कमी दिखाई देती है वो उसकी अपने पति के साथ सम्बन्धो को लेकर है | एक स्त्री जो इतनी मजबूत है वो अपने पति के जुल्म के आगे झुक जाती है ये भारतीय समाज में व्याप्त उस समस्या को बताया है जहा पर पति परमेश्वर और शादी के बाद कुछ और सोचना पाप है भले ही पति कितना भी अत्याचारी हो पत्नी को अपने पति के घर से सिर्फ मौत अलग कर सकती है |

जब डॉ राव बिन्दु से मिलने उसके घर जाते है तो उसका पति बीच मे आकर बोलता है कि बिन्दु घर पर नहीं है | बिन्दु सामने खड़ी है और डॉ राव उसे देख रहे है उनको बिन्दु देख रही है , पर न तो बिन्दु कुछ बोलती है और न डॉ राव कुछ बोल पाते है | पति का संवाद सब कुछ बोल जाता है जब वो कहता है कि " बडा आया बिन्दु से मिलने " , यहाँ पर डॉ राव की कम जोरी तो दिखाई पड़ती है वही एक मजबूत स्त्री के रूप मे स्थापित बिन्दु का चरित्र भी कुछ कमजोर पड़ता है |

पर कारण एक ही है , शादी के बाद का संबंध भारत मे सही नहीं माना जाता और डॉ राव ने न तो बिन्दु से कुछ ऐसा पुरी फिल्म मे कहा की वो उसको पसंद करते है और न ही बिन्दु ने कुछ कहा | उन दोनों के बीच की चुप्पी दर्शकों को थोड़ा असहज कर देती है पर कुल मिला कर ये एक ऐसी फिल्म है जिसे हर भारतीय को जरूर देखना चाहिए |

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