पढ़िए मेरी तीन कहानियो को एक से अध्याय छः तक एक साथ

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पढ़िए मेरी तीन कहानियो को  एक से अध्याय छः तक एक साथ
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अध्याय एक :

28 साल बाद कही की यात्रा फिर करने का मौका मिलना, उस पुरानी यात्रा मे

बिताये हुए पल को बार -बार आंखो के सामने आने जैसा है। ये बात है 1991 की

जब उन्नीस साल की उम्र मे पहली बार बॉम्बे अब मुम्बई जाने की इच्छा हुई ।

हमारे अभिन्न मित्र (नाम नही बता सकता क्योंकि कहानी बनी ही उनके कारण

है।) और हम मुम्बई जाने वाली ट्रेन में बैठ गये। खचा-खच भरी ट्रेन के जनरल

बोगी मे पुलिस वाले से जुगाड लगाकर खिडकी के रास्ते बर्थ कब्जाने की बात तो

शायद अब भी होती होगी पर मेरी बात 28 साल पुरानी है। यात्रा पहले से तय न

होने और बनारस से महानगरी की यात्रा जिन लोगो ने की है वो लाईन लगाकर या

जुगाड लगाकर जनरल बोगी मे घुसने का दर्द जानते होंगे |
यात्रा शुरु से

ही हाहाकारी रही। पर मरता क्या न करता ।मर्द की जुबान एक, मर्द को दर्द नही

होता जैसे जुमलों को सुनकर पले-बढ़े बनारसी लडके के पास मित्र को दिया वचन

सात जन्मो के वचन से भी मजबूत प्रतीत हो रहा था। एक बार भी ये बोल नही

पाये कि बिना आरक्षण चलना वो भी इतनी लम्बी यात्रा, ये काले पानी की सजा से

कम नही है।

गाड़ी चल पडी ,उसी के साथ जवाँ दिल के सपने, अगल-बगल से आ रही तरह-तरह की

बदबू और खुश्बू की तरह ही, मन की गहराइयों मे तैरने लगे। जिस मुश्किल से

जनरल डिब्बे में जगह ली उतनी ही मुश्किल उसे बचा के रखना था। पर ह्म् भी

बनारसी भाई काहे हार माने। अपनी सीट बचा ली पर इस चक्कर मे न तो पानी ही

पीने जा सके न पेट मे उबलते द्रव्य को गन्तव्य तक पहुचा सके। वैसे तो हर

डिब्बे मे खाने -पीने के लिये कुछ आ जाता है पर जहां सांस लेना दूभर हो वहा

सामन क्या मच्छर की भी औकात नही थी कि अपने लिये जगह बना सके।
उस समय

यात्रा का जोश और अल्हड़ जवानी का बैंक बैलेंस हमे यात्रा के कष्ट से लड़ने

की हिम्मत दे रहा था। अब बैंक बैलेंस ऐसी यात्रा से बचाता है। पर आज भी

करोणों लोग रोज उसी तरह से यात्रा करते नजर आ जायेंगे। खैर अपनी गाड़ी

बॉम्बे के पास पहुच रही थी । अगल-बगल के लोग लगातार कूद-फांद कर दरवाजा

पार् कर रहे थे। हमें ये पता ही नही था कि उतरना कहा है । एक बार तो हम लोग

भी कूदने के जुगाड मे लगे की भला हो पास वाले राम जी भाई का जो हमे यात्रा

के दौरान ही मिले थे, उन्होने बताया की हमे छत्रपति शिवाजी पर उतरना

चाहिये। गाड़ी रुकी और हमारे कदम पड गयें मायानगरी की धरती पर। एक झटका लगा

पीछे से किसी ने कहा की बगल हट । मुडा तो लगा की नरमुंडो के सागर मे कही

मेरी आत्मा पहुच चुकी है। हर तरफ सर ही सर । धड देखना हो तो लेटना पडेगा और

एक मिनट अगर रूक जाता तो ये भी इच्छा पूरी हो जाती ।
अपना तो कोई जानने

वाला बॉम्बे मे नही था। पर अपने मित्र के जानने वाले उस शहर की एक बड़ी

