संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद में बहुपक्षवाद पर खुली चर्चा में विदेश मंत्री एंटनी जे. ब्लिंकन का वर्चुअल संबोधन

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संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद में बहुपक्षवाद पर खुली चर्चा में विदेश मंत्री एंटनी जे. ब्लिंकन का वर्चुअल संबोधन


विदेश मंत्री ब्लिंकन: नमस्कार। सबसे पहले संयुक्तराष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के भविष्य पर इस अहम चर्चा की पहल के लिए चीन और विदेश मंत्री वांग का धन्यवाद। और, महासभा के अध्यक्ष बोज़किर आपके नेतृत्व के लिए आपका भी धन्यवाद।

जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया के देश संयुक्तराष्ट्र के गठन के लिए एकजुट हुए, तो तब तक का लगभग संपूर्ण मानव इतिहास इस बात का प्रमाण था कि ताक़त का बोलबाला होता है। प्रतिस्पर्धा अंतत: टकराव का कारण बनती थी। एक राष्ट्र या राष्ट्रों के समूह के उदय के साथ ही दूसरों का पतन अनिवार्य होता था।

ऐसे में हमारे राष्ट्र एक अलग रास्ता चुनने के लिए एकजुट हुए। हमने संघर्ष को रोकने और मानवीय पीड़ा को कम करने; मानवाधिकारों को मान्यता देने और उनकी रक्षा करने; और सभी को लाभान्वित करने के उद्देश्य से स्थापित एक व्यवस्था को क़ायम रखने और उसमें सुधार हेतु निरंतर बातचीत को बढ़ावा देने के लिए कुछ सिद्धांतों को अपनाया।

सर्वाधिक शक्तिशाली देशों ने खुद को इन सिद्धांतों से जोड़ा। वे एक तरह के आत्मसंयम — राष्ट्रपति ट्रूमैन के शब्दों में, खुद को हमेशा अपनी मर्ज़ी चलाने की अनुमति देने से इनक़ार करना — पर सहमत हुए क्योंकि उन्होंने माना कि यह अंततः न केवल मानवता के हित में बल्कि उनके अपने हित में भी होगा। अमेरिका ने ऐसा किया, जबकि वह उस समय दुनिया का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र था। यह बुद्धिमतापूर्ण स्वार्थ था। हमारा मानना था कि अन्य राष्ट्रों की सफलता हमारे लिए महत्वपूर्ण है। और हम नहीं चाहते थे कि कम शक्तिशाली देश ख़तरा महसूस करें और हमारे खिलाफ़ एकजुट होने के लिए बाध्य हों।

तब से आज तक, हमने शीतयुद्ध काल के विभाजन से लेकर उपनिवेशवाद के अवशेषों तक, बड़ी चुनौतियों का सामना किया और समय-समय पर दुनिया सामूहिक अत्याचारों के खिलाफ़ खड़ी हुई। लेकिन आज दुनिया भर में संघर्ष, अन्याय, और पीड़ा को देखकर लगता है कि हमारी अनेक आकांक्षाएं अभी तक अधूरी हैं।

लेकिन आधुनिक इतिहास में संयुक्तराष्ट्र की स्थापना के बाद की अवधि की तुलना में कोई भी काल अधिक शांतिपूर्ण या समृद्ध नहीं रहा है। हमने परमाणु शक्तियों के बीच सशस्त्र संघर्ष को टाला। हमने लाखों लोगों को गरीबी से उबरने में मदद की। हमने मानवाधिकारों को अभूतपूर्व बढ़ावा दिया।

यह साहसिक प्रयास, तमाम खामियों के बावजूद, एक अभूतपूर्व उपलब्धि रही है। और यह क़ायम रहा क्योंकि अधिकांश लोग और राष्ट्र आज भी इसे अपने हितों, अपने मूल्यों, अपनी आशाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला मानते हैं।

लेकिन आज यह गंभीर संकट में है।

राष्ट्रवाद का पुनरुत्थान हो रहा है, दमन बढ़ रहा है, देशों के बीच प्रतिद्वंद्विता गहरा रही है, और नियम आधारित व्यवस्था पर हमले तेज़ हो रहे हैं। अब, कुछ लोग सवाल कर रहे हैं कि क्या बहुपक्षीय सहयोग अभी भी संभव है।

