संसद में बदतमीजी और संसदीय कार्यवाही के व्यवधान से ऊब चुकी है जनता
संसद और सांसद बदल जाते है।इसी तरह उनकी संस्कृति और आचरण के मापदंड बदल जाते है।लेकिन हम तेजी से उस स्थिति में पहुंच जाते है।जहाँ संसदीय सरकार की...
संसद और सांसद बदल जाते है।इसी तरह उनकी संस्कृति और आचरण के मापदंड बदल जाते है।लेकिन हम तेजी से उस स्थिति में पहुंच जाते है।जहाँ संसदीय सरकार की...
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संसद और सांसद बदल जाते है।इसी तरह उनकी संस्कृति और आचरण के मापदंड बदल जाते है।लेकिन हम तेजी से उस स्थिति में पहुंच जाते है।जहाँ संसदीय सरकार की अवधारणा ही एक कच्चे धागे से झूलती नजर आ रही है।संसद में गरिमा रखी जानी चाहिए लोकसभा हो या राज्य सभा दोनॉ सदनों में जिस तरह से वाणी का प्रयोग किया जाता है।उससे नेताओ का मान भंग होता दिखता है।संसद पर करोडो का खर्च आता है।लोगो की मेहनत की कमाई खर्च होती है।जब दुःख होता है तब सदन को कई घण्टो और कई दिनों तक स्थगित किया जाता है।हंगामा और हाथापाई उस संसदीय आचरणों पर काला सच देखने को मिलता है।जब सदन में कुर्सियां फेंकी जाती है।संसदीय इतिहास में सभ्य लोगो का दौर थाO।जब सदन को मन्दिर की तरह समझा जाता था।बहस और हंगामा करके समय बर्बाद किया जाता है तब मन मे विचार आता है कि हमने जिन प्रतिनिधियों को क्षेत्र की समस्याओं का निराकरण करने संसद में भेजे थे वो तो नाच रहे है।तब अपने आप पर तरस आता है।हमे पश्चाताप होता है।सदन में तर्कपूर्ण बात रखने के लिए नीतिगत विषयो पर बहस चलाने में जुटना चाहिए।पहले भी कटाक्ष किए जाते थे।सदन चलती थी।हंसी ठिठोली की जाती थी,लेकिन वो सब विनोदपूर्ण होते थे।आज की तरह नही होता था।उल्लेखनीय है कि राज्यसभा सांसद को पूरे सत्र के लिए सस्पेंड किया गया।यह संसदीय गरिमा पर एक कलंक समान है।आज नीति नियमो की धज्जियां उड़ाई जा रही है।समय व्यतीत किया जाता है।सदन में कोई अहम बहस के दौरान हंगामा खड़ा किया जाता है।
संसद में हिंदी में बहस होनी चाहिए।सारे राजनीतिक दल जिस दृष्टि से देखते है वह काफी भिन्न है।सदन नीतियों को प्रभावित करने के लिए बहस करने या विधेयकों में संशोधन प्रस्ताव लाने का मंच नही रह गया है।यह राष्ट्रिय नाट्यशाला की तरह नजर आती है।तीनो कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए सदन में विधेयक पेश किया।कांग्रेस और अन्य पार्टी सहमत थी।जिससे बहस नही हुई।लेकिन जहा अजीबोगरीब हरकते करना और कार्यवाई को रुकवा देना ही जीत की निशानी समझी जाती है।लेंकिन कार्य स्थगन के लिए मजबूर कर पूरा दिन ही खराब करवा देते है।हद तो तब होती है जब अध्यक्ष कई बार सदन में बैठने के लिए आग्रह करते है लेकिन उनकी नही सुनी जाती है।ऐसे लोगो को काबू करने के लिए कानून बनाने के साहसिक प्रयासो का कोई परिणाम नही निकला है।प्राथमिक तौर पर विपक्ष इसका जिम्मेदार है।
विपक्ष इस बात को स्वीकार करे कि न तो कोई समस्या इतनी बड़ी हो सकती है और न ही सत्ता पक्ष की हरकत ऐसी हो सकती है जिसके लिए संसद की कार्यवाई को रोकनी पड़े।इससे सबसे बड़ा फायदा सरकार को होता है।जिसकी नीतियों की समीक्षा नही होती है।संसद में जिस तरह से आचरण करते है।वैसा विधानसभा में विधायक भी करते है।कुछ वर्षों पूर्व यूपी विधानसभा में एक दूसरे पर घुसे चले थे।जबकि कश्मीर में भी कुर्सियां फेंकी गई थी।शराफत का ऐतिहासिक दौर बेशक बीत चुका है।इस पर विलाप करने का कोई फायदा नही है।दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र होने से इतना गर्व महसूस करता है।संसदीय सरकार को अवधारणा को तो सफल बनाना ही होगा।
*कांतिलाल मांडोत*