कही छुप तो नहीं गया बचपन
अरून कुमार मौर्य हम आज अगर बच्चों को देखते है तो हमें भी अपने अपने बचपन की यादे आने लगती है , उन यादों में वे सभी द्रश्य ताजे होने लगते है जब मै...


अरून कुमार मौर्य हम आज अगर बच्चों को देखते है तो हमें भी अपने अपने बचपन की यादे आने लगती है , उन यादों में वे सभी द्रश्य ताजे होने लगते है जब मै...
अरून कुमार मौर्य
हम आज अगर बच्चों को देखते है तो हमें भी अपने अपने बचपन की यादे आने लगती है , उन यादों में वे सभी द्रश्य ताजे होने लगते है जब मै छोटा था तो अपने गावों में उन पेड़ों के छावो में जब सारा दिन बीत जाता था , इक तरह से हम लोगो ने प्राकृति के साथ अपना रिश्ता सा बना लिया था, ओ आम ,आँवले और बेर के बाग के पास बसा मेरा स्कूल जहाँ न सिर्फ शिक्षा बल्कि हम लोगों को शारीरिक और मानसिक रूप से भी मजबूती मिलती थी, हम लोग सारा दिन बागों से बेर ,आंवले तोड़ कर खाते और और खेल -खेल कर गिनतीयां ,जोड़ ,घटाव सिखा करते थे,कभी गुल्ली -डंडे तो कभी कंच्चे तड़कते थे और इस खेल में हम लोगो का हजारों का जोड़ हो जाता था जो कमी रह जाती वो प्रेमचन्द की कहानियाँ पूरा कर देती , एक दो कहानियाँ तो ऐसे बस गयी की उनकी लाइने आज भी नहीं भूलती इनमे भारतेन्दु हरिस्चन्द्र की अंधेर नगरी और ईदगाह ऐसी कहानियाँ है , जो हम लोगों के लिये सब कुछ हो गई थीं इनके बिना तो दिन ही अधूरा लगता था, ऐसा था कुछ हमरा बचपन पर जब मै आज उन बच्चों को देखता हूँ जिनके चेहरे पर एक तनाव दिखता है , तो पीठ पर सात किलो का बैग , तो स्कूल एक दूकान जैसा जहाँ पर ABCD का इत्तेहार लगा होता है , बस यही नहीं खत्म होता इनका सफर शाम को कोचिंग भी जाना रहता है , वह बच्चा ऐसे तनाव में पूरा दिन बिता देता है, उसके पास इतना समय ही नहीं होता की वह प्रकृति से जुड़ सके की थोड़ा सा खुद को समझ सके , की कुछ अपने बचपन की यादें सजो सके कि ऐसा था मेरा बचपन , इस मासूम चेहरे को देख कर दिल में यहीं प्रश्न उठता है कहीं छुप तो नहीं गया बचपन ,.