क्रमांक :-(४५) खजुराहो कलातीर्थ, कलाकार का प्रेम :-
राजकुमार धंग को सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ मैदान मे युद्धाभ्यास करते देख अचानक राजशिल्पी विश्वकर्मा के मस्तिष्क में विचार आया क्यों न युद्ध...
राजकुमार धंग को सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ मैदान मे युद्धाभ्यास करते देख अचानक राजशिल्पी विश्वकर्मा के मस्तिष्क में विचार आया क्यों न युद्ध...
राजकुमार धंग को सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ मैदान मे युद्धाभ्यास करते देख अचानक राजशिल्पी विश्वकर्मा के मस्तिष्क में विचार आया क्यों न युद्ध कला का भी कालिंजर विजय के प्रतीक केरूप में चित्रांकन करते हुये इसे भी अपनी प्रस्तर शिल्प कला में मूर्ति के रूप में उंकेर कर टंकण करें ।
इससे हमारे राजा की शूर वीरता का भी पता चलेगा और एक कला के रूप में इसका प्रदर्शन भी होगा सदा के लिये अमर हो जायेगा ।आने वाली पीढ़ियों को भी इसका ज्ञान होगा की हमारे पूर्वज किस प्रकार से युद्ध करते हुये विजय प्राप्त करते थे ।
युद्ध कला के साथ ही प्रयुक्त किये जा रहे अस्त्र शस्त्रों के संचालन का भी ज्ञान होगा । किस प्रकार से युद्ध का संचालन किया जाता है सेना के साथ वाहन और उनका युद्ध में प्रयोग यह सब महत्व पूर्ण है ।
हम रहें या नही हमारी यह युद्ध कला एक कला के रूप में सदा के लिये प्रतिबिंम्बित होकर अमर हो जायेगी । यह मन ही मन सोच कर वह राजकुमार के पास पहुंचे और उनसे अपने मन की बात कही ।राजकुमार को इसमें क्या आपत्ति होसकती थी बल्कि उन्हें प्रसन्नता ही हुई की इस प्रकार युद्व कला का प्रदर्शन करते एक योद्धा के रूप में उनकी छवि सदा के लिये प्रस्तर शिला पर अंकित होकर अमर हो जायेगी ।
खजुराहो के मंदिरों में उन्हें भी एक स्थान मिलेगा । राजकुमार की अनुमति पाकर विश्वकर्मा ने अपने साथी शिल्प मूर्तिकारों को बुला कर अपनी बात समझा कर कही सभी साथी तैयार हो गये अपनी अपनी प्रस्तर शिलाओं को उस चित्र को उंकेर कर टंकण करने के लिये छैनी हथौड़ी के साथ ।
युद्ध के निर्देशन के लिये अश्व की लगाम थाम कर सबसे पहले अश्वारोहण के लिये अश्वारोही को उस पर अपने अस्त्र शस्त्रों के साथ सवार होना था । इसके लिये उन्हें भी कुछ समय के लिये चित्रलिखित जैसा खड़ा रहना पड़ा इसी बीच अश्व बिदक गया । वह सामने से राजकुमार की परछाईं देख बिदक रहा था ।बाद में पीछे से जाकर उसके पृष्ठ भाग को सहलाते हुये तब कहीं दूसरी ओर से राजकुमार उस पर सवार हो पाये । सेना को दो भागों में बांट कर पक्ष एवं विपक्ष
सामने दूसरी ओर से शत्रू सेना के पैदल सैनिक फिर व्यूह रचना तलवारों से मार काट वाला दृश्य उपस्थित करना । कुछ सैनिकों को मारते हुये जमीन पर धराशायी करना यह सब अभिनीत करना था वह भी रुक रुक कर विश्वकर्मा जी के निर्देशानुसार ।
अपने मन से कुछ भी नही ।अपनी सृष्टी के रचयिता सृष्टि कर्ता विश्वकर्मा जी के निर्देश और आदेश पर ही सभी को कार्य करना था अनुशासन का पालन करते हुये । अब वह राजकुमार या अपनी सेनाटुकड़ी के सेनानायक नही वरन् एक अभिनेता थे ।
एक हाथ में नंगी तलवार तो दूसरी में घोड़े की लगाम थामें तलवार चलाना हाथ ऊपर उठा तो उठा नीचे गिरा तो तभी जब आदेश हुआ । पैदल सैनिकों को शत्रू के वार को ढाल पर झेलते हुये स्वयं वार करना ।तलवार बाजी के बाद बारी आई धनुर्विद्या और भाला बर्छी कै द्वारा युद्ध की उसमें भी सैनिकों की पैतरें बाजी दिखाते हुये युद्ध कला का प्रदर्शन। आज रथ और हाथी नही होने से उनका प्रदर्शन दूसरे दिन पर टाल दिया गया ।इसी सबके बीच मध्याह्न का सूरज ढलने लगा था ।
सभी दिन भर के इस श्रम साध्य युद्ध कला के प्रदर्शन से थक गये थे पर उन्हें आनंद भी आ रहा था । निरंतर युद्ध क्षेत्र में शत्रु को हरा कर विजय प्राप्त करना उद्देश्य सामने होता है तो समय का पता ही नही चलता ।
परंतु चित्र लिखित होकर एक ही मुद्रा में खड़े रहना वह भी जब तक चित्रांकन पूरा न हो कठिन और श्रम साध्य कार्य होते हुये भी एक लक्ष्य के लिये यह सब करना अनिवार्य था यहाॅं आप अपनी मर्जी के मालिक नही थे केवल कठ पुतली थे जिसकी डोर किसी और के हाथ में थी । विश्वकर्मा जी की अनुमति मिलते ही राजकुमार ने गहरा नि:श्वास लेते हुये चैन की सांस ली। ओह! यह सब कितना कठिन है कहते हुये ।
शेष फिर:- धन्यवाद़ ।ऊषा सक्सेना