अमेरिका का मानना है कि यह न केवल संभव है, बल्कि यह बेहद ज़रूरी है।

बहुपक्षवाद अभी भी बड़ी वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए हमारा सबसे प्रभावी साधन है — जिसने के आज हमें एक मेज़ के के बजाय एक स्क्रीन के इर्दगिर्द इकट्ठा होने पर मजबूर किया। कोविड-19 महामारी ने ज़िंदगी को बदल दिया है जिसे हम पूरी दुनिया में देख रहे हैं, कि कैसे लाखों लोगों की मौत हो चुकी है तथा अर्थव्यवस्थाओं, स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक प्रगति पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा है।

जलवायु संकट एक और बड़ा ख़तरा है। यदि हम उत्सर्जन में कटौती के लिए तेज़ी से आगे नहीं बढ़े तो परिणाम भयावह होंगे।

हमने ऐसी बड़ी और जटिल समस्याओं को हल करने के लिए ही बहुपक्षीय प्रणाली स्थापित की है, जब दुनिया भर के लोगों के भाग्य एक साथ बंधे हों और जब कोई भी अकेला देश – चाहे वो कितना भी शक्तिशाली हो – अपने दम पर चुनौतियों से नहीं निपट सकता हो।

इसीलिए अमेरिका कोविड-19 को रोकने और जलवायु संकट से निपटने के लिए बहुपक्षीय संस्थानों के माध्यम से काम करेगा, और हम अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के मूल सिद्धांतों का पालन करेंगे, जैसा कि हम करते रहे हैं।

हम इन मुद्दों पर हरेक देश के साथ काम करेंगे — इनमें वे देश भी शामिल हैं जिनके साथ हमारे गंभीर मतभेद हैं। दांव इतना बड़ा है कि हम अपने सहयोग के रास्ते में मतभेदों को आने नहीं दे सकते। ये बात परमाणु हथियारों के प्रसार और उपयोग को रोकने, जीवनरक्षक मानवीय सहायता पहुंचाने, और घातक संघर्षों पर लगाम लगाने के संबंध में भी लागू होती है।

साथ ही, हम अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को कमज़ोर करने वाले, परस्पर सहमति से तय नियमों की अनदेखी करने वाले या मनमर्ज़ी उनका उल्लंघन करने वाले देशों को बलपूर्वक पीछे धकेलना जारी रखेंगे। क्योंकि इस व्यवस्था की प्रभावकारिता के लिए, सभी देशों को इसके सिद्धांतों का पालन करना होगा और इसकी सफलता के लिए प्रयास करना होगा।

हम तीन तरीक़ों से ऐसा कर सकते हैं।

सबसे पहले, सभी सदस्यों को अपनी प्रतिबद्धताओं — विशेष रूप से क़ानूनी रूप से बाध्यकारी — को पूरा करना चाहिए। इसमें संयुक्तराष्ट्र चार्टर, संधियां और समझौते, संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव, मानवीय सहायता संबंधी अंतरराष्ट्रीय क़ानून, तथा विश्व व्यापार संगठन और अंतरराष्ट्रीय मानक तय करने वाले अन्य संगठनों के तहत स्वीकृत नियम और मानदंड शामिल हैं।

मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि अमेरिका अन्य देशों को नीचा दिखाने के लिए इस नियम आधारित व्यवस्था को बनाए रखने की मांग नहीं कर रहा है। हमारे द्वारा स्थापित और संरक्षित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था ने हमारे कई गंभीर प्रतिस्पर्धियों का उत्थान संभव किया है। हमारा उद्देश्य केवल उस व्यवस्था की रक्षा करना, उसे क़ायम रखना और उसे मज़बूत करना है।

