कोरोना: मृत्यु के बाद का जीवन

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कोरोना: मृत्यु के बाद का जीवन

रिपु सूदन सिंह

राजनीति विज्ञान के आचार्य

बीबीएयू, लखनऊ

ई-मेल: ripusudans@gmail.com

    यह इतना बुरा और अवैज्ञानिक है कि अधिकांश देशों में  कोरोना रोगी के शवों को रेफ्रिजरेटर में रखा जा रहा  है क्योंकि दफन करने के लिए पर्याप्त जमीन और कब्र उपलब्ध नहीं हैं। यह स्थिति को और खराब करेगा। यह दुनिया में आज सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य है। इस तरह के वैश्विक संकट में, कम से कम, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को सभी राष्ट्र-राज्यों के लिए एक सार्वभौमिक नीति अपनाने के लिए अपील, सलाह और अनिवार्य निर्देश के साथ आना चाहिए। संक्रमित शवों का दाह संस्कार या तो विद्युत शवदाह के माध्यम से या किसी अन्य साधन जो स्थान और क्षेत्र मे  उपलब्ध हो अंजाम देना चाहिए?  इंसान  इसी  ब्रह्मांड (यूनिवर्स)  का उत्पाद है और अंत में इसके साथ ही उसका विलय हो जाएगा। अब तक मृत्यु के बाद जीवन का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। इस तरह के सभी सिद्धांत केवल कल्पना और धारणा पर आधारित हैं। वैश्विक ज़िम्मेदारी इस धरती पर मानव को बचाने की है, न की मृत्यु के बाद जीवन के गैर-सत्यापित, गैर-प्रमाणित, अवैज्ञानिक सिद्धांत का पालन करने का।

यह सबसे खतरनाक संकट की स्थिति है। भारतीय दार्शनिक परंपरा में, संदर्भ और स्थिति की जरूरत के अनुसार आपद धर्म (आपदा के धर्म-नियम) का पालन करने का प्रावधान है। मानवता को बचाने के लिए सभी पुराने प्रचलित नियम (धर्म) भी तोड़े जा सकते हैं। यह एक अदद धर्म की स्थिति है जहां किसी भी तरह से शवों को तुरंत जला दिया जाना चाहिए। यह वायरस को खत्म करने और दूसरों तक फैलाने और उन्हे संक्रमित करने से रोकने में मदद करेगा। भारतीय विश्व दृष्टिकोण तर्कहीनता और अंध विश्वास से परे तर्क, बौद्धिकता और मानव कल्याण पर आधारित है। इससे स्थानीय प्रशासनिक निकायों को उन शवों के जल्दी से जल्दी अंतिम संस्कार करने का निर्णय लेने में मदद मिलेगी। जैसे-जैसे दुनिया भर में आबादी बढ़ रही है, वैश्विक समुदाय को इस बारे में तर्कसंगत रूप से सोचना चाहिए कि मानव के लिए जमीन को बचाया जाए। सरकार की नीतियां और निर्णय अपुष्ट और संदिग्ध विचारों और विश्वासों पर आधारित नहीं होने चाहिए। सती प्रथा को तुरंत समाप्त कर दिया गया, अस्पृश्यता को अवैध घोषित किया गया, भारत में महिलाओं के लिए विधवा पुन: विवाह मानवाधिकारों का आधार बन गया। इसने उन्हें खुद को, उनके शरीर और दिमाग को खुद से चलाने में मदद की। यह औरतों को दूसरों के कब्जे से मुक्त होने और स्वयं के स्वामित्व का आनंद लेने अवसर दिया। दुनिया में पतनशील परंपराओं और मान्यताओं को बदलने के लिए एक नहीं बल्कि कई मनीषी आगे आए। राजा राम मोहन रॉय ऐसे ही दिग्गज थे। एशिया में उनके बाद पहला व्यक्ति मुस्तफा कमाल अतातुर्क थे, जिसने 1924 में तुर्की में खलीफा की पतनशील और अप्रासंगिक बनी संस्था को ख़त्म कर दिया मजहब को राज्य और समाज के शासन से पूर्णतः अलग कर दिया था। यहा तक कि अरबी भाषा की जगह रोमन लिपि मे तुर्की भाषा की शुरुआत की।

