डॉ अंबेडकर के धम्म की वैश्विक अनुगूँज

Update: 2020-04-14 13:44 GMT

रिपु सूदन सिंह

आचार्य, राजनीति विज्ञान

अंबेडकर केंद्रीय

विश्वविदयालय, लखनऊ

ripusudans@gmail.com

        14 अप्रैल 2020 को बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर की 129वी

जयंती पर उनके धम्म की अवधारणा पर चर्चा इस उलझे वैश्विक संकट मे कुछ रोशनी

दिखाएगा।  उन्होने 1956 में एक ऐसा कदम

उठाया जो भारत के अनंत इतिहास में अनोखा है। उनके एक निर्णय से न सिर्फ इस महान भूमि में जन्म के सारे ऋण उतर गए  बल्कि इस देश की सभ्यता, संस्कृति और

राष्ट्र को वे सदा के लिए

ऋणी बना गए।  आज बरबस उनका स्मरण हो रहा है।  भारतीय समाज के कुछ ऐसे अंतर्द्वंद थे जिनको डॉ अंबेडकर दूर करना चाह रहे

थे, पर कुछ जड़तावादी तत्व ऐसे थे जो किसी भी बदलाव के लिए तैयार

न थे जिससे आजिज़ आकर 1935 में डॉ आंबेडकर ने बड़ी वेदना और पीड़ा के साथ घोषणा की कि मैं हिन्दू पैदा हुआ, जिसपर मेरा कोई

वश न था, पर हिन्दू मरूँगा नही।' इस घटना की अनुगूंज उन तमाम लोगो तक पहुंची जो भारत के

अस्तित्व को सदियो से मिटाना चाह रहे थे। मानो डॉ अम्बेडकर ने उनके मन की मुरीद

पूरी कर दी। यरूशलम  की भूमि में

उत्पन्न अब्राहमिक चिंतन से से निकले फेथ

(आस्था)  केंद्रित  यहूदी, ईसाई और इस्लाम

के प्रतिनिधियों का उनसे मिलना जुलना तेज हो गया। लगा जो काम वे विगत दो हजार साल से

न कर पाए, अम्बेडकर का धर्म परिवर्तन उसे पूरा कर

देगा। उनको अनेक प्रस्ताव भेजे गए। उनमे हैदराबाद के नवाब का करोङो रुपये के  नज़राने  का भी आफर था। डा0 अम्बेडकर के उक्त कथन से यह अर्थ  निकाला गया कि हिन्दू धर्म बहुत ही बुरा था लेकिन  इस्लाम, ईसाई अन्य स्थापित

धर्म ही एक उत्कृष्ट और बेहतर विकल्प थे। यदि डा0 अम्बेडकर की

पुस्तक बुद्ध और उनका धर्म और उनके अनेक लेख जैसे बुद्ध या

कार्ल मार्क्स, फ़िलॉसफी ऑफ हिन्दुयिज्म इत्यादि पढ़ा

जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वह एक ऐसे धम्म का चिंतन-मनन 

कर रहे थे जिसकी जड़े इस राष्ट्र की ज़मीन मे थी। उन्होने पाया कि भारतीय

चिंतन मे धम्म एक ऐसा आविष्कार था जिसे लोगों ने भुला दिया था और अंजाने, नासमझी या फिर विदेशी

सत्ता के दवाब और लालच मे धर्म को रेलीजन, मजहब और पंथ मानने

लगे।  आंबेडकर एक धर्म की एक ऐसी

मीमांसा प्रस्तुत करते हैं जो सभी स्थापित धर्मों (मजहब-रेलीजन-पंथ)

के लिए चुनौती बन जाता है।  इस

संदर्भ में डा0 अम्बेडकर  की धम्म की  अवधारणा एक विश्वव्यापी दृष्टिकोण प्रदान करता

है।

        1935 से 1956 उनके महापरिनिर्वाण के बीच का समय डॉ अंबेडकर

के लिए गहन चिंतन का समय था। उस बीच अनेक ऐसे क्षण आए जिसमे उन्हे  व्यक्तिगत लाभ और वैचारिक प्रतिबद्धता के बीच

