*प्रयागराज का लाल जिसने मोती उगाने में दी जापानी वर्चस्व को चुनौती*

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*प्रयागराज का लाल जिसने मोती उगाने में दी जापानी वर्चस्व को चुनौती*


ये कहानी प्रयागराज से निकले और दुनिया भर में भारत का नाम रोशन करने वाले एक्वाकल्चरल साइंटिस्ट डॉक्टर अजय कुमार सोनकर की जिन्होंने क़रीब तीन दशक पहले कल्चर मोती बनाने वाले देशों में भारत का नाम शामिल कराने का करिश्मा कर दिखाया था.

डॉक्टर सोनकर ने टिश्यू कल्चर के ज़रिए फ़्लास्क में मोती उगाने का काम कर दिखाया है. सरल शब्दों में कहें तो सीप के अंदर जो टिश्यू होते हैं उन्हें बाहर निकालकर कृत्रिम वातावरण में रखकर उसमें मोती उगाने का करिश्मा उन्होंने किया है. यानी मोती उगाने के लिए सीप पर से निर्भरता ख़त्म हो गई है और इसके साथ ही उस सीप के लिए ज़रूरी समुद्री वातावरण की भी कोई ज़रूरत नहीं रही.

समुद्री जीव जंतुओं की दुनिया पर केंद्रित साइंटिफ़िक जर्नल 'एक्वाक्लचर यूरोप सोसायटी' के सितंबर, 2021 के अंक में डॉक्टर अजय सोनकर के इस नए रिसर्च को प्रकाशित किया गया है. इस रिसर्च के मुताबिक डॉक्टर अजय सोनकर ने अंडमान निकोबार द्वीप समूह के सीपों के टिश्यू से मोती उगाने का काम प्रयागराज के अपने लैब में किया है.

मतलब सीप से निकाला गया टिश्यू क़रीब दो हज़ार किलोमीटर दूर भी नेचुरल तौर पर अपना काम करने में सक्षम रहा है जो समुद्र के प्राकृतिक वातावरण में वह करता है.

डॉक्टर अजय कुमार सोनकर ने शोध के बारे में बताया, "पिंकटाडा मार्गेरेटिफ़ेरा सीप बेहद खारे जल वाले समुद्र में होते हैं. उनके मेंटल को निकालकर मैं उन्हें दो हज़ार किलोमीटर दूर प्रयागराज के अपने लैब में ले आया. उस मेंटल को सुरक्षित रखने के तमाम उपाय किए और उसे प्रयागराज लाने में भी हमें 72 घंटे का वक्त लगा, लेकिन वह पूरी तरह जीवित और हेल्दी था. फिर उसे कल्चर करके उसमें इंजेक्ट किया, उसने ना केवल पर्ली कंपोनेंट बनाया बल्कि पर्ल भी तैयार हो गया."

ये जीव सांस लेने के लिए जब मुंह खोलते हैं तो कभी-कभी बाहर की कोई चीज़ उनके अंदर चली जाती है, वे पहले तो उसको शरीर से बाहर निकालने की कोशिश करते हैं, लेकिन जब कामयाब नहीं होते तो अपनी तकलीफ़ को कम करने के लिए शरीर से एक ख़ास तरह का रसायन उस पर छोड़ते हैं. रसायन के प्रभाव से यह चीज़ समय के साथ मोती के रूप में तब्दील हो जाती है. हालांकि प्राकृतिक तौर पर मोती का बनना दस लाख सीप में से एक में हो पाता है.

लेकिन कृत्रिम मोती उगाने की तकनीक ने मोतियों की दुनिया को काफ़ी बदला है और अजय सोनकर का नया काम उसी दिशा में अहम क़दम माना जा रहा है. वैसे अजय सोनकर ने ये काम अपने करियर के सबसे मुश्किल भरे दौर में किया है. उनकी उस मुश्किल की कहानी जानने से पहले उनके सफ़र के बारे में जानना रोचक है.

*प्रयागराज से दुनिया को चौंकाने वाले सोनकर*

डॉक्टर अजय सोनकर का नया काम भले अचंभे में डालने वाला हो, लेकिन मोती उगाने की दुनिया में बीते तीन दशक में वे इसी तरह के नये नये कामों से दुनिया को चौंकाते आए हैं. मोती बनाने को लेकर उनकी दिलचस्पी इलाहाबाद के कटरा में 1991 में शुरू हुई थी.

भौतिकी, रसायन और गणित पढ़ने वाले सोनकर इंजीनियर बनना चाहते थे और वारंगल रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज से उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी पूरी की. लेकिन उन्हीं दिनों दूरदर्शन पर दोपहर में आने वाले यूजीसी के शैक्षणिक कार्यक्रम पर आधारित टीवी शो के एक एपिसोड में प्रसारित एक स्टोरी ने उनके जीवन को बदल दिया.

*कहां से मोती बनाने की मिली प्रेरणा*

इलाहाबाद स्टेशन पर एएच व्हीलर की दुकान पर संयोग से उन्हें नेशनल ज्योग्राफ़िक का पुराना अंक मिल गया, जो कल्चर मोती निर्माण के बारे में जानकारी पर आधारित विशेषांक था. सोनकर ने उसे ना केवल ख़रीदा बल्कि आज तक संभाल कर रखा है.

इन सबके साथ अपने तालाब के सीपों के साथ उन्होंने अपनी समझ से प्रयोग करना शुरू कर दिया. सीपों को पकड़ कर बड़े-बड़े बर्तनों में रखना और उसे टकटकी लगाए देखना, सोनकर का शगल बन गया था. मिडिल क्लास समाज में यह काम इतना भी आसान नहीं था.

*अंडमान के गर्व से मुश्किलें झेलने तक*

हालांकि वे अपना काम स्वतंत्र रूप से कर रहे थे, कृत्रिम मोती के बाज़ार में उनके मोतियों की मांग बढ़ने लगी थी. अंडमान प्रशासन उनके काम को अपनी उपलब्धियों के तौर पर पेश करता रहा.

उनके काम की सराहना भारत के राष्ट्रपति आर के नारायण से लेकर अब्दुल कलाम और रामनाथ कोविंद तक ने की. सोनकर इन लोगों से मिलकर अपने काम के बारे में जानकारी देते रहे. इसी क्रम में उन्होंने 43 एमएम का गणेश की प्रतिलिपि वाला मोती बनाकर भी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया था.

लेकिन कहते हैं कि समय एक-सा नहीं रहता और सोनकर के लिए मुश्किलों का दौर शुरू हुआ. 2019 में अंडमान प्रशासन ने उन्हें समुद्र में काम बंद करने को कहा. इसके लिए प्रशासन ने सेंट्रल मरीन फ़िशरिज़ रिसर्च इंस्टीट्यूट के उस अध्ययन का हवाला दिया जिसमें कहा गया है कि अंडमान में पिंकटेडा मार्गेरेटिफ़ेरा की उपलब्धता इतनी अधिक नहीं है कि उसका कमर्शियल उत्पादन किया जा सके.

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