अब समय आ गया है कि वैज्ञानिक तरीके से विचार, कार्य और व्यवहार करें। हमें अंधविश्वासों और पुरोहित-धर्मगुरु-मौलाना दुनिया के हुक्मरानों के चंगुल से बाहर आना होगा। हम तथाकथित 'दूसरों' के मामले में वैज्ञानिक नहीं हो सकते हैं और 'स्वयं या हम' के मामले में अत्यधिक सांप्रदायिक, रूढ़िवादी, कट्टरपंथी और अवैज्ञानिक बने रहे। दूसरे की औरते आज़ाद रहे और हमारी दासी बनी रहे। हम सभी एक जाति यानी मानव से संबंधित हैं। हम एक छतरी के नीचे एक समान नहीं हो सकते हैं, लेकिन विभिन्न रंगों और आकार की छतरियों के नीचे एक बन कर रह सकते हैं। विविधिता मे एकता। अब समय आ गया है कि हम अपने दोहरे, जटिल और विरोधाभासी जीवन की तुलना में सरल, वैज्ञानिक और करुणा का जीवन व्यतीत करें। विश्वास और विज्ञान के बीच किसी भी संघर्ष के मामले में, मार्गदर्शन और अंतिम निर्णय के लिए हम संबंधित संविधानों को देखें। यह उन देशों के लोगों के द्वारा बनाया गया है। लोकतांत्रिक गठन समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे के आधुनिक वैज्ञान-मानवीय मूल्यों पर आधारित हैं। यह वसुधैव कुटुम्बकम को भी दर्शाता है : पूरी दुनिया हमारा विस्तारित पड़ोसी ही है।"

महान भारतीय ज्ञान परंपरा से विरासत में मिले सार्वभौमिक मूल्यों में सर्वे भवनतु सुखिन, सर्वे सन्तु निरामया (सभी मानव खुश और स्वस्थ होने चाहिए) शामिल हैं। बुद्ध कहते हैं, बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय (सबसे बड़ी संख्या में लोगों के लिए सबसे बड़ा कल्याण और खुशी) विश्व स्तर पर मानव समाज के प्रबंधन और शासन के लिए एक रूपरेखा प्रदान कर सकती है। अब सुधारों का समय चला गया है और इस धरती पर मानव जाति को बचाने के लिए अचानक और क्रांतिकारी परिवर्तनों की आवश्यकता है। बीसवीं सदी सुधारों की सदी थी, लेकिन 21 वीं सदी में नए लोगों द्वारा आदतों और व्यवहारों के पुराने सेट को बदलने के अलावा अब सुधारों के लिए समय नहीं बचा है। जब लोग आधुनिक तकनीक जैसे मोबाइल सेट, रिमोट कंट्रोल से चलने वाले हथियार इत्यादि स्वीकार कर सकते हैं और उन्हे अपने जीवन का हिस्सा बना सकते हैं, तो उन्हें मानवीय मूल्यों और गुणों से लबरेज आधुनिक वैज्ञानिक विचारों को नहीं कहने का अधिकार नहीं है। सभी रेलीजन- मजहब-पंथो को फिर से अपने को जांचना और परिभाषित करना होगा। धर्म क्या है, क्यो है और इसकी एक वैश्विक रूपरेखा पर चर्चा कर एक आम सहमति बनानी होगी।

अब किसी भी बात या विश्वास को निम्न और श्रेष्ठ साबित करने का सवाल नहीं बल्कि गुणवत्ता के आधार पर एक राय बनानी होगी। प्रत्येक समुदाय की युवा पीढ़ी को विश्वास और अटकलों के पुराने संस्थानों के उन ढहते विचारों पर सवाल उठाने के लिए आगे आना चाहिए। यह उन्हें वैश्वीकरण की इस नई शताब्दी में उनकी भूमिका को आकार देने और फिर से उन्हे एक नए अंदाज़ मे परिभाषित करने में मदद करेगा। विज्ञान और तकनीक से डरना नहीं चाहिए। जब ज्ञान या कोई ज्ञान तथ्यों, प्रमाणों, प्रयोग और भविष्यवाणी की शक्ति के साथ एक सिद्धांत द्वारा समर्थित एक निश्चित आकार प्राप्त करता है, तो विज्ञान बन जाता है। प्रौद्योगिकी विज्ञान से ही पैदा होती है, यह विज्ञान नहीं है। विज्ञान पूर्वाग्रहों से मुक्त दृष्टिकोण है। लेकिन वैज्ञानिक ज्ञान कभी भी पूर्ण (अंतिम) ज्ञान नहीं होता है। यह बदलता और सदा परिवर्तित होता रहता है। इस ब्रह्मांड मे कुछ भी नहीं बदलता। जो बदलेगा नहीं वो टूट जायेगा, पिछड़ जायेगा। मरने के बाद की जिंदगी की चिंता से बेहतर है इंसानी जिंदगी के बारे मे सोचा जाते और उसे खूबसूरत बनाया जाये।

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Ripu Sudan Singh

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