हस्ती थे। हम लोगो ने उनके घर जाने का मन बना लिया। जैसे ही हम उनके घर

पहुच कर घंटी बजाते है, एक सुन्दर लड्की दरवाजा खोलती है। चुकि हमारे मित्र

ने भी अपने रिश्तेदार के बारे मे ज्यादा जानकारी नही ली थी इसी लिये

उन्होने उस लड्की को नमस्कार किया पर जाने क्यों मेरा मन नही हुआ। जैसे ही

हम कमरे मे पहुचे बुजुर्ग ने मुझे ही मेरा मित्र समझ कर स्वागत करना शुरु

कर दिया। मैने अपने मित्र को उनके ही रिश्तेदार से मिलवाया। अब हमारे उपर

मिठाई की बारिश हो रही थी ।एक मिठाई खाने के बाद ही समझ आ गयी की हमे प्यार

से पुरानी मिठाई खिलाई जा रही है। हमारे मित्र ने एक मिठाई खाने के बाद

बताया की वो ब्रत है और उस खट्टी मिठाई से पीछा छुड़ाया। पर मै उतना खुश

किस्मत नही रहा ।मुझे उन्के प्यार की कई बासी बरसात झेलनी पडी। अभी मिठाई

की बारिश से उबरे नही थे तभी वही लड्की चाय लेकर आ गयी जिसने दरवाजा खोला

था। पहली बार अपने कपडे और पहनावा जिसपर हम बनारस मे ताव खाते थे वो एकाएक

बहुत खराब लगने लगा। हमे जब पता लगा की वो लड्की जिसने दरवाजा खोला था वो

नौक्ररानी थी तो हमे अपने कपडो पर और लज्जा आने लगी।
खैर बात होते-होते

पेट मे उबाल आना शुरु हो चुका था। खट्टी मिठाईयाँ अब कही नीचे बैठ चुकी थी।

फिर से कुछ खा लेने की इच्छा हो ही रही थी कि वही लड्की फिर से हमे अजीब

नजरो से देखते हुए पास आके र्बोली ” खाना लग गया है बुआ जी इन्तजार कर रही

है”। हम अपनी पिछली बेज्जती को भूल- लपक कर खाने के टेबल पर जा बैठे। हमारे

मित्र नाम रख ही देता हू” सनोज” के भाई और बहन (दूर के रिश्ते) डाइनिंग

टेबल पर हमार इन्तजार कर रहे थे। और सिर्फ इन्तजार हमारा ही नही था ये शायद

दो सभ्याताओ का मिलन था। बहन जी का वस्त्र ऐसा था जो बनारस मे किसी बहन के

अपने भाई के सामने पहनने की हिम्मत न होती। नजरे नीचे किये उनसे बात होती

रही और भोजन चलता रहा। एक दो रोटी के बाद कोई आमलेट खा रहा था तो कोई शान्त

हो चुका था। भूख तो जैसे हमारे ही पेट पर आक्रमण कर चुकी थी। दनादन खाते

हुए एकाएक फिर वही चेहरा दिखाई पड्ता है। इस बार थोडा परेशान। बुआ जी आंटा

तो खत्म हो गया और गूँथ दूँ क्या। ये शब्द भेदी बान की तरह हमारे कानो मे

घाव कर गया। मरता क्या न करता स्वर भी तंगी से निकल रहे थे पर हमे भी तो

घोषणा करनी थी सो कर दिया। पर हमारे सनोज भाई न माने और रोटी खाने की

फरमाइश कर दी।

मेरी तीन कहानियां : बॉम्बे टू गोवा द्वितीय अध्याय

सनोज भाई के रोटी की मांग ने मानो भूचाल ला दिया। एक बार फिर रोटिया आने

लगी वही बगल मे बैठी शालिनी दीदी लगातर हमसे बॉम्बे डाईन्ग की फैक्ट्री

मे आने के लिये कह रही थी। हम थे की अपनी नीची नजरो से सारे जवाब दिये जा

रहे थे। जब उस सुन्दर लड्की जिसे वो नौकरानी बता रहे थे उसने मानो विद्रोही

आवाज मे बताया की अब और रोटी नही बन सकती क्योकि आटा ही खत्म हो गया। बुआ

भी उसका दर्द समझते हुए हमे फल और जूस देने लगी।

अब मौका था आराम का और हम एक कमरे मे आ गये। सनोज ने बताया की उसके भाई