चुनाव करना था। उसमे सबसे प्रमुख और कठिन निर्णय था पुराने धर्म को छोड़ना और एक नए

धर्म को स्वीकार करना। उनके सामने पूरी दुनिया के धर्मगुरुओ और नेताओ का खुला ऑफर

था पर डॉ अंबेडकर के सवाल नितांत मौलिक और अलग थे। उनका सवाल था  धर्म क्या है, उसका उद्देश्य

क्या है, उसकी जरूरत क्यो है, जीवन और समाज मे

उसकी क्या प्रासंगिकता है, धम्म और नैतिकता मे क्या संबंध है, पुनर्जन्म, कर्म और अकर्म

क्या है, अहिंसा और हिंसा क्या है,

मोक्ष-निर्वाण-देहांतरण क्या है? क्या धम्म शून्यवाद है, क्षणिकवाद है, नास्तिकता है या

मात्र भौतिकता है?  क्या यह

अतिशय आनद-विलास है या अत्यंत पीड़ा और कष्ट है?  क्या धर्म का संबंध मृत्यु के पूर्व या बाद से

होता है या फिर यह सीधे सीधे इसी वर्तमान जीवन से जुड़ा है। यह मुक्ति कामी है कि

मोक्ष कामी है, यह आस्था उत्पन्न करता है कि प्रज्ञा और ज्ञान, यह नकारात्मक है

कि सकारात्मक? क्या धम्म धारण करने का संकल्प है कि मतपरिवर्तन

(कन्वर्शन) का? क्या धम्म को धरण करने के लिए किसी कर्मकांड, आडंबर और विशेष

पूजा पद्धति की जरूरत है? क्या यह परलौकिक (आसमानी) है या इहलौकिक, क्या धम्म और

मजहब, रिलीज्यं, पंथ, संप्रदाय एक ही

है? डॉ अंबेडकर के मन मे ढेर सारे सवाल उभरते है? धम्म का डॉ

अंबेडकर निर्णय मात्र उनसे  ही

संबंधित  नहीं था, वरन भारत के

समूचे लोगों, वर्षों से चली आ रही संस्कृति, सभ्यता और राष्ट्र

की पहचान और अस्मिता से जुड़ा था।

        अंततः डॉ अंबेडकर अपनी मृत्यु  के लगभग डेढ़ माह पूर्व  1956  के अक्टूबर माह  में दशहरा के दिन

नागों की भूमि नागपुर में पांच लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अंगीकृत करते है।   उनका धर्म धारण  बुद्ध और अशोक के बाद की सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना थी। उनके उस महान

निर्णय ने हजारों सालो से गुलाम बनी भारत की भूमि को टुकड़े टुकड़े होने से बचा

लिया। 1947 मे देश टूटा पर 1956 ने डॉ अंबेडकर ने दक्षिण एशिया के समस्त भारतीयों

मे न सिर्फ पुनर्मिलन की एक आस भर दी बल्कि युद्ध और अशांति से जूझ रहे विश्व को

अपने अनंत  दुखो से मुक्त होने का मार्ग

दिखाया। उनका सबसे बड़ा योगदान था 1956 मे ही धम्म पर एक

अद्भुत और नितांत भिन्न

पुस्तक 'द बुद्धा एंड हिज धम्म' की रचना करना।   ये दोनों घटनाएं भारतीय अस्मिता,  अस्तित्व और उसकी निरंतरता से जुड़ गयी।   तीन सौ से अधिक पृष्ठों की उस

पुस्तक में डॉ आंबेडकर ने न सिर्फ बौद्ध धर्म की चर्चा की बल्कि विश्व के समूचे

दर्शन और धर्म का निचोड़ प्रस्तुत किया।  इस पुस्तक में

जहां वे महायान (बिग वेहिकल ऑफ नॉलेज) और हीनयान (स्माल  वेहिकल ऑफ नॉलेज) की व्याख्या  के साथ  नवयान (न्यू वेहिकल ऑफ

