भारतीय फिल्म जगत -” बदलता दौर, नई पहचान "

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भारतीय फिल्म जगत -” बदलता दौर, नई पहचान

बचपन एक्सप्रेस संवाददाता अजय कुमार ,जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग बुंदेलखंड विश्वविद्यालय----

भारतीय फ़िल्म जगत का इतिहास एक रोमांचक कहानी है। इसकी शुरुआत 1913 में बनाई गई फ़िल्म "राजा हरिश्चंद्र" के साथ हुई। 1931 में फ़िल्म "आलम आरा" के ज़रिए टॉकी फ़िल्म का आगमन हुआ और फ़िल्मी तकनीकों में बदलाव आए।बॉलीवुड कई वर्षों से भारतीय फिल्म उद्योग की पहचान बना हुआ है। बॉलीवुड "शोले", "मुग़ल-ए-आज़म", " 3 इडियट्स" जैसी कई सदाबहार फ़िल्मों का निर्माण कर चुका है। "अमिताभ बच्चन", " देव आनंद ", " शाह रुख खान " उन कुछ चुनिंदा कलाकारों के नाम है जिनको दर्शकों द्वारा दिये गए प्रेम और प्रोत्साहन के चलते कामयाबी की नायाब उचाइयाँ छूने का मौका मिला।

बॉलीवुड की सफलता के साथ बीते कुछ वर्षों में एक बदलाव नज़र आया है। भारतीय फिल्म उद्योग का मतलब बॉलीवुड, बॉलीवुड की इस छवि को अब क्षेत्रीय और खासकर दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग बदल रहा है। दर्शकों की बदलती पसंद और दक्षिण भारतीय फिल्मों की बड़ती लोकप्रियता के पीछे बुनियादी मगर कुछ ज़रूरी वजह हैं जिनको कहीं न कहीं बॉलीवुड समझ पाने में नकाम रहा है। फिल्मों की कहानी में नयापन न होना एक बड़ी वजह बनती जा रही है जिसके कारण दर्शकों का रुझान बॉलीवुड से दूर जा रहा है। किसी भी फिल्म की लोकप्रियता और सफलता के लिए ज़रूरी है की लोगों को फिल्म के पात्रों से अपनापन और जुड़ाव महसूस हो। बीते कुछ वक़्त से ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे बॉलीवुड कुछ चुनिंदा श्रेणी के लोगों के लिए ही फिल्म निर्माण कर रहा है । चाहे वह 'पुष्पा: द राइज' हो या 'आरआरआर' या 'केजीएफ: चैप्टर 2' या 'कांतारा' - सभी को पूरे भारत के दर्शकों ने पसंद किया है।ऑस्कर और गोल्डन ग्लोब्स जैसे लोकप्रिय अवार्ड शो में अपनी छाप छोड़ने के साथ पश्चिमी दुनिया में 'आरआरआर' की सफलता को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि कुछ ऐसा है जो दक्षिणी फिल्म निर्माता सही कर रहे हैं, जिसे बॉलीवुड दोहराने में चूँक रहा है।

फिल्म उद्योग के इस बदलाव को लेकर जानकारों के अपने अलग अलग विचार हैं।प्लैनेट मराठी के संस्थापक, अक्षय बर्दापुरकर, इसे व्यावसायिक दृष्टिकोण से जोड़ते हैं। वह कहते हैं, ''क्षेत्रीय फिल्मों की सफलता का कारण है क्षेत्रीय फिल्म उद्योग द्वारा स्वयं अपनी क्षमता को पहचानना और अपने मूल्य पर बड़ा दांव लगाना।क्षेत्रीय फिल्में न केवल गुणवत्तापूर्ण प्रतिभा और सामग्री पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं, बल्कि वह उत्पादन और प्रचार दोनों में आकार और पैमाने पर भी ध्यान केंद्रित कर रही हैं। यहीं पर सफलता का कारक निहित है।"

सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर अपनी फिल्मों के लिए मशहूर लेखक और निर्देशक संजीव जयसवाल कहते हैं, ''बॉलीवुड की मूल समस्या यह है कि आजकल कोई फिल्में नहीं बना रहा है। वह सभी प्रोजेक्ट बना रहे हैं। आज बॉलीवुड फिल्में एक चीनी उत्पाद की तरह बन गई हैं - यह काम कर सकती है, यह काम नहीं कर सकती है। क्षेत्रीय फिल्मों के साथ जो हुआ है वह यह है कि उन्होंने खुद को व्यवस्थित रूप से और एक पैटर्न के साथ विकसित किया है। दक्षिण की फिल्में अपनी आंतरिक कहानी पर काम करती हैं। वे स्थानीय प्रतिभाओं को चुनते हैं, स्थानीय अनुभव लाते हैं और उस स्थानीय रवैये को अपनी कहानी में शामिल करते हैं। बॉलीवुड पूरी तरह से रीमेक पर निर्भर है चाहे वह विदेशी फिल्में हों या दक्षिण या कोई अन्य क्षेत्रीय फिल्में। फिल्म निर्माण की रचनात्मकता पूरी तरह खत्म हो गई है। लेकिन यह छोटे क्षेत्रीय फिल्म उद्योगों में है, और इसीलिए वे अच्छा काम कर रहे हैं।

बदलते दौर और अपनी पहचान बनाने की इस दौड़ में ऐसा भी नही है की बॉलीवुड कहीं पीछे छुट गया है, "पठान" और "तू झूठी मैं मक्कार" की हालिया सफलता निश्चित रूप से हिंदी फिल्म उद्योग के लिए एक बड़ी आशा की किरण है। देखने वाली बात यह रहेगी की क्या आने वाली अन्य बॉलीवुड फिल्में भी इसी प्रकार सफल हो सकेंगी।

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