कुछ उदास थे क्योकि उनकी नयी नवेली पत्नी अपने प्रेमी के साथ फरार हो गयी।

पर दुख का कारण कुछ और था। उसे शादी मे गिफ्ट के तौर पर जो पानी का जहाज

दिया था वो भी वो ले गयी। सनोज अपने भाई के गम मे दुखी थे। पर असल मुद्दे

पर तो अभी बात होनी बाकी थी। सनोज को ये गम सताये जा रहा था कि उसने

नौकरानी को प्रनाम कर दिया था। मैने बहुत समझाया कि इसमे उसका कोई दोष नही

है। हमारी कल्पना मे जो एक नौकरानी का चेहरा है वो उसमे फिट नही बैठती है।

पर अपराध ऐसा कि उसकी ग्लानि जा ही नही रही थी।
हमे एक ड्राईवर के साथ

कार की व्यवस्था कर दी गयी थी। पर दिल तो अपने स्टेटस को लेकर व्याकुल था।

हम इस बात को समझ चुके थे की इस घर मे एक-दो दिन यानी रोज अपनी नजरो मे

गिरते जाना। हमने प्लान बनाया की बुआ को बिना बताये हम भाग लेंगे। और वही

किया। घोर दुपहरी मे जब बुआ सो रही थी हमने धीरे से अपना समांन लिया और

नीचे गाड़ी मे आ गये।
ड्राईवर ने पुछा की आप लोगो को कहां छोड दू।हमने

कहा की किसी अच्छे होटल मे ले चलो। वो हमे अन्धेरी के एक होटल मे लेकर चला

गया। होटल मे आकर थोडी राहत की सांस ली पर होटल के रिसेप्संन पर लिखा कुछ

पढ कर हम सोच मे पड़ गये। वहा लिखा था की अपना कीमती सामन रिसेप्संन पर जमा

कर दे और इनके खोने पर होटल की कोई जिम्मेदारी नही होगी। वैसे तो हमारे पास

कुछ कीमती था नही पर उसे पढकर मन थोडा ससन्कित हो गया। हम होटल से बाहर आ

गये और जीवन का पहला ज्ञान मिला। एक काफी खूबसूरत लड्की अपने एक हाथ मे

लम्बी सिगरेट और दुसरे हाथ मे बोतल पकड़े हुए थी। सनोज तो मानो जड़ हो गये।

आंखे चेहरे से बाहर कूदती नजर आ रही थी। ऐसा दृश्य अभी एक ज्ञान नौकरानी को

देख के मिला था अब दूसरा तो मानो हमारी आत्मा को झकझोर गया।
किसी तरह

सनोज को मै आगे खीचकर ले गया। मैने अपने ज्ञान-कोष से शब्दो को निकाल कर

उन्हे समझाने की कोशिश की कि ये मायनगरी है। घोर कलयुग की कल्पना से मन

बैचन हो उठा। लगा की अब तो पृथ्वी के नष्ट होने का समय आ गया।

मेरी तीन यात्रा- बॉम्बे से गोआतृतीय अध्याय-


अपने मित्र सनोज को किसी तरह समझा के जब हम मुम्बई दर्शन के लिये

निकले तो एकाएक उन्हे डांस देखने की सुझी। बनारस से मायनगरी की यात्रा मे

अब माया का दर्शन होने लगा। मैने उन्हे बडा समझाया की ये हम जैसे लोगो के

लिये नही है पर वो थे की मान ही नही रहे थे। अब मरता क्या न करता दोस्ती का

धर्म निभाने का वक्त था। दोस्त के लिये कुछ समय के लिये बनारसी संस्कारो

को ताक पर रख डांस बार मे घुस लिये। हम सब अब डांस बालओ के बारे मे बहुत

कुछ पढ और सुन चुके है पर मेरा अनुभव मेरे संस्कारो को और मजबूत बना गया।

बनारस मे रह कर भी पांन, तम्बाखू या भंग का सामना न हुआ हो ऐसा हो नही

सकता।पर हम थे की जेब मे पैसे रखकर भी ये शौक न पाल पाये।
मुम्बई के

बाहर डांस बार को बड़ी गंदी निगाह से देखा जाता है। और क्यो न हो पहली नजर

मे जब अन्दर जाने के लिये हम काउंटर पर पहुचे तो 91 में 300 पर हेड का झटका

