क्रमांक:-(४३) खजुराहो कलातीर्थ, कलाकार का प्रेम :- उषा सक्सेना

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क्रमांक:-(४३) खजुराहो कलातीर्थ, कलाकार का प्रेम :- उषा सक्सेना
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अत्यधिक थकान के कारण राजकुमारी मोहिनी प्रगाढ़ निद्रा में सोई रहीं ।आज उन्हेन कोई स्वप्न भी नही आये ।निद्रा पूर्णहोने से तन की सारी थकान उतर गई ।मन में अपने काम के प्रति उमंग भी थी ।वह भी जब चित्रलेखा जैसी ममतालुटाने वाली गुरू कार्य के समय साथ हो तब डर किसका । आज मोहिनी के मन में नकोई भय था और न दुश्चिंता वह एक राजकुमारी होकर भी अपने कार्य के प्रति पूर्ण समर्पित थी ।

प्रात: उठ कर दैनिक नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर स्नान करके अपनी परिचारिकाओं से पहले ही तैयार होगई । सभी आश्च्रय से चकित होरहे थे आज मोहिनी के चेहरे की चमक को देखकर । एक अलग ही अलौकिक तेज से उसका चेहरा दमक रहा था ।

महारानी चंद्रावली उसे प्रसन्न देखकर मन ही मन चिंतित होरहींथी। कैसे कहें अपनी जवान बेटी से उसकी चिंता को । आज उन्होंने मोज्ञिनी की पसंद के अनेक व्यंजन बनाये थे जिससे वह जाने कै पहले अच्छे से भर पेट नाश्ता करके जाये ।क्या पता कब लौटे कितना समय लगे ।

आज मोहिनी के साथ जाने के लिये उन्होंने राज कुमार धंग को कहा ।साथ में मधूलिका सुलेखा और अनुराधा थीं ।राजकुमार अपनी एक सैनिक टुकड़ी को साथ लेकर चला ।उसे युद्ध का अभ्यास भी तो करना था ।जिससे वह भी अपने पिता के समान एक सशक्त युद्ध कला में निपुण वीर योद।धा बन सके ।अपने समय को वह इस समय बर्बाद भी नही करना चाहता था ।वहां घुड़ सवारी और युद्ध के लिये अच्छा खुला मैदान होने से अभ्यास के लिये अच्छा था ।बहिन मोहिनी की सुरक्षा की जिम्मेवारी का निर्वहन करते हुये युद्ध अभ्यास ।

मोहिनी भी अपने भाई धंग को साथ पाकर प्रसन्न थी ।मन की सारी दुश्चिंताओं से मुक्त ।आखिर डर किसका और क्यों डरे और किससे ।डर तो अपने मन का है वही ऊहापोह में फंसा संकल्प विकल्प के बीच अच्छे बुरे की विवेचना करता दुश्चिंताओं में घेर लेता है ।जो है ही नही उससे क्या डरना ।

अपने मन के भय को निकाल कर आज मोहिनी भय मुक्त हो पाई थी ।उसे याद आया कापालिक जी ने कितना सही कहते उसे समझाया था - "व्यक्ति को अपने लक्ष्य को पाने के लिये सबसे पहले अपने मन को कार्य के प्रति संकल्पित करो ।

जब तक तुम्हारा मन अपने लक्ष्य के प्रति संकल्पित नही होगा तुम्हारे मन में उसके प्रति कई वैकल्पिक विचार आते रहेंगे और तुम उन विचारों से भयभीत हो कर आगे नही बढ़ पाओगी । तुम्हारे मन का भय ही तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रू है जो तुम्हें लक्ष्य तक नही पहुंचने देगा ।अपने मन की शक्ति आत्म विश्वास को जागृत करो तभी तुम निर्भीक हो सकोगी ।

कितना सत्य था उनकी वाणी में ।मुझे बचाने और भय मुक्त करतेहुये कार्य के प्रति प्रेरणा देने में । मधूलिका ने मोहिनी की बिखरी हुई तर्कजाल सी अलकों को समेट कर गूंथने के पश्चात उसमें सुंदर सी ताजी वबेला की कलियों की वेणी बांध आंख में सुरमा आंजते हुये कहा आज तो आप गज़ब ढा रही है राजकुमारी जी ।देखना कहीं वह बिचारा राजशिल्पी आपके इन तीक्ष्ण बाणों से घायल न होजाये ।मुझे तौ सड़ी चिंता लग रही है उस बेचारे की ।

अधरों पर मुस्कान बिखेरती हुई मोहिनी बस "धत्त् "कहकर रह गई ।तभी धंग ने चलने की सूचना दी राजकुमारी आपनी शिविका में सुलेखा और मधूलिका के साथ बैठ कर चल दी कार्य शाला की ओर ।वहां पर चित्रलेखा अपनी शिष्याओं के साथ पहले ही पधार चुकीं थी और विश्वजित मोहिनी के आने की प्रतीक्षा कर रहाथा बड़ी बैचेनी से इधर उधर टहलते हुये अपने आपको व्यस्त रखने का दिखावा करते हुये

अपने साथियों को आदेश देता ।चित्रांकन की सारी तैयारी शिला प्रस्तरों के पास हो चुकी थी ।आज सभी श्रमिक और शिल्प मूर्तिकार अपने अपने कार्य में व्यस्त थे ।

राजकुमार धंग के साथ राजकुमारी मोहिनी की शिविका आती देख सभी सम्मान में स्वागत करते हुये उनके उठ खड़े हुये ।आखिर वह राज्य के युवराज और भावी शासक थे ।

शेष फिर :-धन्यवाद ।

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