तपस्या से पाप को पुण्य में बदलने के लिये ही कापालिक बना

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तपस्या से पाप को पुण्य में बदलने के लिये ही कापालिक बना

क्रमांक:-(६२) खजुराहो कलातीर्थ

कलाकार का प्रेम:- "कापालिक "

महाराज को शांत कर सिंहासन पर बिठाते हुए कापालिक ने कहा - "आपके लिये सत्य को जानना बहुत आवश्यक है ।जब तक आप सत्य नही जानेंगे उसके पीछे छिपे कारण को नही समझ पायेंगे ।इस संसार में कोई भी कार्य विना कारण के नही होता । हर कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है । माया हमको वहां तक पहुंचने नही देती और भ्रमजाल में उलझा भ्रमित मन उसी को देख पाता है जो वह हमें दिखाना चाहती है । उसके पीछे छिपे सत्य को नही वह रहस्य ही बना रहता है जिसे हम कभी जानहीनही पाते ।।हम सब इस संसार में यहां ऋणानुबंधन से बंधे अपना अपना कर्ज चुकाने ही तो आते हैं और हमारे कर्म ही हमको उससे मुक्त कराते हैं । इसीलिए यह कर्मभूमि है जहां पर अपने पिछले कर्मों के फल को भोगते हुयेही उनसे मुक्त होना होता है ।"

विश्वजित ने जो किया वह किसी की प्रेरणा से प्रेरित होकर ही किया है स्वेच्छा से नही । व्यक्ति के अचेतन मन की बात ही तो उसे कुछ करने के लिये प्रेरणा देती है । यह चुम्बकीय आकर्षण और विकर्षण यूं ही नही होता इसके पीछे भी कुछ न कुछ कारण अवश्य ही होते हैं । राजकुमारी और विश्वजित पुराने प्रेमी हैं इनकी प्रेम कथा अधूरी रह गई थी उसी की पूर्णता के लिये ही इनका पुनर्जन्म हुआ है ।आप इन्हें रोक नही सकते।

यह स्थान यदि आपके पूर्वज हेमावती और चंद्रदेव के पाप को अपने तप के माध्यम से पुण्य बदलने की तपस्थली है और इन मंदिरों का निर्माण उनका स्वप्न् जिसे आपने पूर्ण किया । वहीं पर एक और प्रेम कथा इसी करणावती (केन)नदी की धारा में प्रवाहित होकर बह कर आई है जो आज अपनी पूर्णता मांग रही ।कोई अपने प्रेय की प्रियता मे उसे श्रेष्ठ मानते हुये यूं ही नही खो जाता ।युग बीत जाते हैं उसे पूर्ण करने में और वह अतृप्त आत्मायें अपनी पूर्णता के लिये भटकती रहतीं हैं जन्म जन्मांतरों तक ।

आज मेरी एक हजार वर्ष की कठिन तपस्या का फल भी तो यही दोनों हैं ।

मैं कापालिक यूं ही नही बना राजकुमारी अपने पूर्व जन्म में गौड़ राजा की बेटी कर्णावती जिसे सब प्यार से केनिया कहते थे । जिनका पड़ोस के राजकुमार कुलिश से जो उनके पिता के बचपन के मित्र थे ।उन्होंने अपनी मित्रता के नाते बचपन में ही उनका विवाह तै कर दिया था । किंतु कुलिश के क्रूर और हिंस्त्रक स्वभाव के कारण ही वह राजकुमारी उसे न चाह कर अपने ही कबीले के सेनापति के बेटे हरिया से प्रेम करने लगीं । वह दोनों इसी केन नदी के किनारे बैठकर घंटों प्रेमालाप करते । राजकुमारी का मंगेतर होने से मुझे यह संबंध नागवार गुजरा और मैनें हरिया की अपने साथियों के साथ राजकुमारी के सामने ही उसकी हत्या कर दी जब राज कुमारी को अपने साथ ले जाना चाहा तो उसने यह कहते हुये की तू मेरे तन को ही भोग पायेगा पापी मन को नही मेरी ही तलवार मुझसे छीन कर अपने सीने में भौंक ली और लहूलुहान होकर मेरे ही मुंहपर घृणा से थूंकती हुई जमीन पर गिर पड़ी मै उन्हें मृत समझ कर छोडकर चला आया । उस समय