लगा। हाथ पर मोहर लगा कर कैदियो की तरह प्रवेश किया।
अंदर धुप अन्धेरा।

हाथ को हाथ नही दिख रहा था। पर जैसे-जैसे आंखो ने अन्धेरे मे देखने की

क्षमता पायी दिल पर गिल्ट का बोझ बढता जा रहा था। शहर के संस्कार हमे बैठने

नही दे रहे थे और मित्र का साथ हमे उठने नही दे रहा था।
सनोज तो जैसे

जन्नत मे पहुच गये। एक साथ बियर, वाइन, सभी का दो-दो पैग। दो मेरे सामने दो

उनके । मैने कहा दो क्यों। मैं तो नही पीता ये तो तुम जानते हो । उन्होने

बड़ी मासूमियत से कहा यार लोगो को ये न लगे की सिर्फ्ं मै ही पी रहा हू।

इसिलिए तुम्हारे लिये भी मंगा ली। मैने धीरे से वेटर को बुलाया और एक काला

ड्रिंक लाने लाने के लिये बोला। उस का चेहरा देख लग रहा था कि मैने क्या

मांग लिया ।
खैर अन्धेरा बढता गया और मेरी बैचनी भी। डांस बार अपने पूरे

शवाब पर था। हम बनारस के दो 19-20 साल के युवा उस दृश्य को देख हैरांन हो

रहे थे। लोग जेब से इतने पैसे निकाल कर हवा मे लहरा रहे थे जितना हमने अपने

जीवन मे न देखा हो।
मेरी नजर डांस फ्लोर पर नाच रही एक डांसर पर थी

जिसकी भाव भंगिमा से मुझे वो बहुत बैचन दिखाई दे रही थी। बार मे ज्यादातर

लोगो ने इतनी पी रखी थी कि वो खुद को भी पहचानने से मना कर देते तो दूसरो

की परेशानी से उन्हे क्या फर्क पड्ता।
एकाएक कही दूर से किसी बच्चे के

रोने की आवाज आयी। डांस फ्लोर पर उस डांसर का बैचैन चेहरा अब परेशान दिखाई

पड़ रहा था। डांस और फ्लोर की लाईट की गर्मी मे भीगी वो एकाएक तेजी से एकतरफ

दौड्ती है। पूरे बार मे शायद एकमात्र होश मे मै ही था। उसका भागना मुझे

खटक गया। मै सारे खतरो को नजरं अंदाज करते हुए उसके पीछे सावधानी से आगे

बढा। गार्ड ने रोका तो उसे छोटी उंगली दिखाते हुए आगे बढा।
अन्दर अंधरे

का साम्राज्य था। पर एक कमरे मे उजाला दिख रहा था। जैसे ही मै आगे बढा मेरे

कदम उस दृश्य को देख कर जड़ हो गये। डांस फ्लोर पर बैचनी का कारण दिखाई पड़।

एक अबोध बच्चा जो अपनी मा के लिये रो रहा था वो उसके सीने से लिपटा अपनी

भूख मिटा रहा था।
आज तो हद हो गयी । ज्ञान की पराकाष्ठा । एक तरफ शरीर

के भूखे लोग दुसरी ओर जिन्दा रहने की लडाई। मेरी निगाहो मे उस बार बाला का

कद मेरे भगवान सा हो गया। मा क्या होती है और अपने बच्चे के लिये क्या कर

सकती है उसका चरम उस दिन दिखा।
आज जब लोग बार डांसर को लेकर उटपटांग

बाते करते है तो मुझे वो माँ याद आ जाती है। 28 साल बीत गये और आज भी वो

घटना मेरे दिल मे जिन्दा है।आज हर उस माँ को सलाम जो अपने टुकडे को जिन्दा

रखने के लिये अपने जिस्म के टुकडे भी बर्दाश्त कर लेती है।
कई बार ज्ञान

पाठशाला मे ही नही मिलता। उसके लिये यायावरी दरकार है। सनोज सारे पैग

लगाकर ज्ञान दे रहे थे और मैं मित्र धर्म से बंधा उन्हे सुरक्षित होटल वापस

ले जाने का जुगाड कर रहा था।

इस यायावरी के ज्ञान से निकला सच क्या सभ्य समाज को सोचने पर मजबूर करेगा।
कल फिर मिलेंगे यात्रा के चौथे अध्याय मे
शुभ रात्रि।

