मराठी सिनेमा की नयी पहचान है श्वांस और बकेट लिस्ट

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प्रो. गोविन्द जी पांडेय

मराठी सिनेमा का एक नया दौर शुरू हो चुका है. आज बनने वाली फिल्मों का न सिर्फ कथानक अच्छा है बल्कि वो तकनीकि रूप से भी बॉलीवुड के सिनेमा के काफी करीब है. मराठी सिनेमा जगत में बॉलीवुड के प्रवेश ने इसे मजबूती प्रदान की और कुछ अच्छी फिल्मों के प्रदर्शन ने मराठी सिनेमा को भारत के सिनेमा पटल पर स्थापित कर दिया |

ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत में फिल्मों की शुरुआत एक मराठी मानुष दादा साहेब फाल्के द्वारा १९१३ में बनायीं गयी राजा हरिश्चंद्र से होती है. हालाकि इस फिल्म को हिंदी सिनेमा के साथ जोड़ कर देखा जाता है और उसका इतिहास लिखने वाले इसे बॉलीवुड की पहली फिल्म बताते है पर मूक फिल्मों के दौर में इसे मराठी निर्मित फिल्म और मराठी सिनेमा की शुरुआत भी माना जा सकता है. मराठी की पहली बोलती फिल्म वी शांताराम निर्मित अयोध्या का राजा जनवरी १९३२ में प्रदर्शित की जाती है.

हाल के वर्षो में कई मराठी फिल्मों ने राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की है. पिछले साल कासव (कछुआ ) फिल्म को स्वर्ण कमाल अवार्ड से नवाजा गया था. ये फिल्म एक ऐसे महिला की कहानी है जो अपने जीवन की हताशा और निराशा से बाहर निकलने की पूरी कोशिश करती है.

प्रियंका चोपड़ा के प्रोडक्शन हाउस पर्पल पेबल प्रोडक्शन की फिल्म वेंटीलेटर को २०१७ में तीन राष्ट्रीय पुरुष्कारों से नवाजा गया. बेस्ट डायरेक्टर का पुरुष्कार वेंटीलेटर के निर्देशक राजेश मपुस्कर को, संपादन का पुरुष्कार रामेश्वर भगत को व बेस्ट साउंड मिक्सिंग का आलोक डे को मिला. जहा एक ओर मराठी इंडस्ट्री में बॉलीवुड के कलाकारों की दखल बढ़ रही है उसके कारण जहाँ एक ओर मराठी फिल्मों का बजट बढ़ रहा है वही मेनस्ट्रीम सिनेमा के कलाकार भी इससे जुड़ रहे है |

श्वास फिल्म का बजट हालाकि सिर्फ 60 लाख था और वो भी बड़ी मुश्किलों से डायरेक्टर ने इकठ्ठा किया था. पर इस फिल्म द्वारा ५० साल बाद किसी मराठी सिनेमा का राष्ट्रीय पुरुष्कार जीतना और आस्कर के लिए नामांकित होना मराठी सिनेमा के पुनर्जागरण काल का आरम्भ मात्र है.

मराठी फिल्म स्वांस ने जहा फिल्म क्रिटिक का ध्यान अपनी ओर खींचा वही जनमानस में भी अपनी पैठ बना ली | श्वांस और बकेट लिस्ट जैसी फिल्मों ने मराठी सिनेमा को ऐसी लिस्ट में शामिल कर दिया है जंहा सिनेमा समाज की नब्ज टटोलता दिखाई देता है. दोनों ही फिल्मों का सब्जेक्ट आम लोगो से जुड़े स्वास्थ्य की समस्या को लेकर है. जहाँ श्वांस का पुरुषोत्तम अपने दादा का लाडला है वहीँ बकेट लिस्ट की मधुरा साने अपने हर्ट डोनर को जानने की इच्छा में जब उसके घर पहुचती है तो उसकी पूरी जिंदगी ही बदल जाती है.

