पर्यावरण पर सोशल मीडिया पर चीखते लोग पर जमीन पर नदारत जनता , सिर्फ बातें ज्यादा काम कम
राघवेंद्र सिंह : संवाददाता बचपन एक्सप्रेस 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस बीत गया। सरकार द्वारा कई सरकारी योजनाएं व विज्ञापनों के जरिए सोशल मीडिया पर ढेर...
राघवेंद्र सिंह : संवाददाता बचपन एक्सप्रेस 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस बीत गया। सरकार द्वारा कई सरकारी योजनाएं व विज्ञापनों के जरिए सोशल मीडिया पर ढेर...
राघवेंद्र सिंह : संवाददाता बचपन एक्सप्रेस
5 जून विश्व पर्यावरण दिवस बीत गया। सरकार द्वारा कई सरकारी योजनाएं व विज्ञापनों के जरिए सोशल मीडिया पर ढेर सारी शुभकामनाएं दी जाएंगी ।
कुछ लोग पर्यावरण को लेकर बड़ी -बड़ी बाते व वादे किए होंगे। जैसे जैसे दिन ढलने को होगा लोगों के उत्साह भी खत्म होता दिख रहा होगा। आज के दिन जिस प्रकार से सोशल मीडिया पर जागरूकता की बाते लोग करते है और अपने को पर्यावरण का रक्षक मानते है वैसा कभी नहीं होता था |
सिर्फ बातें ही होती दिखी काम जमींन पर दिखाई नहीं दिया |
अगर इन सोशल मीडिया के लोगो से जानने की कोशिश की जाए कि उन्होंने अंतिम बार कब पर्यावरण के किसी मुद्दे पर प्रभावित रूप से अपनी आवाज को बुलंद किया था?
कितनी बार वे समाज या सरकार से पर्यावरण पर सवाल करते रहे ? आज सोशल मीडिया पर कोई भी ऐसी एक भी जगह नहीं, जहां आपको पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़ी तस्वीरें देखने को ना मिले।
इसके अगले दिन से ही लोग पुनः अपने दिनचर्या में शामिल हो जाते हैं। इस बात को भूल जाते कि हमे पेड़ों की रक्षा करनी है, प्लास्टिक का उपयोग कम करना हैं इत्यादि।
महात्म गांधी ने कूड़े–कचरे की जो परिभाषा दी है, वह काफी सरल भी हैं और अनोखी भी। वो कहते हैं ‘कोई चीज अगर अपनी जगह पर नहीं हैं, तो वह कूड़ा हैं।’ बस एक वाक्य की ही परिभाषा हैं।
इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है। अगर भोजन थाली में है तो सही अन्यथा थाली के नीचे पड़ा है तो कूड़ा हैं।
जिस तरह आए दिन वनों में आग लगने की घटनाएं बढ़ रही हैं, इसको कोई संज्ञान नहीं ले रहा। आखिर क्यों?
क्या जंगल ऐसे धू– धू कर जलते रहे और तन्त्र कुंभकरण की नीद में सोता रहे। आगजानी से जंगल तेजी से बर्बाद हो रहे हैं,लेकिन इससे किसी को कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ रहे। जो इस आग से बच जाए उनकी अंधा– धुंध कटाई हो रही,कुछ विकास के लिए और कुछ निजी स्वार्थ के लिए। बस इसके लिए टीमें तो गठित हो जाती है,और फाइलें ऑफिस की शोभा बढ़ाने का काम कर रही।
1500 करोड़ पेड़ काटे जाते हैं हर साल, जबकि इसकी इसके एवज में मात्र 500 करोड़ ही पेड़ लगाए जा रहे हैं। इस तरह 1.3 अरब की आबादी को छाया देने के लिए भारत में केवल 35 अरब ही पेड़ हैं।
पॉलिथिन बैग पर प्रतिबंध भी एक ऐसा ही मामला है। बेशक इस पर सरकारी बैन हैं,पर हर वस्तु प्लास्टिक या पॉलिथिन बैग में ही मिलती हैं। अगर इसपर जुर्माना हैं,तो खाद्य पदार्थों की पैकिंग से लेकर तमाम प्रकार के चीजे प्लास्टिक में क्यों? और ऐसा नहीं तो है यदा कदा ही सही दुकानों पर छापेमारी कर कानूनी कार्रवाई क्यों?
उत्तराखंड की बात करें, तो ऑल वेदर रोड के बहाने विकास और विनाश का ऐसा अभूतपूर्व मेल हुआ हैं जो शायद ही आपको किसी अन्य पहाड़ी राज्यों में देखने को मिलता होगा। गढ़वाल में नेशनल हाईवे 58 पर यदि आप जायेंगें तो आपको बड़ी बड़ी मशीनें सड़क निर्माण के कार्य में या फिर रेल निर्माण कार्य में आपको दिखेंगी। ऐसा लगता है कि पहाड़ों में शहर बसाने की कोशिश चल रही हैं।
ऐसा तब हो रहा जब उत्तराखंड भूकंप के उस अतिसंवेदनशील जोन में आता हैं, जिससे सबसे ज्यादा तबाही की आशंका जताई जाती हैं।
डॉ रवि चोपड़ा के नेतृत्व में बनी कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि अतिसंवेदनशील पहाड़ी इलाकों में 5.5 मीटर से अधिक चौड़ी सड़क नहीं बनाई जानी चाहिए। जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी सहमति जताई थी।
बढ़ता तापमान, बाढ़,तूफान, कम होते जंगल,वायु प्रदूषण, पिघलता ग्लेशियर , पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन का संकट उम्मीद से कही ज्यादा बढ़ता दिखाई दे रहा हैं। यही बदलाव लोगों में चिंता का विषय बना हुआ हैं।