दूसरी बात, मानवाधिकार और गरिमा को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के मूल में बने रहना चाहिए। संयुक्तराष्ट्र की संस्थापक इकाई — चार्टर के पहले वाक्य को देखें — केवल राष्ट्र ही नहीं है। आम लोग भी इसके घटक हैं। कुछ लोगों का तर्क है कि सरकारें अपनी सीमाओं के भीतर क्या करती हैं ये उनका अपना मामला है, और मानवाधिकार व्यक्तिपरक मूल्य हैं जोकि विभिन्न समाजों के लिए परस्पर भिन्न होते हैं। लेकिन मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा "सार्वभौम" शब्द से शुरू होती है क्योंकि हमारे देशों के बीच सहमति थी कि कुछ निश्चित अधिकार हैं जिनका प्रत्येक व्यक्ति, हर जगह, हक़दार है। घरेलू अधिकार क्षेत्र में शामिल होने से किसी भी देश को अपने लोगों को ग़ुलाम बनाने, यातना देने, ग़ायब करने, जातीय नरसंहार का शिकार बनाऩे या किसी अन्य तरीके से उनके मानवाधिकारों का हनन करने की खुली छूट नहीं मिल जाती।

और यही मुझे मेरे तीसरे बिंदु पर ले जाता है, कि संयुक्तराष्ट्र अपने सदस्य राष्ट्रों की संप्रभु समानता के सिद्धांत पर आधारित है।

एक राष्ट्र तब इस सिद्धांत का सम्मान नहीं कर रहा होता है जब वह दूसरे की सीमाओं के पुनर्निर्धारण का प्रयास करता है; या बल प्रयोग करके या करने की धमकी देकर क्षेत्रीय विवादों को हल करना चाहता है; या जब कोई राष्ट्र किसी दूसरे देश के विकल्पों और निर्णयों को तय करने के लिए निर्देश देने या दबाव डालने हेतु अपने प्रभावक्षेत्र के उपयोग के लिए अधिकृत होने का दावा करता है। और एक राष्ट्र उस सिद्धांत के लिए अवमानना प्रदर्शित कर रहा होता है जब वह दूसरे को झूठी सूचनाओं का लक्ष्य बनाता है या भ्रष्टाचार को हथियार बनाता है, या अन्य देशों की स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया और लोकतांत्रिक संस्थानों को कमज़ोर करता है, या विदेशों में पत्रकारों या असंतुष्टों को निशाना बनाता है।

इन शत्रुतापूर्ण कार्रवाइयों से अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा पर भी ख़तरा बन सकता है जिसे क़ायम रखने के लिए संयुक्तराष्ट्र चार्टर के ज़रिए इस संस्था को अधिकृत किया गया है।

जब संयुक्तराष्ट्र के सदस्य राष्ट्र — विशेष रूप से सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य — इन नियमों की धज्जियां उड़ाते हैं और अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करने वालों को जवाबदेह ठहराने के प्रयासों को बाधित करते हैं, तो उससे ये संदेश जाता है कि बाक़ी देश भी इन नियमों को खामियाज़ा भुगते बिना तोड़ सकते हैं।

हम सभी को मुक्त रूप से व्यक्त हमारी प्रतिबद्धताओं से जुड़ी छानबीन की प्रक्रिया को स्वीकार करना चाहिए, भले ही ये कितना भी मुश्किल क्यों ना हो। ये अमेरिका पर भी लागू होता है।

मुझे पता है कि हाल के वर्षों में हमारे कुछ कार्यों ने नियम आधारित व्यवस्था को कमज़ोर किया है और दूसरों को यह सवाल उठाने का मौक़ा दिया है कि क्या हम अभी भी इसके लिए प्रतिबद्ध हैं। इसके लिए खुद दावा करने के बजाय, हम दुनिया से आग्रह करते हैं कि वो हमारे कार्यों के आधार पर हमारी प्रतिबद्धता का आकलन करे।

