सिनेमा केवल मनोरंजन का नहीं, जनसंवाद का एक सशक्त माध्यम: प्रो संजीव भनावत
झांसी। सिनेमा को मनोरंजन का विशुद्ध माध्यम नहीं माना जा सकता क्योंकि सिनेमा के साथ देश का बहुसंख्यक समाज जुड़ता है। सिनेमा अगर समाज से अर्थ का निर्माण...
झांसी। सिनेमा को मनोरंजन का विशुद्ध माध्यम नहीं माना जा सकता क्योंकि सिनेमा के साथ देश का बहुसंख्यक समाज जुड़ता है। सिनेमा अगर समाज से अर्थ का निर्माण...
झांसी। सिनेमा को मनोरंजन का विशुद्ध माध्यम नहीं माना जा सकता क्योंकि सिनेमा के साथ देश का बहुसंख्यक समाज जुड़ता है। सिनेमा अगर समाज से अर्थ का निर्माण करता है तो समाज के उन्नयन की जिम्मेदारी भी उसी पर है। इसीलिए सिनेमा को केवल मनोरंजन नहीं बल्कि जनसंवाद का भी माध्यम भी बनना चाहिए। उक्त विचार केंद्रीय राजस्थान विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य प्रो संजीव भानावत ने व्यक्त किये। वे बचपन एक्सप्रेस लखनऊ, बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झांसी, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय लखनऊ एवं राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय अयोध्या द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित 'सिनेमा, समाज और स्त्री अपराध बोध' विषय पर ऑनलाइन आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन समारोह में मुख्य वक्ता के रूप में बोल रहे थे।
उन्होंने कहा कि भारतीय सिनेमा ने स्त्री विमर्श के अनेकों चरणों को पार किया है। आज सिनेमा स्त्री की रूढ़िवादी छवि को तोड़कर उसकी सशक्त तस्वीर बनकर उभरा है। आज की सिनेमाई स्त्री अपने निर्णय स्वयं लेने में सक्षम है। राष्ट्रीय संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रही राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो प्रतिभा गोयल ने कहा कि सिनेमा आवाज और चलचित्र का अनूठा माध्यम है।
इसका आम जनमानस एवं संपूर्ण समाज पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। उन्होंने कहा कि सिनेमा व्यवसायिकता की दौड़ में अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड सकता। उन्होंने सोहराब मोदी की फिल्म पुकार, झांसी की रानी और महबूब खान की औरत फिल्म का जिक्र करते हुए कहा कि हमें ऐसी फिल्मों का निर्माण करना चाहिए जो हमारे घर परिवार की महिलाओं को और सशक्त बनने में सहायक हो।
उन्होंने कहा कि आज ओटीटी के दौर में सिनेमा घर और हमारे बेडरूम में आ गया है। ऐसे में एक दर्शक रूप में हमारी चुनौती और अधिक बड़ी है। आधुनिक पत्रकारिता के पितामह बाबू विष्णु राव पुराड़कर के पौत्र आलोक पराड़कर ने विशिष्ट वक्ता के रूप में कहा कि सिनेमा पर आरोप है कि उसने स्त्री को एक वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जो कहीं ना कहीं सही भी प्रतीत होता है। हमारा दर्शक वर्ग अभिनेता और अभिनेत्री से सदैव प्रभावित रहा है। कई बार निर्देशकों की यह सोच रहती है कि सिनेमा हमारे दैनिक जीवन की समस्याएं गरीबी, अशिक्षा, रोजगार से हमें एक काल्पनिक दुनिया की ओर ले जाए जहां हम वैसा अनुभव कर सकें जो हमें प्राप्त नहीं हुआ है। सार्थक सिनेमा के दौर में कई निर्देशों ने बेहतरीन कहानियों को दर्शकों के सामने रखा।
लेकिन समय के साथ उसने अपनी धार खो दी। वर्तमान सिनेमा का समय मध्य मार्गीय सिनेमा का है। जहां मनोरंजन के साथ समाज की वास्तविकता को पंचायत और कोटा फैक्ट्री जैसी वेब सीरीज के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। भारतीय नाट्य अकादमी लखनऊ के पूर्व निदेशक अरुण त्रिवेदी ने कहा कि सिनेमा अपने अभिनय, संवाद और कपड़ों के जरिए एक संसार का निर्माण करता है।
इन तीनों चीजों का युग्म किसी भी पात्र को गरिमा या उसकी नकारात्मक छवि गढ़ने में सहायक है। उन्होंने मदर इंडिया ,पाकीज़ा एवं आराधना फिल्मों के माध्यम से महिला किरदारों की गरिमा में छवि पर प्रकाश डाला।
बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के डॉ कौशल त्रिपाठी ने सिनेमा के लिए नए माध्यम के रूप में उभरे ओटीटी प्लेटफॉर्म्स, उनकी सामग्री एवं दर्शकों की चुनौतियों पर अपने विचार व्यक्त किये। संगोष्ठी के विषय की प्रस्तावना एवं संचालन बाबा साहब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर गोविंद जी पांडे ने प्रस्तुत किया। उन्होंने सिनेमा का इतिहास एवं वैश्विक सिनेमा की उत्पत्ति एवं उसकी विशेषताओं के साथ ही सिनेमा के क्षेत्र में हो रहे शोध एवं पुस्तक लेखन पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया।
स्वागत बचपन एक्सप्रेस की संपादक डॉ मीना पांडे ने किया। इस अवसर पर भाषा विश्वविद्यालय लखनऊ की डॉ रुचिता चौधरी, अवध विश्वविद्यालय से डाॅ विजयेन्दु चौधरी, कानपुर विश्वविद्यालय से डॉ योगेंद्र पांडे, डॉ रश्मि सिंह, डॉ जितेंद्र डबराल के साथ देश के अनेक विश्वविद्यालय के शोधार्थियों ने अपने विचार रखे।