जवइनिया , बिहार के नक्शे से मिटा एक गांव / जवइनिया के लोगों के साथ ही ये सौतेला व्यवहार क्यों हो रहा है?

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जवइनिया , बिहार के नक्शे से मिटा एक गांव / जवइनिया के लोगों के साथ ही ये सौतेला व्यवहार क्यों हो रहा है?
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बचपन एक्सप्रेस संवाददाता : दीपांकर चतुर्वेदी


वर्ष 2025 प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से अब तक का सबसे विनाशकारी साल माना जा रहा है। देश के कई हिस्सों में लोग अलग-अलग तरह की भयानक आपदाओं से प्रभावित हैं। जहां पहाड़ों में बादल फटने और भूस्खलन जैसी समस्याओं से लोग परेशान हैं तो वहीं मैदानी इलाकों में भारी बारिश और बाढ़ के कारण आम लोगों का जीवन अस्त व्यस्त है।

देश के अन्य राज्यों की तरह ही बिहार भी बाढ़ की समस्या से बुरी तरह से ग्रस्त है।

बिहार के सैकड़ों गांव हर साल के तरह इस साल भी बाढ़ की चपेट में आए, लेकिन कुछ त्रासदियाँ ऐसी होती हैं जो केवल नुकसान नहीं करती, बल्कि इतिहास को ही निगल जाती हैं।

ऐसे में आज हम बात करेंगे बिहार के एक ऐसे गांव की जो इस वर्ष आई बाढ़ और भारी कटान के कारण मां गंगा की गोद में समाहित हो चुका है। जिस गांव के बारे में हम बात कर रहे हैं वह बिहार के भोजपुर जिले का एक गांव था! जवइनिया

‘था' इसलिए बोलना पड़ रहा है क्योंकि अब इस गांव का अस्तित्व पूरी तरह से खत्म हो चुका है और विश्वास मानिए अब जवइनिया बिहार के गांव के रूप में नक्शे से मीटकर अब गंगा नदी की नीली रेखा में विलीन है।




जवइनिया गांव भी बिहार के आम गांवों जैसा ही था, लेकिन इसकी मिट्टी में एक अलग ही गर्मजोशी, अपनापन और इतिहास की परतें थीं। गंगा के किनारे बसा हुआ यह गांव कभी गाछी-बगान, हरियाली से लहलहाते खेत, बच्चों की किलकारियों और चूल्हों से उठती धुएं की खुशबू से भरा रहता था। लेकिन आज, वह जवइनिया बस एक नाम बनकर रह गया है — क्योंकि गंगा की लहरों ने न सिर्फ इसकी ज़मीन, बल्कि इसकी पहचान तक बहा दी।

गांव की मिट्टी, घर, खेत, स्कूल, मंदिर, बाग-बगीचे, चबूतरे जहां लोगों की बैठकी होती थी— सबकुछ अब सिर्फ यादों में सिमट चुका है।




हर साल मॉनसून के साथ आती नदियों में बाढ़ इस बार सिर्फ पानी नहीं लायी थी, बल्कि ये विनाश का एक संदेश भी लेकर आयी थी। गंगा ने धीरे-धीरे किनारे काटने शुरू किए, और देखते ही देखते पूरे जवइनिया गांव मां गंगा के गर्भ में समा गया।

जब कटान ने गाँव को निगल लिया, तब सैकड़ों परिवारों के सामने सवाल खड़ा हुआ: "अब कहाँ जाएं?"

किसी ने रिश्तेदारों के यहां शरण ली, कोई पास के स्कूल में शरणार्थी की तरह पड़ा है, कुछ लोग सड़क किनारे झोपड़ी डालकर तो वहीं हजारों लोगों ने गांव के पास बने बांध पर बांस और तिरपाल से अस्थाई आशियाना बनाकर पशुओं के साथ रह रहे हैं। न पीने का साफ़ पानी है, न शौचालय, न बिजली — सिर्फ़ इंतजार है कि कब कोई उनकी सुध ले और उनके जीवन को पुनर्स्थापित करने की सांत्वना दें।

गांव की मिट्टी सिर्फ ज़मीन नहीं थी — वह लोगों की पहचान थी। अब जब वह मिट्टी ही नहीं रही, तो सवाल ये भी उठता है कि क्या अब जवइनिया फिर कभी बस पाएगा?

हालांकि स्थानीय लोग सरकार और व्यवस्था की खामोशी देख कर उम्मीद छोड़ ही चुके हैं। गांव वाले आज भी एक-दूसरे का सहारा बनकर जीने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ युवा सोशल मीडिया पर गांव की हालत दिखाने में जुटे हैं, कुछ बाहर रह रहे लोग फंड जुटाने की कोशिश कर रहे हैं।

सरकारी आंकड़ों में शायद ये "एक सामान्य घटना" हो, पर जवइनिया के लिए यह कयामत है। मदद के नाम पर कुछ पॉलिथीन, सूखा राशन, आलू की सब्जी पुड़ी और आश्वासन तो दिए गए — लेकिन ना धरातल पर पुनर्वास की कोई ठोस योजना है, ना किसी को स्थायी ठिकाना और मुआवजा मिलने की उम्मीद। स्थानीय पंचायत स्तर पर मांगें उठाई जा रही हैं, लेकिन वे भी नौकरशाही के गलियारों में उलझकर दम तोड़ देती हैं।




अंतिम में एक और सवाल है जो वहां के लोगों का है और ये उनका हक भी है, कि आखिर जवइनिया के लोगों के साथ ही ये सौतेला व्यवहार क्यों हो रहा है?

पिछले दिनों उत्तराखंड के धराली, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और पंजाब में बाढ़, भारी बारिश, भूस्खलन के साथ-साथ बादल फटने की घटनाएं घटित हुई जिसमें पूरे देश ने एक साथ यहां के लोगों के प्रति सहानुभूति दिखाई और यथायोग्य सहायता की। ये अच्छी बात है होनी भी चाहिए। लेकिन थोड़ी सहानुभूति बिहार के इस गांव के लिए भी होनी चाहिए। विशेष कर सत्ता के दावेदारों को इस गांव के प्रति भी संवेदनाएं दिखानी चाहिए और जैसे उन्होंने पंजाब में बाढ़ का निरीक्षण किया वैसे एक बार इस गांव का भी दौरा करें और यहां के लोगों के मन में पुनर्वास की एक आस जगाएं।


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