बाइडेन-हैरिस प्रशासन के तहत, अमेरिका पहले ही पूरे उत्साह से बहुपक्षीय संस्थानों से दोबारा जुड़ चुका है। हम पेरिस जलवायु समझौते में फिर से शामिल हो गए, हमने विश्व स्वास्थ्य संगठन के लिए फिर से प्रतिबद्धता जताई है, और हम मानवाधिकार परिषद से दोबारा जुड़ने की प्रक्रिया में हैं। हम संयुक्त समग्र कार्य योजना (जेसीपीओए) के परस्पर अनुपालन पर दोबारा सहमति बनाने और परमाणु अप्रसार व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए कूटनीति में जुटे हुए हैं। हम कोवैक्स में सबसे बड़ा योगदानकर्ता हैं जोकि कोविड-19 टीकों के समतापूर्ण वितरण का सबसे अच्छा ज़रिया है, और हम राजनीतिक हितों पर विचार किए बिना दूसरों को टीके की दसियों लाख खुराकें उपलब्ध करा रहे हैं।

हम अपने लोकतंत्र के भीतर भेदभाव और अन्याय को दूर करने के लिए भी बड़ी विनम्रता के साथ क़दम उठा रहे हैं। दुनिया भर के लोगों के समक्ष हम ये सब खुले तौर पर और पारदर्शी रूप से करते हैं, भले ही यह अप्रिय हो, भले ही यह पीड़ादायक हो। और हम ऐसा करने से अधिक मज़बूत और बेहतर बनेंगे।

इसी तरह, केवल हमारी मौजूदा नियम आधारित व्यवस्था का बचाव करना भर ही पर्याप्त नहीं है। हमें इसमें सुधार और इसका विस्तार करना चाहिए। हमें पिछले आठ दशकों में शक्ति संतुलन में आए बदलावों को ध्यान में रखना होगा — न केवल देशों के बीच, बल्कि उनके भीतर भी। हमें वैध शिकायतों का समाधान करने की आवश्यकता है — विशेष रूप से अनुचित व्यापार प्रथाओं से संबंधित — जोकि अमेरिका सहित कई देशों में एक मुक्त अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ़ माहौल की वजह बनी हैं। और हमें ये सुनिश्चित करना चाहिए कि यह व्यवस्था नई समस्याओं से निपटने में सक्षम हो सके — जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा और नई तकनीकों के ज़रिए बनी मानवाधिकार संबंधी चिंताएं — साइबर हमलों से लेकर लोगों की निगरानी और एल्गोरिद्म तक।

अंत में, हमें गठबंधन बनाने तथा अपनी कूटनीति और विकास प्रयासों में शामिल करने के लिए साझेदारों के चयन के तरीक़े को आधुनिक बनाने की आवश्यकता है। इसका मतलब है कि क्षेत्रीय आधार से परे जाकर ग़ैरपारंपरिक साझेदारी करना; और शहरों, निजी क्षेत्र, फ़ाउंडेशन, सिविल सोसायटी तथा सामाजिक एवं युवा आंदोलनों को परस्पर साथ लाना।

और, हमें अपने देशों के भीतर और आपस में समता को बढ़ावा देना होगा, तथा जाति, लिंग और हमारी पहचान से जुड़ी अन्य बातों पर आधारित आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक विभेद को दूर करना होगा।

इस संस्था की स्थापना के समय राष्ट्रपति ट्रूमैन ने कहा था, "यह चार्टर किसी एक राष्ट्र या राष्ट्रों के समूह, बड़े या छोटे, का काम नहीं था। यह आदान-प्रदान की भावना तथा दूसरों के विचारों और हितों के प्रति सहिष्णुता का परिणाम था। " उन्होंने कहा था कि यह इस बात का प्रमाण है कि राष्ट्र अपने मतभेदों को व्यक्त कर सकते हैं, उनका सामना कर सकते हैं और अपने लिए एक साझा आधार पर सहमत हो सकते हैं।

संयुक्तराष्ट्र के सदस्य देशों के बीच और इस परिषद में, हमारे बीच अभी भी गहरे मतभेद हैं। लेकिन अमेरिका ऐसे किसी भी देश के साथ इस साझा आधार पर सहमति बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगा, जिसकी उस व्यवस्था के लिए प्रतिबद्धता है जिसे कि हमने मिलकर बनाया है, और जिसकी हमें मिलकर रक्षा करनी होगी और मज़बूत बनाना होगा।

ये मौजूदा वक़्त की बड़ी चुनौती है। आइए मिलकर इसका सामना करें।

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