नॉलेज) का मार्ग प्रशस्त करते है। इस पुस्तक मे वे भारतीय ज्ञान और दर्शन 

परंपरा  सहित संस्कृति, समाज और सभ्यता

मूलक विषयों की गंभीर चर्चा करते है। यह पुस्तक मुक्तकामी है, ज्ञानद्रष्टा है और जीवन दायनी है। डॉ अंबेडकर का धम्म अंगीकरण किसी एक व्यक्ति का  मतपरिवर्तन (कन्वर्शन) नहीं था बल्कि बल्कि एक विशाल व्यग्र, वंचित, अधीर , ज्ञानपीपासु, मुक्तिकामी जनसमूह का धर्म धारण था जो

1935 मे आक्रोश और पीड़ा मे आकार डॉ अंबेडकर के उस भाषण के बाद से ही उनकी तरफ एक

टकटकी लगा कर देख रही जनता का था। यह सिर्फ विश्व के दमित, उद्विग्न और वंचित लोगो के लिए एक नया रास्ता न था

बल्कि उन तमाम जो तमाम सुख, संपन्नता और सामाजिक सम्मान के बाद भी एक दुखी, कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे थे।

        उस

पुस्तक का शीर्षक बुद्ध और उनका धम्म अपने आपमे अनेक अर्थ लिए हुये

है। यह धम्म बुद्ध के  स्वयं एक नवीन

आविष्कार था। यह किसी को किसी मजहब, रिलीज्यं और पंथ के बंधनो मे नहीं बांधता बल्कि उसे उससे मुक्त करता और इसी

जीवन मे अंधकार से प्रकाश की ओर जाने अर्थात कष्ट, पीड़ा, दुख, रोग, विपन्नता, अज्ञान, अंधविश्वास, चमत्कार, झूठे और मनगढ़ंत आश्वासनों से मुक्त करता है। 

यह अनीश्वर, अनित्यवाद और अनात्मवाद के नीव पर खड़ा है। बुद्ध एक ऐसे धम्म का प्रतिपादन

करते है जिसे अपने सदकर्मो से ही प्राप्त किया जा सकता है न कि किसी कर्मकांड और

भाग्य-भगवान से। डॉ अंबेडकर एक ऐसे धम्म का मार्ग ग्रहण करते है जो भारतीय दर्शन

और परंपरा से उत्पन्न था।  धम्म मुक्तिकामना है, विस्तृत, वैश्विक, प्रगतिशील,

परिवर्तनवादी और

समावेशी है पर वह  अन्य धर्मो (मजहबों-पंथो)  से रूप, रंग और सार में नितान्त भिन्न

है। इसमें जगत ही

सत्य है, ब्रहम मिथ्या। यह जीवन केन्द्रित है, मृत्यु केन्द्रित नहीं। यह सकारात्मक है, नकारात्मक नहीं यह जीवन की अनन्त चुनौतियों को स्वीकार करने

वाला है, पलायनवादी नहीं। आश्चर्य है कि डा0 अम्बेडकर गाँधी की तरह ही धर्म को

राजनीति से अलग नहीं करना चाहते हैं वरन् संसार को एक धर्म राज्य बनाना चाहते हैं। पर उनके धर्म में सत्ता किसी दैवीय शक्ति के

हाथ में न होकर मनुष्य के हाथों में हैं जो बुद्धि, विवेक, तर्क, ज्ञान का प्रयोग करके मानव कल्याण के

अनुसार चलेगी।

        डा0 अम्बेडकर का

धर्म एक ऐसा सिद्धान्त है, जिससे एक सुखी और न्यायोचित जीवन जीया जा सकता है। यह यह मनुष्य को भय, अंधविश्वास, घृणा और हीन

भावना से मुक्त करता है। इसके साथ ही धम्म न तो नया होता है और न ही पुराना। यह

सर्वदा तरोताजा है, जीवन्त है, उर्जा से भरा है, उम्मीदों, अभिलाषाओं और

विश्वासों से लबरेज है। इसमें किसी प्रकार का अवसाद नहीं, निराशा का कोई

भाव नहीं, किसी चीज के खोने

का कोई गम़ नहीं। इसमें सम्पूर्णता का बोध है और सापेक्षता का भाव है। इसमें प्रेम, लगाव, काम, प्रकृति के प्रति

