चुनाव २०१९ : वंशवाद के अंत की निरर्थक बहस- जरा हटके जरा बचके ये भारत है मेरी जान 

Update: 2019-05-28 03:24 GMT


भारत के हाल के चुनाव में नरेन्द्र मोदी की सुनामी में बड़े –बड़े पार्टियों के नेता और उनके वंशजो का बुरा हाल हुआ | जहाँ एक ओर उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव थे, जिन्हें न सिर्फ उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का दावेदार माना जा रहा था बल्कि उनके समर्थकों ने उन्हें प्रधानमंत्री का भी दावेदार बना दिया था | पर इस बार के चुनाव में उनके जाति का गढ़ माने जाने वाली सीट से एक पहली बार चुनाव लड़ने वाले अभिनेता ने पसीना छुड़ा दिया | एक समय ऐसा लग रहा था कि वो शायद हार जाए पर पूर्वजो का काम और मुख्यमंत्री के रूप में अच्छी छवि ने उन्हें बड़े उलट फेर से बचा लिया | पर नेता जी चैन की सांस न लीजिये अगर आप ने आजमगढ़ के विकास के लिए अगले पांच वर्षो में कुछ न किया तो आपका हाल भी अमेठी के राहुल गाँधी जैसा ही होगा |

इस चुनाव ने जिन दो

लोगो का सबसे बुरा हाल किया उनमे से एक अखिलेश यादव है और दुसरे राहुल गाँधी |

अखिलेश को सत्ता का अनुभव भी मिला और अच्छी छवि के साथ वो चुनाव में उतरे थे | पर

क्या कारण था की वो अपनी छवि और कार्य के बावजूद हार गए | इसके कारणों के लिए उन

सामाजिक समीकरणों  को देखने की जरूरत है

जहाँ इनकी नजर नहीं पहुच पायी और भारतीय जनता पार्टी ने उसमे सेंध लगा दिया |

गठबंधन या गले पड़ने वाला बंधन : अखिलेश यादव ने अपने बड़ो की बात न मान कर और चाचा के खिलाफ सख्त निर्णय लेकर इस बात को दिखाया की वो अपनों के खिलाफ भी सख्त निर्णय ले सकते है | पर उनका ये निर्णय संगठनात्मक रूप से एक गलत निर्णय था | बिना अपने वर्चस्व को स्थापित किए जल्दी में लिया गया निर्णय उन्हें लोकसभा में अपनी पत्नी और भाइयो की सीट गवां देने के रूप में मिला | शिवपाल यादव ने एक मंझे हुए खिलाडी की तरह न बनब न बने देब की कहावत को चरित्रार्थ करते हुए उन्हें यादव जाति के एक बड़े वोट बैंक से महरूम कर दिया | शिवपाल ने भाजपा से दुरी बनाकर कुछ हद तक मुश्लिम मतदाताओ को भी अनिर्णय की स्थिति में पंहुचा दिया जिसके कारण अखिलेश को वो वोट भी न मिल सका |

दूसरी ओर मुलायम सिंह के बयान ने जिसे विरोधी दलों ने खासकर भाजपा ने पकड़ कर सोशल मीडिया पर चला दिया जो अखिलेश की चुनावी नाव में बड़ा छेद कर गया | वैसे मुलायम की बात सोलह आने सही थी की चुनाव शुरू होने के पहले ही हम आधी लड़ाई हार गए | सपा के बसपा के साथ गठबंधन ने उन सीटो पर आंतिरिक विरोध पैदा कर दिया जहाँ लोग अपनी सीटो से चुनाव लड़ने के लिए आश्वस्त थे | घर का भेदी लंका ढाए कहावत यहाँ पूरी तरह मुफीद बैठती है | उन अदृश्य विरोधियों को अखिलेश पहचान ही न पाए | उन्होंने भी मन ही मन सपा में रहते हुए अपने अध्यक्ष को ही सबक सिखाने का निर्णय ले लिया और सिखा भी दिया |