मेरी तीन कहानियां – बॉम्बे से गोवा चतुर्थ अध्याय-

सनोज भाई के साथ बार जाने का अनुभव बड़ा रोचक रहा | जिंदगी की हकीकत

सामने से हमे बता गयी की जीवन को कैसे जिया जाय | वापस होटल आते हुए ऐसा

टैक्सी वाला मिला की हम ब्रह्मज्ञान के कायल हो गए | होटल क्या था बीमारी

का अड्डा | न किसी का चेहरा दिख रहा था न कोई पानी भी देने वाला मिला | रात

ताली बजाते बीती | ताली क्यों – अरे भाई रात भर मच्छरों से मैच खेलना है

तो ताली तो बजाना पड़ेगा |

किसी तरह रात कटी | सनोज भाई रात में ताली बजाने वाली स्थिति में नहीं

थे| जिसका सबूत उनके चेहरे और हांथो पर स्पष्ट छपा था | हम किसी तरह तैयार

होकर उस काम के लिए निकले जिस के लिए हम बॉम्बे आये थे - दिन भर फार्मा

कंपनी के दफ्तर में दवा बनाने के लिए समझौता करते रहे | शाम थक कर चूर हो

चुके थे | सनोज भाई ने बताया की चौपटी पर उनके एक रिश्तेदार का जूस कार्नर

है | हम रात उन्ही के यहाँ बिताने की सोच रहे थे - हम शाम होते हुए चौपाटी

पर पहुंच गये | वहा ऐसा लग रहा था कि मेला लगा हुआ है | सनोज और मै चौपाटी

पर भेलपुरी का आनंद लेते हुए भेलपुरी वाले से अपना परिचय बनाने में लग गए |

चौपाटी पर हमारे रिसर्च से पता चला कि वहाँ पर ज्यादातर रेहड़ी खोमचे

वाले हमारे इलाके से आये हुए थे | हम चौपाटी की शाम का मजा ले रहे थे की

सनोज भाई को कुछ महसूस हुआ और वो निकल पड़े गहरी अँधेरी जगह पर | वैसे तो

बनारस में आप लगातार दिवालो पर कई तरह के शब्द लिखे पढ़ लेंगे पर लोग है कि

पढ़ने के बाद भी गीला करना नहीं छोड़ते | अब तो मोदी जी के स्वच्छ भारत

अभियान के कारण जगह -जगह आपको शौचालय दिख जायेगे पर उस समय भारत की सड़को पर

ही स्वच्छता अभियान का मखौल उडता दीखता था | बनारस में तो लोगो ने दीवाल

गीला करने के जन -मन को तोड़ने के लिए की सूत्र वाक्यों की भी रचना की |

उनमे से एक देखो गधा——— रहा है काफी जगहों पर लिखा मिल जायेगा | अब बनारसी

लोगो का क्या करना उस सूत्र वाक्य को पढ़ते और हसते हुए उसी दीवाल को गीला

कर जाते है | सनोज भाई को मैंने बताया की जरा ध्यान दीजियेगा ये बॉम्बे है |

पर बनारसी मन जब कुछ त्याग करने के लिए जा रहा है तो उसे कौन रोक पायेगा |

सनोज भाई अँधेरे की खोज में निकल पड़े महादान के लिए | थोड़ी देर बाद घबराये

हुए सनोज भाई हमारे पास आकर लम्बी -लम्बी साँस भरने लगे | मैंने पूछा क्या

हुआ | उन्होंने घबराते हुए बताया की यार इतनी दूर तक चला गया और अँधेरे

में जहाँ भी कुछ करने जाता वह से आवाज आ जाती थी | एक जगह तो मार -पीट की

नौबत आ गयी |

लगा की क्या हो गया | मैंने पूछा की जिस काम के लिए गए थे हुआ की नहीं |

उन्होंने बताया की यार यहाँ तो कोई भी अँधेरी जगह खाली नहीं है | किधर भी

जाओ लोग बैठे हुए और तरह -तरह की हरकतों में लगे दिख जा रहे थे | मै तो

घबरा गया | हमारे साथ जो बीच पर घोडा लेकर चलने वाला अपना ताजा दोस्त हमे

दोस्ती का ज्ञान देते हुए कहता है कि आप लोग हैरान मत होइए ये लोग जो आपको

सरे आम प्यार प्रदर्शित करते दिख रहे है उनमे से ज्यादातर तो पति पत्नी है |

घर मुंबई में एक बड़ी समस्या है | अगर लोगो के पास घर है भी तो इतने कमरे

नहीं है की पति पत्नी को एक कमरा मिल जाये | अब पति सबरे नौकरी पर निकल