सामीप्य का एहसास और स्वयं और दूसरे के प्रति एक निरन्तर प्रवाहमान चिन्ता का भाव

है। यह आपके अन्दर उत्सुकता और ज्ञान के प्रति अनुराग पैदा करता है। यह निरन्तर

जलने वाली उस ज्योति के समान

है जो इस जीवन के लक्ष्यों को खोजने में सहायक

होगी। यह जीवन को अर्थ देती है और सकारात्मक परिणामों की ओर ले जाती है। यही जीवन

को सपने के पंख देता है जिसके चलते आप इस अनन्त ब्रहमांड में उड़ सकते हैं।

        डा0 अम्बेडकर का

धम्म मनुष्य केन्द्रित है। यह जीवन का

वरण करता है पर मृत्यु को भी सरल और सहज पक्रिया मानता है। यहाँ मरने के बाद भी जीवन है। किन्तु यहाँ आत्मा का

प्रस्थान या विचरण नही है। जीवन पदार्थ के रूप में परिवर्तित होकर विभिन्न रूपों

और रंगों को ग्रहण करके इस कभी न खत्म होने वाले और लगातार विकसित होने वाले

ब्रहमांड का एक अभिन्न हिस्सा बन जाता है। जहाँ  मजहब-रिलीजन-पंथ  लगभग

एक अर्थ और भाव को लेकर चलते हैं, धम्म का अर्थ और भाव नितान्त भिन्न है। जहाँ उक्त तीनों (धर्म, मजहब, रिलीजन ) के लिए

यह यह एक पूर्ण, सर्वशक्तिमान, सर्वत्र, सर्वज्ञ और

शाश्वत अदृश्य सत्ता का प्रतीक है वहीं धम्म सिर्फ धारण करने की चीज है जिसमें इस

प्रकार की कोई अदृश्य सत्ता

उपस्थित नहीं है। जहाँ धर्म या मजहब में आत्मा, रूह या सोल

उपस्थित है वहीं धम्म में ऐसी किसी काल्पनिक धारणा

के लिए कोई स्थान नहीं है। मजहब-रिलीजन के लिए दो

दुनिया का अस्तित्व है, जिसमें मनुष्य एक अदृश्य, अनजान, अगम्य दुनिया से आता है या भेजा जाता है और अपने कर्मों के लेखा-जोखा के साथ मृत्यु को आत्मसात करता है और अपने कर्मो के अनुसार ही दूसरी दुनिया अर्थात स्वर्ग या नर्क जाने के लिए प्रतीक्षा करता है।

        डा0 अम्बेडकर यह

स्पष्ट करते है कि बुद्ध का धम्म इहलौकिक है।  डा0 अम्बेडकर के

बारे में भी यही कहा जा सकता है

कि उनके द्वारा जिस प्रकार से धम्म की व्याख्या की गयी है उसमें उनकी मौलिकता है।

वह तार्किक, विवेकसंगत, वैज्ञानिक-आध्यात्मिक

चेतना से लैश है और एक एक शब्द में मानव मुक्ति और कल्याण भरा पड़ा है। वह जन्म से

अधिक कर्म पर बल देते हैं। डा0 अम्बेडकर ने बुद्ध

और धम्म  में स्पष्ट किया है कि बुद्ध ने अपने धर्म में स्वयं के लिए कोई भी स्थान नहीं रखा। उसी तरह डा0 अम्बेडकर ने

अपने समूचे चिन्तन में अपने लिए कोई भी स्थान नहीं रखा है। इस अर्थ में वे सही मायने में एक बोद्धिसत्व थे। डॉ॰ आंबेडकर की धम्म की धारणा इस वैश्विक संकट मे उत्पन्न

हो रहे जीवन से मोहभंग, उसके  प्रति

निस्ससारता  और विच्छिन्नता, अवसाद, आशंका और भय  से मुक्ति दिलाएगा। धम्म बताता है कि प्रकृति

के साथ चलना और कदमताल मिलना ही धर्म है और जबतक हमारा सुर, ताल, लय और तारतम्य उसके साथ

बना रहेगा जीवन निर्बाध और निर्भीक चलता रहेगा।

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