भारतीय संस्कृति के दो विपरीत ध्रुव आर्य से अनार्यों को जोड़ने वाली महत्वपूर्ण कड़ी -नर्मदा और सीता
नर्मदा और सीता:– नमामि देवी नर्मदे , नमामि देवी सीते ।। एक नदी दूसरी नारी ।प्रकृति के दो विभिन्न रूप किंतु एक ही नियति के सूत्र से बंधा...


नर्मदा और सीता:– नमामि देवी नर्मदे , नमामि देवी सीते ।। एक नदी दूसरी नारी ।प्रकृति के दो विभिन्न रूप किंतु एक ही नियति के सूत्र से बंधा...
नर्मदा और सीता:–
नमामि देवी नर्मदे ,
नमामि देवी सीते ।।
एक नदी दूसरी नारी ।प्रकृति के दो विभिन्न रूप किंतु एक ही नियति के सूत्र से बंधा दोनों का भाग्य ।भारतीय संस्कृति के दो विपरीत ध्रुव आर्य से अनार्यों को जोड़ने वाली महत्वपूर्ण कड़ी -नर्मदा और सीता ।प्रकृति एवं वसुंधरा का सम्पूर्ण सृष्टि जगत को अनुपम उपहार ।किंतु हाय रे दुर्भाग्य ! जिसे आर्य संस्कृति अपनी मर्यादाओं की सीमाओं के बंधन में बांध पचा ही नही सकी ।अंत में नदी और नारी दोनों को ही अपना पथ स्वयं चुनना पड़ा ।किसी ने सत्य कहा -
नियति और प्रकृति तभी तक अच्छी लगती है जब तक वह मर्यादाओं के तट बंधों में बंधी रहे। ससुराल और मायका यह उसकी सीमाओं के वह दो किनारे हैं जिनको जोड़ने वाली कड़ी के रूप में वह दोनों के ही बीच सहज स्वाभाविक मधुर सम्बन्ध स्थापीत करती हुई शांत हो निर्बाध रूप से बहती है ।अन्यथा क्रुद्ध होने पर उसका विध्वंसकारी रूप कब क्या कहर ढाये नही कह सकते ।उनका प्राकृतिक विध्वंसकारी रौद्र रूप केवल प्रलंयकारी विनाश ही कर सकता है जिसके बाद शेष कुछ नही ।
दो समानांतर रेखायें नदी के तट की तरह दूरी बनाये रख साथ तो चल सकती हैं कितु मिल नही सकती और ना ही वह कभी एक दूसरे को आत्म सात कर पाती हैं ।दोनों कीत्रही संस्कृतीयों की सयताओं के उनके अपने -अपने आधार हैं। आर्य-संस्कृति ने जहां एक ओर पुरूषप्रधान अभिजात्य वर्ग ने सामंतवादी प्रथा को जन्म दिया।जिसमें नारी केवल उसकी भोग्या रूप दासी बनकर रहगई ।जहां उसे दोयम दर्जे कि स्थान प्राप्त था ।दूसरी ओर अनार्य संस्कृति में नारी को पुरूष के समान ही अधिकार एवं स्वतंत्रता थी ।उसे अपनी इच्छा सै वर चुने का अधिकार था ।उनके लिये नारी केवल भोग्या नही थी ।वह उनके साथ हर जगह कंधे से कंधा मिला कर साथ खड़ी होती ।शक्ति सामर्थ्य में भी वह पुरूष से कम नही थी ।पुरूष उसका हृदय से सम्मान करताऔर उसकी इच्छा के विरूद्ध छू भी नही सकता था ।जब की आर्य संस्कृति मे स्त्री को पुरूष की हर इच्छा के अनुसार उसकी अनुगत हो कार्य करना उसकी मजबूरी थी ।
