साहो की सफलता ने फिल्म नॉयर के पात्रो को पुनर्जीवित करने का काम किया है

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साहो की सफलता ने फिल्म नॉयर के पात्रो को पुनर्जीवित करने का काम किया है


फिल्म नॉयर टर्म पहली बार 1946 में

फ्रांसीसी आलोचक नीनो फ्रैंक द्वारा हॉलीवुड फिल्मों के लिए इस्तेमाल किया गया था

लेकिन ज्यादातर अमेरिकी फिल्म उद्योग के पेशेवरों द्वारा इस टर्म को कोई मान्यता

प्राप्त नहीं थी । उस युग के सिनेमा इतिहासकार और आलोचक, जिस समय ये फिल्मे आई,

उस समय इसके बारे में नहीं जान पाए । फिल्म नॉयर नाम की कोई केटेगरी है ये उस समय किसी को भी नहीं पता चल पाया । द्वितीय

विश्व युद्ध के दौरान हॉलीवुड की फिल्मों का प्रदर्शन फ्रांस में नहीं हो पाने के

कारण फ्रेंच फिल्म क्रिटिक इन फिल्मों को देख नहीं पाए थे । जब फ्रेंच फिल्म

आलोचकों ने फिर से इन फिल्मों को देखना शुरू किया तो उन्हें लगा कि ये आम हॉलीवुड

की फिल्मों जैसी न होकर कुछ अलग है । उन्होंने देखा की इन फिल्मों का हीरो समाज

में स्थापित मान्यताओं को नहीं मानता है और उनसे विपरीत व्यवहार करता है ।

फिल्म नॉयर को जानने और समझने वाले ये जानते है कि ये कहानी उस समय शुरू हुई थी जब पूरा विश्व द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव को झेल रहा था | हालाकि ये बात फिल्म नॉयर के उदभव के स्थान अमेरिका के लिए ज्यादा प्रभावी नहीं थी | अमेरिका पर द्वितीय विश्व युद्ध का प्रभाव तो नहीं पड़ा था पर वहा बड़े शहरों में छोटे शहर या सब अर्बन इलाकों से लोग आ रहे थे | इन विकसित होते शहरो की अपनी कहानी थी और ये उन लोगो के लिए बहुत ही शख्त थे जो बाहर से यहाँ रहने आते थे | दूसरा जो सबसे बड़ा प्रभाव न सिर्फ फिल्मों में दिखा बल्कि समाज में भी दिखाई देने लगा था वो था महिलाओं का पुरुषो के कामकाज के क्षेत्र में दखल | महिला वो काम करने लगी थी जो पुरुषो का काम माना जाता था | १९४० से १९५० के दौरान हॉलीवुड सिनेमा का नायक विपरित परिस्थितियों में होने के बावजूद भी सामाजिक मान्यताओ के अंदर रहकर समाज में स्थापित मूल्यों के लिए लड़ता था । इसके विपरित फिल्म नॉयर का हीरो नकारात्मक/ निराशावादी सोच से भरा, शहरी वातावरण में अपने आप को अकेला महसूस करता, अँधेरी सडको पर भटकता, किसी पर भी विश्वास नहीं करना, दुसरो की स्त्री के साथ सम्बन्ध बनाना, हत्या, जासूसी, अपराधबोध, जैसे चरित्र का बोध कराती है ।फिल्म साहो की कहानी भी एक ऐसे साम्राज्य की है जो काली दुनिया पर बादशाहत की जंग है | इसके मुख्य पात्र प्रभास को इस काली दुनिया का बादशाह रॉय (जैकी श्रोफ)पालता है | रॉय की गद्दी पर कब्ज़ा करने के लिए उसी के गैंग का एक और गुर्गा चंकी पाण्डेय लगातार प्रयास करता रहता है पर सफल नहीं हो पाता |इसी बीच मुंबई शहर में चोरियां शुरू होती है और उसे हल करने के लिए अशोक चक्रवर्ती नाम का पुलिस ऑफिसर आता है जो अपने लोगो के साथ चोर को पकड़ने का काम शुरू करता है | इस फिल्म का गुंडा एक तरफ एक बच्चे को पालता है पर दूसरी और एक ठेका पाने के लिए एक मंत्री और उसके परिवार का बेरहमी से क़त्ल कर देता है | फिल्म का हीरो अपने पिता की गद्दी पाने के लिए साम , दाम , दंड , भेद सभी का इस्तेमाल करता है | इसमें फिल्म की नायिका भी शामिल है | जैसा की फिल्म नॉयर की फिल्मो की खासियत है की सामाजिक मान्यताओं का कोई मतलब नहीं होता यहाँ भी हीरो अपने उस बाप का बदला लेने के लिए खून की नदियाँ बहा देता है जिसके हाँथ खुद सैकड़ो बेगुनाहों के खून से रंगे है | पर ये बाते तो उस समाज की है जो हीरो से रामायण के राम का चरित्र जीने की कल्पना नहीं करता है | इस फिल्म में विश्वास भी है , वफादारी भी है पर समाज से नहीं बल्कि व्यक्ति से |फिल्म के मारधाड़ के सीन अच्छे है और दर्शको को बांधे रखते है | पर एक बात जो हजम नहीं होती है वो है इस फिल्म में सभी पोलिस वालों का करप्ट होना | चाहे वो अशोक चक्रवर्ती हो या उससे बड़ा अधिकारी सभी किसी न किसी गुंडे के एजेंट है | असली अशोक चक्रवर्ती को जब सही समझने का वक्त आया तो वो भी माफिया की गाड़ी में घूमता दिख रहा है | दर्शको को इस फिल्म के नैरेटिव ने चकरा दिया और अंत तक किसी भी पात्र के बारे में ज्यादा समय के लिए कोई धारणा नहीं बन पायी |श्रद्धा कपूर ने शुरुआत अच्छी की पर वो भी बुराई की दौलत से मजे लेने में बाद में परहेज करती नहीं नजर आई | मै अभी सारा कुछ लिखकर सस्पेंस नहीं ख़त्म करूँगा पर अगर नैतिकता के चश्मे से देखना चाहेंगे तो निराश होंगे क्योंकि ये फिल्म नव नॉयर का भारत में पुनरोत्थान है |



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