गया तो शाम तक लोकल ट्रेन की दिक्क़ते झेलते हुए , जब वो अपने घर पहुँचता है

तो उसे अपनी पत्नी के साथ दो मिनट अकेले में बैठने की जगह भी नसीब नहीं है

| परिवार की जिम्मेदारी उठाते -उठाते व्यक्ति स्वयं कब उठ जाता है उसे पता

ही नहीं चलता |

बॉम्बे की इस समस्या का वर्णन अमोल पालेकर और अन्य कलाकारों की फिल्मो

में हम लोगो ने देखा था पर उसे साक्षात् देखने का सुअवसर इस यात्रा ने दिया

| विकास की इन नयी राजधानियों में कितने इंसानी दुःख के किस्से छुपे हुए

है इसका ज्ञान हमे मिला | ऐसा कौन सा विकास का मॉडल हमें अपनाना चाहिए

जिसमे हमे कम से कम अपने परिवार के साथ दो वक़्त का साथ मिल सके इसके बारे

में सोचना चाहिए | परिवार समाज की सबसे मजबूत कड़ी है | अगर परिवार में ही

दुःख है तो समाज में ख़ुशी ला पाना नामुमकिन है | इसीलिए विकास का बॉम्बे ,

न्यूयॉर्क , लंदन मॉडल भारत के परिवारों के लिए नहीं है | हमे बनारस के उस

ज्ञान को समझना होगा जिसमे स्थिरता है , संतोष है , और ईश्वर हमे हमारे

हिस्से का धन हमारे कर्म को देखा कर दे देगा इस बात का विश्वास है | इसको

समझने के लिए एक सच्ची घटना बताता हू | दिल्ली में नौकरी के दौरान एक

मिर्जापुरी गुरु मिले | ज्ञान से भरपूर | मश्ती की पाठशाला है वो | हमे भी

अपनी दिल्ली के प्रवास के दौरान उनसे काफी ज्ञानं मिला | मश्त मौला

प्रवित्ति का वो व्यक्ति उच्च कोटि का शिक्षक है | उनके पास काफी बनारसी

ज्ञानं भरा है | और ये सब उन्हें बनारस के अनुभवों से मिला था |

एक बार ऐसे ही बात चीत करते हुए उन्होंने बताया कि उन्होंने बनारस की

कचौरी गलीं में एक अचार की दुकान थी | एक जनाब जेठ की दुपहरी में आये और

कहा की उनको उस दुकान से अचार लेना है | उन्होंने बताया की दुकानदार अभी सो

रहा होगा शाम को चलते है| पर उन्हें कुछ ज्यादा ही जल्दी थी तो हम उस भरी

दोपहर में चल पड़े | वहा पहुंचकर देखा तो दुकानदार एक लाल गमछा पहने और

दूसरे से हवा करते हुए अपनी दुकान का आधा शटर गिरा कर लेटा हुआ था | हमारे

बुलाने पर जब वो नीद से जागा तो उसने शिकायती लहजे में कहा की अरे महाराज इ

दुपहरिया में तू त अपने परेशान होते हउआ और हमउ के परेशान कर देला |

दुकानदार का अपने ग्राहक के प्रति इतना निर्विकार भाव दिल्ली के सज्जन को

परेशान कर गया |

आज के इस दौड़ती – भागती जिंदगी में ग्राहक को जहा एक ओर बुलाने की होड़

लगी है वहा दुकान पर आये किसी से ऐसा बर्ताव , आगे चलकर इसकी दुकान तो बंद

हो जायेगी | अचार के साथ ज्ञान भी बनारस में ही मिल सकता है | पर जनाब उसकी

दुकान बंद नहीं हुए और उस दुकानदार का विश्वास की जो ईश्वर देगा वही उसके

हिस्से का है | ये सिद्धांत हमे जीवन को संतोष के साथ जीने की कला देता है |

यही ज्ञान शायद बॉम्बे के लोगो को ही क्यों सारी दुनिया के लिए जरूरी है |

इसी लिए कहा गया है की धरती के पास इंसान को देने के लिए सब कुछ है पर

उसके लालच के लिए कई धरती काफी नहीं है |

ज्ञान की बाते करते हुए हम सनोज भाई के साथ वही चौपटी पर एक फ्रूट जूस

कार्नर की ओर चल पड़े | हमारा अगला पड़ाव उन्ही दुकानदार का घर था जिसमे हमे

अपन रात बिताने की सोची थी | अगली कड़ी में रामनाथ भाई के घर में बिताये हुए रोमांचक पल के साथ फिर हाज़िर होऊंगा तब तक के लिए जय राम जी की

