डाकिया डाक लाया, फिर कभी नहीं आया
'शर्माये गर देखे कश्मीर की वादी भी कुछ और ही बात है, इन झील सी नीली आखों में। ऐसे ही शायराना अंदाज में कभी प्रेम पत्र लिखे जाते थे जब अपने प्यार की...
'शर्माये गर देखे कश्मीर की वादी भी कुछ और ही बात है, इन झील सी नीली आखों में। ऐसे ही शायराना अंदाज में कभी प्रेम पत्र लिखे जाते थे जब अपने प्यार की...
'शर्माये गर देखे कश्मीर की वादी भी कुछ और ही बात है, इन झील सी नीली आखों में। ऐसे ही शायराना अंदाज में कभी प्रेम पत्र लिखे जाते थे जब अपने प्यार की भावनाओं को कागज पर उड़ेल दिया जाता था लेकिन जब से मोबाइल युग शुरू हुआ, प्रेम की इन भावनाओं पर भी विराम लग गया। पहले बेताबी से डाकिये का इंतजार किया जाता था लेकिन अब ये सब गुजरे जमाने की बत हो गयी। अब पत्र लेखन खत्म हो चुका है जिसकी जगह मोबाइल ने ले ली है लेकिन इसमें प्रेम भावनाओं तथा मानवीय संवेदनाओं का अभाव साफ देखने को मिलता है। चिट्ठी-पत्रों का अपना एक अनोखा ही अंदाज था। सरहदों पर तैनात जवाब भी परिवार से आने वाली चिट्ठी पाकर खुशियों से भर जाते थे।
प्रेमी-प्रेमिका भी एक दूसरे की चिट्ठी को सहेज कर रखते थे भले ही माता-पिता का डर भी सता रहा हो। प्यार कह इंतहा तो अपने खून से लिखे पत्रों में भी देखने व सुनने को मिलती थी, लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होता। मोबाइल से जब चाहें तब बात कर लो। मोबाइल आज की सबसे बड़ी जरूरत भी बन चुका है जो कई मायने में कारगर भी है और नुकसानदायक भी। आज कल पढ़ाई ऑनलाईन होने के कारण बच्चों के हाथों में 24 घंटे मोबाइल रहता है जिस कारण कई बच्चों की आंखों पर नजर का चश्मा चढ़ चुका है। मोबाइल की मांग आधुनिक युग में सबसे अधिक बढ़ चुकी है। शायद ही कोई परिवार ऐसा हो जहां मोबाइल की उपलब्धता न हो। लोग अपने मोबाइल में अनलिमिटेड कॉल की सुविधा लेते हैं। यानि घण्टों मोबाइल पर बतियाते हुए अपनी एनर्जी तो वेस्ट करो ही साथ ही दूसरे के कीमती समय पर भी सेंध लगा दो। युवा पीढ़ी मोबाइल पर पूरी तरह आधारित हो चुकी है। अपने प्रेम का इजहार भी अब मोबाइल द्वारा ही किया जाता है। यदि रॉग नम्बर भी लग या तो पिटने से तो बचा ही जा सकता है।
पहले प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान बहुत मुश्किल काम था। डर सताता था कि कोई देख तो नहीं रहा लेकिन आंखें बहुत कुछ बोल जाती थीं जिससे प्रेम पत्र देने की हिम्मत जुटती थी। दूर दराज तो डाक द्वारा ही पत्र भेजा जाता था जो डाकिया लेकर जाता था। चाहे रास्ता कितना भी संकरा हो या पहाड़ी, बरसात हो सर्द मौसम, अपने कार्य को यथासंभव अंजाम दिया जाता था। पत्र पहुंचाने का माध्यम भी साईकिल होती थी। कई किलोमीटर का सफर साईकिल से करने के उपरान्त पहाडी स्थलों की चढाई पर पैदल ही जाना पड़ता था। खाकी वर्दी और सिर पर टोपी अब देखने को भी नहीं मिलती। सन 1949 में बनी फिल्म पतंगा में शमशाद बेगम द्वारा गाया मशहूर गीत 'मेरे पितया गये रंगून, वहां से किया है टेलीफून, तुम्हारी याद सताती है। ने संकेत दे दिये थे कि आने वाला समय मोबाइल फोन का ही होगा और ऐसा ही अब देखने को मिल रहा है जबकि डाकिये सिर्फ सुनहरी यादें बनकर रह गये हैं।