मायावती सहित राजनैतिक पार्टीया दलित वोट साधने में लगे
दलितो को अपनी मुट्ठी में समझती मायावती की झोली खाली हो गई है।दलितों को बराबरी और बेहतरी का सपना दिखाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाली मायावती...

दलितो को अपनी मुट्ठी में समझती मायावती की झोली खाली हो गई है।दलितों को बराबरी और बेहतरी का सपना दिखाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाली मायावती...
दलितो को अपनी मुट्ठी में समझती मायावती की झोली खाली हो गई है।दलितों को बराबरी और बेहतरी का सपना दिखाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाली मायावती का मंसूबा प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने का था।मायावती का सपना पूरा नही हुआ।उस दौर में दलितों की जरूरत नही थी अब दलितों को माया की जरूरत नही है क्योंकि बेस्ट सूविधाओ का पिटारा भाजपा ने खोल दिया है।अब बसपा के वोट बैंक पर भाजपा,कांग्रेस और सपा की नजर है।ब्राहम्णो को लुभाने के लिए मायावती मैदान में उतर चुकी है।ओबीसी के बाद बड़ा वोट बैंक है।मायावती तीन दशक पूर्व जिन मुद्दों, नारो,रणनीति और सामाजिक समीकरण और नेता के सहारे संसदीय राजनीति में उतरी थी।तीन दशक के बाद भी उसी के सहारे खड़ी है।तीन दशक बाद देश और प्रदेश की राजनीति और समाज मे ढेर सारे परिवर्तन हो चुके है।दलित और अति पिछड़े समाज मे भी आर्थिक और शैक्षणिक उन्नति हुई है।
लेकिन मायावती ने अपनी रणनीति में कोई ठोस बदलाव नही किया।जो बदलाव किया वह महज सत्ता पाने तक सीमित रखा गया।पार्टी में एकाधिकार पाने के लिए कई नेताओं को पार्टी से निष्कासित कर दिया।अब बहुजन समाज पार्टी से खुद नेता त्याग कर रहे है मायावती ने बहुजन की जगह सर्वजन का नारा दिया।मायावती का दलितों से खिसकता जनाधार से पार्टी को भारी कीमत चुकानी पड़ गई है।दलितों पर इन राजनैतिक पार्टियों की नजर तो है लेकिन दलितों के सामाजिक और पारिवारिक उत्थान में जिस किसी ने सहयोग किया है उसके साथ दलित जाएंगे।इस 2022 के चुनाव में भाजपा के साथ दलितों का कनेक्शन काफी हद तक सही साबित होगा।2022 के चुनावों में इन कमजोर वर्ग को साधने का प्रयास किया जा रहा है उस दल को दलित सहयोग करेंगे।दलित और ओबीसी तबक्का लोकतंत्र का पांचवा स्तंभ माना गया है।सरकार गिराना और सरकार बनाना इन वोटरों के हाथ मे होता है।2012 के विधानसभा चुनाव में जनता ने उनको विपक्ष की भूमिका के बजाय सत्ता के इंतजार ने गंवा दिया।अखिलेश यादव के शाशनकल में प्रदेश की जनता को दंगो और लचर कानून व्यवस्था का सामना करना पड़ा।
मायावती मौन साधे बैठी रही।इसका नतीजा यह हुआ कि 2017 में जनता ने विपक्ष की भूमिका निभाने लायक भी नही समझा।मायावती ने प्रचार प्रचार नही करने की एक वजह बताई की हम बहुजन ऐन वक्त पर प्रचार करने निकलेंगे।जिससे धन की बचत हो सके।मायावती ने जातीय गठबंधन को चुनाव तक ही सीमित रखने का परिणाम यह आया कि दलित हमेशा के लिए मायावती का साथ छोड़ दिए।स्वर्णो और पिछड़ा वर्ग के ढेर सारे नेताओ को आगे लाया गया।मायावती ने इन जातियों को चुनाव जीतने तक ही पकड़े रखा।उसके बाद उन जातियों को छोड़ दिया।मतदाता समझ गए कि मेरे वोट का इस्तेमाल कर मायवती माया रच रही है।जिससे मायावती से दलित,मुस्लिम और स्वर्ण जातियां दूर होती गई।अब समय बदल गया है।इन जातिवाद को मोहरा बनाने वाली पार्टियो की जरूरत भी नही है।भाजपा ने सबको गले लगाया।यूपी में करीब चालीस फीसदी दलित,पिछड़ा और मुस्लिम वोट है।लेकिन मायावती ने अपने स्वार्थ के खातिर उनको मोहरा बनाया।अब वोटों के लिए तरसती पार्टियो का कोई वजूद नही है।माया की मायाजाल से वोटर बाहर निकल चुके है।अब ये गणित लगाते रहेंगे तो भी समीकरण बैठने वाला नही है।क्योकि मतदाताओ का मन किसी और दल से लग चुका है।अब कोई डर और प्रभोभन से मतदान नही करा सकते है।
*कांतिलाल मांडोत सूरत*