मेरी तीन कहानिया : बॉम्बे टू गोवा- अध्याय पांच

चौपाटी से एक नयी तरह की सांस्कृतिक सोच से पाला पड़ने के बाद हम चल पड़े

सनोज भाई के रिश्तेदार की दुकान की तरफ | हम जब वह पहुचे तो मराठा भवन देखा

जहा बाल ठाकरे साहेब के बारे में पता चला | किस तरह एक क्षेत्रीय दल या

इंसान राष्ट्रीय राजनीति में दखल रखता है उसका भी जायजा मिला | बाला साहेब

के बारे में लोग काफी अच्छी सोच रखते थे | वो मराठा स्वाभिमान के प्रतीक के

रूप में स्थापित हो चुके थे | जब हम फ्रूट जूस कॉर्नर पर पहुचे तो देखा की

बड़ी भीड़ थी | हम लोगो को देखकर अमर भाई ने हमे सबसे अच्छा फ्रूट जूस का

बड़ा वाला ग्लास पकडाया | हम भी काफी देर से पैदल चलने के कारण थके से लग

रहे थे और उस जूस के ग्लास ने हमे नयी उर्जा से भर दिया |

हम रात वही काफी देर तक अमर भाई के फ्रूट जूस कॉर्नर पर बैठ कर सोच रहे

थे की आखिर हम पूर्वांचल के लोगो को मुंबई क्यों आना पड़ता है | यहाँ पर

फ्रूट जूस बेच रहा आदमी अपने गाँव का प्रतिष्ठित किसान है पर उसे फुटपाथ के

एक कोने पर मुश्किल से दस बाई दस की दुकान जो एकदम फुटपाथ पर खुलती है

उसमे अपना जीवन लगा देता है | ग्राहकों की लगातार आमद से हमे महसूस हो गया

की ये दूकान लक्ष्मी मैया की कृपा से चल रही है | लगातार लोग आये जा रहे है

और उन्नीस सौ नब्बे में उस दुकान पर हमारे देखते -देखते हजारों की बिक्री

हो गयी | उस समय देश के नौकरीपेशा जब एक महीने बाद अपनी तनख्वा पाते थे तो

वो भी तीन चार हजार के करीब होती थी और यहाँ तो तीन -चार हजार कुछ घंटो में

ही | सही लगा | क्यों हम नौकर बने, मालिक बन रोज तीन – चार हजार कमायें |

यही सोचते – सोचते हम अमर भाई के घर पहुचे | रास्ते में हमे वो मैदान भी

दिखा जहा सुनील गावस्कर खेला करते | थोडा आगे जाकर हमने सुनील गावस्कर का

घर भी देखा | उस समय क्रिकेट का जनून हम लोगो को पागल कर देता था | उस दिन

गावस्कर का घर न हुआ हमे लगा कि मक्का -मदीना और माता वैष्णो देवी की

यात्रा जितना पुण्य हम उस घर को देख कर ही कमा चुके थे |

खैर अमर भाई के घर पहुचते -पहुचते काफी देर हो चुकी थी | उन्होंने पहले

ही बता दिया होगा तभी जैसे ही हम घर पहुचे तो एक सुंदर महिला ने दरवाजा

खोला | मैंने ये भापते हुए की वो जरूर अमर जी पत्नी है उन्हें प्रणाम किया |