श्वांस के पुरुषोत्तम को देखकर एक अजीब सा डर और लाचारगी नजर आती है. हर नजर यही सवाल करती है की ये मासूम को ही दुनिया की सबसे अजीब बीमारी. एक दादा जो अपने बेटे के पैरों से लाचार होने के दर्द को पोते की ख़ुशी में जी रहा था उसे गम का पहाड़ मिल जाता है.

क्या ईश्वर नाम की चीज है ? अगर है तो सारे गम एक ही जगह क्यों ? ये सवाल बार –बार दर्शको के दिमाग में कौंध जाता है. पर जिंदगी की सबसे बड़ी लड़ाई को किस मासूमियत और साफगोई से पुरुषोत्तम के दादा ने लड़ी और निर्देशक ने बड़ी सरलता से फिल्म के विसुअल्स के माध्यम से इतनी बड़ी बात को दर्शको के दिल तक पंहुचा दिया. दोने ही फिल्मे इंसान के मजबूत इरादे और अँधेरे के बाद सबेरा है, के दर्शन को लोगो तक पहुचाता है.

हालाकि बकेट लिस्ट में माधुरी दीक्षित का ग्लेमर है पर उसे बड़ी ही सादगी से लोगो तक पहुचाने का काम करती है ये फिल्म. मधुरा साने एक ऐसी महिला है जिसका जीवन ही उसका परिवार है. सुबह से उठकर शाम तक पति, बच्चें और परिवार में व्यस्त साने की जिंदगी में कोई कष्ट नहीं दिखाई देता है. परिवार उच्च मध्यम वर्ग से नजर आता है जहा मधुरा साने का परिवार हर्ट ट्रांसप्लांट के खर्चों से जद्दोजहद करता नहीं दिखाई पड़ता.

वो बड़ी आसानी से किसी सई नाम की लड़की का दिल पा जाती है. पर डॉक्टर की बात और अपने जीवन के कुछ ज्यादा लम्बा न होने के एहसास के बाद भी मधुरा यही जोडती दिखाई देती है की जब उसकी मौत होगी तो उसकी बेटी और बेटा का कैरिएर कहा पहुचेगा | उसे अपनी मौत से ज्यादा अपने परिवार की फ़िक्र है. पर एक दिन जब उसे अपने डोनर के उम्र के बारे में पता चलता है तो वो उसकी खोज में उसके परिवार तक पहुच जाती है.

हालाकि परिवार शुरू में मधुरा को नहीं स्वीकार कर पाता | सईं का भाई उसे देखते ही भड़क जाता है. किसी तरह उसके परिवार को विश्वास में लेकर जब मधुरा को सईं की बकेट लिस्ट का पता चलता है तो वो उसे पढ़कर पूरा करने की इच्छा अपने पति से व्यक्त करती है. किसी एक आम पति की तरह वो अपनी पत्नी की इच्छा का सम्मान करते हुए उसे एक सीमा में रहकर उसे पूरा करने की सलाह देता है.

यही पर कही मधुरा का स्त्रीत्व और उसके परिवार और पति के बीच संघर्ष की शुरुआत होती है. किस तरह से भारतीय महिला अपनी हर एक छोटी से छोटी चीज के लिए पति और परिवार का मुंह ताकती है इसके बारे में फिल्म बड़ी बारीकी से पड़ताल करती दिखाई देती है. एक गृहणी की घर में जरूरत और उसकी महत्ता को रेखांकित करती फिल्म उसके संघर्ष को बयां करती है. मधुरा का पति उसे सहयोग देता दिखाई पड़ता है पर लिस्ट की उन चींजों पर उसका नाराज होना कहीं न कहीं समाज में स्त्री के बंधन को दिखाता है. मधुरा जब सई की एक इच्छा पूरी करने के लिए बॉयफ्रेंड को किस करने का प्रयास करती है

तो वहा उसका चरित्र और समाज का बंधन दोनों आड़े आते दिखाई देते है. पति के होने पर किसी पर पुरुष को आलिंगन करना उच्च वर्ग में सामान्य सी बात है पर मधुरा का इससे इंकार करना कहीं न कहीं फिल्म के निर्देशक द्वार मध्य वर्गीय मानसिकता का प्रदर्शन ही है.