मायावती को संजीवनी

और अखिलेश के लिए वॉटरलू बने इस

चुनाव के कुछ दिलचस्प पहलू पर गौर फरमाएं : मायावती को २०१४ के चुनाव में नरेन्द्र

मोदी ने खाता खोलने लायक भी न छोड़ा | राजनीतिक रूप से सिर्फ जात पर निर्भर रहने

वाली इस पार्टी को सबसे ज्यादा सहारे की जरूरत थी | पर जो सहारा देता है उसे याद

रखना था की कई बार पानी में तैरने वाला ही डूब जाता है अगर जिसे वो बचा रहा हो वो

उसपर ही लेट जाये |  यही हाल सपा का हुआ |

बसपा की नाव से वैतरणी पार करने का ख्वाब देखने वाली सपा ये देख ही नहीं पायी की

इस नाव में जरूरत से ज्याद छेद थे | इतना ही नहीं अपनी अच्छी भली नाव को छोड़कर

दुसरे की टूटी नाव में बैठने के लिए अखिलेश यादव इतने उतावले वो गए की उन्होंने

गठबंधन में अपनी भूमिका दूसरी पंक्ति के नेता के रूप में खुद ही कर ली |

आज – कल के  चुनाव में सोशल मीडिया के कारण विसुअल अपनी पूरी भूमिका निभाते है | अखिलेश यादव ये भूल कर बैठे | उन्होंने हर अखबार में जा रही ख़बरों और चित्रों पर गौर ही नहीं किया | अगर कर पाते तो ये गति न होती | मायावती के साथ हो रही रैली में हर ओर नीला रंग ये बताने के लिए पर्याप्त था की गठबंधन में कौन प्रमुख है | इन चित्रों ने अभी उतना नुक्सान पहुचाया ही नहीं की अखिलेश ने अपनी पुरानी नीति से हटते हुए लगभग ये कह दिया की गठबंधन के सीटो की संख्या अच्छी होने पर वे मायावती को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहेंगे | चुनाव के अंत आते –आते मायावती के द्वारा भी अपनी इच्छा का प्रकटीकरण, ने रही सही कसर भी पूरी कर दी | अखिलेश यादव का जो परंपरागत वोट बैंक था वो सालों से मुलायम सिंह यादव को भारत का प्रधानमंत्री देखना चाहता था वो पूरी तरह निराश हो गया | अब अखिलेश को वोट देना उनके लिए मायावती को प्रधानमंत्री बनाने का जरिया लगने लगा |

युवा बनाम बुजुर्ग नीति का फेल हो जाना भी अखिलेश यादव के लिए सबक के रूप में सामने आएगा | अपनी युवा फ़ौज जो ज्यादातर बड़ी –बड़ी गाड़ी में घुमने और रंगबाजी के लिए जानी जाती है उसपर ज्यादा भरोसा एक अच्छे नेता को ले डूबा | भारत में अच्छी छवि के नेता की कमी हर आम भारतीय महसूस करता है और उस दौर में एक भले नेता का पतन देश के लिए ठीक नहीं है | पर नेता वही होता है जो नब्ज पकड़ता है | अखिलेश इस बात के लिए जाने जाते है की वो सौम्य स्वाभाव के और बड़ो का सम्मान करने वाले व्यक्ति है | उनकी ये छवि विरोधियों को भी उनके खिलाफ किसी भी तरह का प्रचार का हथियार नहीं दे पाती थी | इस चुनाव में उन्होंने खुद ही अपनी छवि एक ऐसे व्यक्ति की बना ली जिसे अपने पिता और चाचा की परवाह नहीं है | समाज उनसे कुछ अपेक्षा नहीं रखता जिनकी छवि पहले से ही ख़राब है पर उन लोगो से जरूर अपेक्षा रखता है जो समाज में एक नए तरह का विमर्श पैदा कर सकते है | पर अखिलेश यादव की इस चुनाव में रणनीति जनता के समझ से परे रही |