अज्ञात कुल जन्मा सीता और मैकाल दैत्य पुत्री नर्मदा का भाग्य भी इतिहास की इसी लेखनी से लिखा गया था।राजा जनक ने सीता को अपनी पुत्री की तरह पालकर उसे आर्य संस्कृति के संस्कार दिये ।ऊसकी रक्षा के लिये उसे वीर्यशुल्का घोषित कर स्वयंवर का आयोजन किया जिसमें शिव के शक्ति शाली धनुष भंग की प्रतियोगिता रखी जिसे राम ने तोड़ कर सीता को जीता और विवाह किया श्री राम को चौदह बरस.कि वनवास मिला तो वहां की परम्पराओं को तोड़कर सीत राम के साथ वन गई जब की सभी ने सीता को वन जाने के लिये मना किया किंतु सीता ने उनकी नही मानी .दूसरी ओर लक्ष्मण के वन जाने पर भी अपने पति की आज्ञा का पालन करते हुये उर्मिला अवध में ही रहीं ।रावण के द्वारा हरण किये जाने पर अपने सतीत्व की रक्षा करते हुये तेरह महीने लंका में अशोक वाटिका मे रही रहीं बाद में राम ने रावण को युद्ध में मार कर एक बार पुनःसीता को जीता किंतु वहां का आभिजात्य वर्ग इसे सहन नही कर पाया महल के अंदर और बाहर फिर दुष्चक्र चला और राम को सीता को गर्भावस्था में ही निष्कासित करना पड़ा ।जिसका परिणाम था.लवकुश को सीता के द्वारा वाल्मीकि.मुनि की सहायता से उनके विरूद्ध युद्ध में खडा करना और अंत में सीता का उनकी पुनः अपनी परीक्षा का आदेश ना मान कर धरती में समा जाना ।
प्रश्न है जहां राम सरीखे रत्नाकर भी उनके चरित्र पर लगाये लांछन को नही सह सके और उन्हे उसका परिणाम भोगना पड़ा सीता का परित्याग कर।
दूसरी ओर अब यदि हम बात करे नर्मदा की तो मैकाल की पुत्री होकर भी वह विंध्याचल एवं सतपूड़ा के बीच की विभाजन रेखा बन दोनों की ही गोद में पलकर बड़ी.हुई।सतपुड़ा का पुत्र शोण से उसका विवाह निश्चित हुआ विंध्याचल अपने समान समधी को पाकर प्रसन्न थै ।दोनों ओर से विवाह की तैयारियां जोरों पर थी ।शोण स्वयं नर्मदा से प्रेम करता था एवं नर्मदा भी शोण से प्यार करने लग गई थी विवाह के दिन जब मण्डप में वरमाला लेकर खड़ी नर्मदा के प्रतीक्षा करने पर भी शोण नही आया तो नर्मदा ने अपनी सखी जुहिला को उसे बुलाने के लिये भेजा किंतु उस समय नशे में थुत्तशोण ने जुहिला को ही उसकी बात सुनै वगैर अपने बाहुपाश में जकड़ लिया ।
जुहिला को ना आते देख नर्मदा स्वयं शोण के पास चल दी । जाकर देखा तो शोण की बाहों में जुहिला थी । क्रोध से आग बबूला हुई नर्मदा ने वरमाला को वहीं...तोड़ कर फेंकती हुई शोण को श्राप देते हुये कहा:- ..जा तू नद से नदी बन जा *।,जुहिला को कहा:- *तूने मेरी दासी होकर मुझे ही धोखा दिया अतःतू आज से अपवित्र होकर आचमन के योग्य भी नही रहेगी *।
कहती हुई पलटकर दूसरी ओर तीव्र वेग से पश्चिम दिशा की ओर चल दी ।अंत में खम्भात की खाड़ी में समंदर में मिलने के पश्चात भी उसके तेज को स्वयं समंदर नही पचा पाया और बीच समंदर में नर्मदा पुनःप्रकट हुई अपनी तेजस्वी ऊर्जा के साथ ।
धन्यवाद।
उषा सक्सेना -मौलिक