हालाकि बकेट लिस्ट नाम से हॉलीवुड में भी एक फिल्म आयी है और उसमे भी दो लोगों की जिंदगी एक गंभीर बीमारी से प्रभावित है. जहा वो बड़े लोग अपनी जिंदगी के एक मुकाम पर पहुच कर अपनी बकेट लिस्ट बनाते है वही सई की बकेट लिस्ट एक युवा की चाहत और सोच का परिणाम है. ये भारत में एक नया टर्म है जो आने वाले समय में लोगो की इस तरह की लिस्ट बनाने की प्रेरणा देगा.

वही वो इस बात का भी प्रदर्शन है की बदलते भारत में युवा किस तरह जीना चाहता है. बंधन से मुक्त, सामाजिक बेड़ियों की परवाह किये बिना, स्वछंद जीवन की कल्पना सई की बकेट लिस्ट है. उसकी लिस्ट में इक्कीस साल से पहले पूरा करने वाले ख्वाबों में से कई ख्वाब ऐसे है जो इस जनरेशन की चाहत है. शराब पीकर हंगामा करना, हवालात में जाना, और विडियो वायरल करना कुछ ऐसी चाहत है जो भारत के युवा की बदलती सोंच का हिस्सा है. जिसे मधुरा साने नाम की एक दूसरी पीढ़ी की महिला के लिए कर पाना बड़ा मुश्किल भरा है.

श्वास का पुरुषोत्तम अपनी जीवन के पहले पड़ाव पर ही एक ऐसी गंभीर बीमारी रेटिनोब्लास्तोफोमा कैंसर से पीड़ित है जो दस लाख में से किसी एक व्यक्ति को होता है. उसका दादा जब उसे लेकर डॉक्टर के पास आता है और उसे सिटी स्कैन कराने के लिए कहा जाता है. वो अपने पोते को लेकर जब सिटी स्कैन कराने के लिए काउंटर पर जाता है तो उसे एक फॉर्म भरने के लिए कहा जाता है.

फॉर्म में लिखी बातों को जब दादा सुनता है तो वो उसे भरने से मना कर देता है. वही उस फॉर्म पे लिखी बातों को आसपास बैठे मरीजो से जब वो कन्फर्म करता है तो वो आश्चर्य चकित हो जाता है कि लोग इतनी आसानी से कैसे उस फॉर्म में लिखी बातों को मान लेते है. यही पर एक मेडिकल सोशल वर्कर का फिल्म के सीन में आना और उसकी सहानुभूति पूर्ण बातों से दादा के मन में विश्वास पैदा होता है की उस फॉर्म में लिखी बातों से उसके पोते को कुछ नहीं होगा. फिल्म के इस भाग में जहा मानवीय मूल्यों को निर्देशक लोगो के सामने ले कर आता है वही इन सब बातों से बेखबर पुरषोत्तम अपनी दुनिया में मस्त है और अपनी शरारतों से वो लोगो का ध्यान अपनी तरफ लगातार खिचता रहता है.

फिल्म की कहानी पुरषोत्तम के शरारतों एवं उसके दादा के संघर्ष की कहानी है. डॉक्टर का किरदार मानवीय मूल्यों के सर्वोत्तम पहलुओं का प्रदर्शन है.| जहा एक ओर दादा, डॉक्टर, मेडिकल सोशल वर्कर इस बात को लेकर चिंतित है कि पुरषा को कैसे बताया जाय की उसकी आगे आने वाली जिंदगी में अँधेरा छाने वाला है | पर फिल्म कहीं न कहीं इस बात का भी पुरजोर प्रदर्शन करती है कि अँधेरे के बाद ही उजाला होता है| जिंदगी से बड़ी कोई चीज नहीं और मनुष्य जब तक जिन्दा है उसका संघर्ष चलता रहता है |