वर्तमान मुख्यमंत्री

योगी आदित्यनाथ को पराजित करना आसन काम नहीं था | वो एक ऐसे परंपरा से आये व्यक्ति

ही जिन्होंने समाज में व्यवहार के उच्च मापदंड स्थापित किया है | जनता उन्हें या

मोदी को चोर कहने पर अंदर ही अंदर तिलमिला जा रही थी और उन लोगो को सबक सिखाने की

ठान ली थी जिन्होंने उनके जननायको को चोर कहा था | भारत के प्रधानमंत्री और

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के बारे में अखिलेश से ज्यादा तो पाकिस्तानी मीडिया को

पता है जो इस बात की प्रशंसा करता है की भारत का प्रधानमंत्री ये कहता है की मै तो

प्रधान सेवक हू और जब मौका मिलेगा अपनी झोली समेत चल दूंगा |

उन्हें पता ही नहीं

चला की भारत में एक कहावत है न आगे नाथ न पीछे पगहा -  अर्थात ये दोनों संत समान है इन्हों ने न तो

अपने परिवार न रिश्तेदार के लिए कोई धन इक्कठा किया है | सारी दुनिया देख रही है

की नरेन्द्र मोदी और योगी आदित्यनाथ को पैसे की कोई जरूरत नहीं है इसलिए वो एक

स्वच्छ छवि के नेता के रूप में जनता के बीच पैठ बना चुके है | हर बार चौकीदार चोर

है का सूत्रवाक्य जनता को और इनकी ओर ले जा रहा था | ये जितना चिल्लाते जनता उतान

रुदाली विलाप मानती थी | अंत में आया निर्णय भी यही बता रहा है की राजनीति में वो

समय आ गया जब सही को सही और गलत को गलत कहा जाएगा | अच्छी छवि के नेता को गलत कहने

का खामियाजा आज अखिलेश और राहुल भुगत रहे है |

वंशवाद बनाम संतवाद

:   संतो के खिलाफ बुरी भाषा का इस्तेमाल वंशवाद के

दिग्गजों को भारी पड़ गया पर भारतीय राजनीति में वंशवाद ख़त्म हो जायेगा इसपर मुझे

संदेह है | जिस देश में डॉक्टर का बेटा डॉक्टर और एक्टर का बेटा एक्टर बनने का

नैसर्गिक अधिकार रखता हो वहा राजनीति में इसे ख़त्म मानना एक फिजूल बहस है | ये

चुनाव संतो बनाम वंशजो के बीच हो गया जहाँ संतो ने बाजी मार ली पर हर पार्टी में

वंश बढ़ाने की परंपरा पुष्ट हो गयी है | मोदी और योगी को छोड़ दे तो क्या भारतीय

जनता पार्टी वंश परंपरा में विश्वास नहीं रखती | आँध्रप्रदेश में जगन की जीत क्या

वंश वाद की जीत नहीं है | उन्होंने कौन सी जनता सेवा में मैडल लिया है | उनके पिता

बड़े नेता थे जनता ने उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया | कल को जनता का मन होगा तो

राहुल प्रधानमंत्री और अखिलेश पुनः मुख्यमंत्री बन जायेंगे |

मीडिया में लगातार आर्टिकल पढ़ रहा हू जहाँ लोगो ने वंशवाद को ख़ारिज कर दिया लेकिन उनके आँखों में शायद मायोपिया हो गया है जो वो लोग भारतीय जन मन में घुले वंश परम्परा को नही पहचान पा रहे है \ आज भले ही वंशवाद के दो बड़े प्रतीक राहुल गाँधी और अखिलेश यादव हाशिये पर दिखाई दे रहे है वो समय दूर नहीं जब ये फिर से राष्ट्रीय राजनीति का मुख्य चेहरा हो जायेंगे |

चलते –चलते सिर्फ

इतना ही मीडिया और राजनीति के पंडितो को कहना चाहूँगा जो वंशवाद को ख़त्म बता रहे

है -

जरा हटके जरा बचके

ये भारत है मेरी जान

Similar News