"हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् "। अर्थात् सत्य का मुख सुवर्ण के पात्र से ढका हुआ है ।(ईशोपनिषद)

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हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । अर्थात् सत्य का मुख सुवर्ण के पात्र से ढका हुआ है ।(ईशोपनिषद)

गायत्री और सावित्री:-

आईये आज हम ब्रह्मा जी की इन दोनों पत्नियों पर चर्चा करें।एक यक्षप्रश्नजो मुमुक्षु बना सदा उसकी गहराई तक जाना चाहता । हमारी प्राचीन सनातन संस्कृति की आधार शिला वेद और पुराणों में कोई भी बात सीधे से न कह कर एक आवरण में आख्यायिकाओं के माध्यम से कहा है:-"हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् "।

अर्थात् सत्य का मुख सुवर्ण के पात्र से ढका हुआ है ।(ईशोपनिषद)

इसी प्रकार से ब्रह्मा और उनकी पत्नी गायत्री सावित्री के अर्थ को समझना भी गूढ़ रहस्य है । ब्रह्म का अर्थ ही है *बृहद् है जिसका अहम्, एकोऽहम् बहुस्यामि *जो एक होकर भी अपने अहम् का विस्तार चाहता है । उस ब्रह्म को धारण करने वाला ही तो ब्रह्मा है ।अर्थात् हमारा मानव शरीर हर व्यक्ति अपने आप में "ब्रह्मा "है क्यों कि सृजन की शक्ति उसके पास है । यह शक्तियां ही गायत्री और सावित्री हैं जो उसकी चेतना को जागृत करती है ।

गायत्री हमारी भौतिक चेतना है जिसके माध्यम से हम अपनी इंद्रियों के द्वारा अपनी चेतना शक्ति को जागृत करते हैं । इसमें जानने वाला और जाना जाने वाला दोनों ही पृथक होते हैं । इसके अंतर्गत द्वैत भाव होने से यह अपरा विद्या है जो हमें स्वप्न की बुद्धि से उत्पन्न होकर निराकार तक का ज्ञान देती है ।

सावित्री हमारी आध्यात्मिक शक्ति है अंतस चेतना की कुण्डलिनी जागरण विद्या ।जिसे व्यक्ति स्वयं योग के द्वारा ही जाग्रत कर सकता

है ,बाह्य किसी और के माध्यम से नही ।यह ब्रह्म से एकाकार करती हुई उसी में लीन हो जाती है अद्वैत भाव लेकर ।इसीलिये इसे परा विद्या भी कहते हैं । *सावित्री कुण्डलिनी तंत्र विद्या *है जो सहज और सरल नही । जबकि गायत्री सहज और सरल होने से उसे कोई भी समझ सकता है। सावित्री को केवल दृढ़ संकल्पित मन से ही तप

के द्वारा समर्पित होकर पाया जा सकता है ।

ब्रह्मा जी ने पहले घोर तप किया और अपनी कुण्डलिनी जागृत कर मानस पुत्रों की उत्पत्ति की जो सृजन नही कर सकते थे । तब इसके लिये यज्ञ का समायोजन किया ।उस सत्य को जानने के लिये जिसका मुख सुवर्ण पात्र से ढका है और तब अपनी चेतना को चैतन्य शक्ति द्वारा जागृत कर बाह्य भौतिक जगत प्रकृति को जाना। उस प्रकृति के सहयोग से ही ब्रह्म ने "एकोऽहम् बहुस्यामि " के रूप में अपना विस्तार किया ।

यही गायत्री और सावित्री के रूप में ब्रह्मा की पत्नी होने का रहस्य है । सावित्री तंत्र कठिन होने से कुण्डलिनी जागरण कर उसकी उत्प्रेरक शक्ति को संभालना हर किसी की बात नही ।कभी कभी वह अति विध्वंसक भी होजाती है । यही परा और अपरा विद्या का गूढ़ रहस्य है जिसे हम सरललता से समझ ही नही पाते ।जै माता दी ।

धन्यवाद।उषा सक्सेना

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