मेरा मन ग्लानि से भर गया था पश्चाताप केलिये मैं पलटा ।तभी घनघोर गर्जना के साथ बादल गरज कर बरसने लगे । राजकुमारी को होश आया और मैं कुछ समझता उसके पहले ही वह हरिया के शव को लेकर कर्णावती नदी में कूद गई ।मैं भी इन्हीं के पीछे नदी में कूद गया किंतु नही पा सका ।तब शिव जी की तपस्या मैनें

इसी नदी के किनारे प्रारम्भ कर दी अपने

पाप के प्रायश्चित के लिये और भटकता रहा

जन्म जन्मांतरों तक ।अपनी तपस्या से पाप को पुण्य में बदलने के लिये ही कापालिक बना तब कहीं इसी कर्णावती नदी जो केनिया अर्थात कन्या के बलिदान के कारण केन बनी इसी नदी ने मुझे एक बार फिर अपने पाप के प्रायश्चित का अवसर प्रदान किया ।यह हरिया तब भी भोला था और आज भी उतना ही भोला है । नदी में जब मैनें राजकुमारी को बचाया तब भी मेरे मन में पाप आया था उसी समय यह आगया और मुझे पाप से बचा लिया । दुबारा राजकुमारी के हाथ के स्पर्श ने मेरे दिल के तार झनझना दिये ।जब यह चित्रलेखा जी के साथ चित्रांकन कर रहाथा तो मैनें ही अपने विचारों की तरंगों से इसके मन को तरंगित कर दिया और यह बेचारा फिर मोह जाल में फंस कर राजकुमारी के चेहरे का चित्रलेखा के स्थान पर चित्रांकन कर बैठा ।

उस समय तन किसी और का किंतु मन! उसी मन से मैनें राजकुमारी को भोगा अपने विचारों में ।आज मै आपसे राजकुमारी को मांग रहा हूं वह मेरी वाग्दत्ता है जिसे आपको मुझे हर परिस्थिति में सौपना ही होगा । राजकुमारी यह सुनकर अचेत होने लगीं तभी कापालिक जी उन्हें गिरने से पहले ही संभाल कर पकड़ लेते हैं यह कहते हुये - "बस राजकुमारी जी इतनी जल्दी हार गईं आप ।आज तो आपका प्रेमी स्वयं। आपको मांग रहा जिसके लिये आपने इतनी लम्बी यात्रा की ।आज प्रायश्चित करने का मेरा दिन है मुझे वह सुअवसर प्रदान करिये "।

एक ओर महाराज यशोवर्मन का मनमुग्ध होकर कापालिक जी की कथा सुन रहा था ।दूसरीओर अविश्वासी मन विश्वास करने को तैयार नही । वह कापालिक की शक्ति और भक्ति दोनों से ही वह परिचित थे। अचानक उनका शासक मन जाग उठा और क्रोध के आवेश में आकर उन्होंने अपने सैनिकों को आदेश दिया कैद करलो इस धूर्त को ।यह सुनते ही कापालिक के शिष्यों ने जो हाथ में त्रिशूल लिये थे ललकारते हुये कापालिक के पास आकर उनकी रक्षा के लिये खड़े होगये खड़े होगये और सैनिक उनके भय से भयभीत । कापालिक ने अपने शिष्यों से कहाअरे तुम सब क्यों मेरी चिंता कर रहे आज तो मैं अपनी एक हजार वर्ष की तपसया को पूर

ण कर अपने पूर्व जन्म के पाप का प्रायश्चित करके ही रहूंगा ।बड़ी गहन तपस्या के पश्चात

स्वयं शिव जी ने मुझे यह दिन दिया है ।विश्वजित कब तक भोले बन खड़े यूं ही खड़े रहोगे ।आओ और अपने प्रेम को स्वीकार करो जिससे मैं भी इस कर्ज और तुम्हारी हत्या के पाप से मुक्त हो जाऊं । आज संसार की कोई भी शक्ति तुम्हें केनिया से मिलने से नही रोक सकती यह स्वयं केन नदी का वरदान है ।तभी तो उसस्थान से काल के गर्त में समाकर भी मैं अपने कर्ज से मुक्ति पाने के लिये अपनी तपस्या के बल पर राजकुमारी को बचा लाया था । राजकुमारी अपनी इसी बलिदान के कारण देवी बन गईं

और मैं राक्षस अपने पाप के प्रायश्चित के

लिये ही घोर तप करके कापालिक बना ।

शेष फिर:-धन्यवाद।ऊषा सक्सेना

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