दोनों फिल्म भारत में को दो वर्ग, शहरी उच्च मध्यम वर्ग और ग्रामीण भारत की कहानी बयां करता है| दोनों ही फ़िल्में भारत के मेडिकल प्रोफेशन को उच्च कोटि का दिखाती है| किसी का दिल इतनी आसानी से ट्रांसप्लांट होना और कैंसर जैसी बीमारी से जूझते ग्रामीण को एक डॉक्टर का सहारा और उस बीमारी से निजात पाना एक ऐसा विसुअल है जो भारत में चिकित्सा के क्षेत्र में आये बदलाव को रेखांकित करता है..

हिंदी फिल्मों में हमने एक समय आनंद को कैंसर से जूझते और मरते देखा है. वही मेघ ढाका तारा में रित्विक घटक की नायिका जब टीबी से लड़ते हुए अपने पिता से कहती है कि वो अभी जीना चाहती है तो ये दृश्य दर्शको के रोंगटे खड़ा कर देता है| सुनील दत्त ने जब अस्सी के दशक में दर्द का रिश्ता फिल्म में ब्लड कैंसर से लडती बच्ची को दिखाया तो इस के बारे में देश की मेडिकल जगत की लाचारी को दर्शको ने देखा |

हिंदी सिनेमा का इतिहास ऐसी फिल्मों से भरा पड़ा है जहाँ मुख्य पात्र किस गंभीर बीमारी से पीड़ित है | हालाकि हर फिल्म अपनी तरह से लोगो को विभिन्न रोगों से लड़ने की बात करती है पर जितनी मजबूती से श्वास का नायक लड़ता है और जब ऑपरेशन होने के बाद चश्मे के साथ अपने गाँव वापस आकर साथी बच्चों की आवाज सुनकर अपना हाथ हवा में लहराता है वो एक भावपूर्ण दृश्य है | इस तरह की फिल्म समाज में ऐसी बिमारियों से संघर्षरत लोगो को जीने का मकसद दे जाती है |

इस तरह के विसुअल की पड़ताल करने पर ये दिखायी देता है की सिनेमा भी समाज के साथ चलता रहता है | आज हम सब युवराज सिंह, लिसा रे और सोनाली बेंद्रे के कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से जूझने और बाहर निकलने के संघर्ष को देख रहे है | हालाकि वास्तविकता में वो बड़े लोग है जो इस बीमारी से लड़ रहे है पर आज कल ऐसे सामान्य लोगो की ख़बरें भी पढ़ने और सुनने में आ रही है जो जीवन के संघर्ष में इन खतरनाक बीमारियों से लड़कर बाहर आ गए है |

श्वास और बकेट लिस्ट दोनों ही मराठी फिल्मों ने स्वास्थ्य जैसे गंभीर विषय को लेकर जितनी बारीकी से इसकी पड़ताल की है वो काबिलेतारीफ है | इस तरह की फिल्मों ने आने वाले समय में विभिन्न सामाजिक मुद्दों और बीमारियों पर फिल्म बनाने का राश्ता खोल दिया है| हाल में ही प्रियंका चोपरा के बैनर तले बनी फिल्म वेंटीलेटर ने जहाँ एक ओर एक महत्वपूर्ण स्वास्थ्य विषय को उठाया और उसे सामाजिक बदलाव से जोड़ दिया. इस फिल्म का राष्ट्रीय पुरुष्कार पाना भी आने वाले समय में मराठी सिनेमा में और कई महत्वपूर्ण बदलाव के संकेत कर रहा है | मराठी सिनेमा आज एक नये दौर में प्रवेश कर गया है | इस फिल्म इंडस्ट्री में आ रहे पैसे और लोगों के बढ़ते रुझान से लगता है की आने वाला समय मराठी फिल्म जगत का स्वर्ण काल साबित होगा.

प्रो. गोविन्द जी पाण्डेय

जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग


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