सनोज भाई अपनी पूर्व में की गयी गलती यानि की नौकरानी को प्रणाम करने की

भूल से सबक लेते हुए अब किसी को प्रणाम नहीं कर रहे थे | अब घर के लोगो को

लगा की ,मै ही उनका रिश्तेदार हू | उन्होंने मुझे अंदर बुलाया और प्रेम

पूर्वक घर और बुआ जी के यानि सनोज की माता जी के बारे में बाते करने लगी |

मैंने थोड़ी देर बाद उनको बताना उचित समझा और फिर मौका देखकर बता दिया की

सनोज जी वो है जो बाहर बैठे है | उनको भी लगा होगा की कैसा रिश्तेदार है जो

उनको जानता नहीं और रात बिताने यही आ गया |

मुंबई में पहली बार गरमा गर्म खाना और वो भी माँ के हाथ जैसा अपना यानी

पूर्वांचल का पराठा , सब्जी में बैगन की कलौजी , आलू परवल का रसेदार और आम

की चटनी मानो यात्रा में लाटरी लग गयी | पिछली बार की तरह कोई शर्म नहीं

गर्म पराठा और सब्जी की तबतक सप्लाई होती रही जब तक हम छक कर खाने के बाद

बेहोश से नहीं हो गए | लगा की यही लेट जाये | पर दुसरे के घर की कुछ

मर्यादा होती है तो हम किसी तरह फिर उठ कर बैठ गए |

अब पहली बार उनका घर हमारे नजरों के सामने आया | अभी तक की भूख ने और

कुछ नहीं देखने दिया था | अब नीद जोर मार रही थी और आँखे अपना बिस्तर दूंढ

रही थी | इसी में हमने देखा की घर तो एक रेलगाड़ी का पूरा कम्पार्टमेंट था |

जैसे लोग बर्थ पर सोते है वैसे ही पार्टीशन कर ड्राइंग रूम था जहा हम

विराजमान थे | खाना खाकर हाथ धोने के बहाने हम लोगों ने पुरे घर का एक्स रे

कर लिया था | ड्राइंग रूम के बाद मुश्किल से पाच बाई दस के पार्टीशन में

अमर भाई का बेडरूम था | और इसी तरह वो सीधा मकान कई भागो में सुविधानुसार

बटा था | हम लोग बनारस के घर जहा गाय के रहने के लिए भी हम बढ़िया जगह देते

है की उसे भी तंगी न महसूस हो| अमर भाई के मकान को देखकर तीन चार हजार रोज

का ख्याल भाग गया और लगा की अरे भाई जब सोने के लिए ही जगह नहीं तो ये पैसा

किस काम का | अब हमे उनका कमरा देख चौपटी का दृश्य याद आने लगा | क्यों

लोग चौपाटी के अँधेरे में प्रेमालाप करते दिख जाते है | अब जब घर में आप के

पाच बाई दस के स्पेस के ठीक बगल में आपके बच्चे , माँ -बाप सो रहे हो तो

आप क्या करेंगे | कई हिंदी फिल्मों के उन दृश्यों की याद आ गयी जहा मुंबई

और ऐसे ही बड़े महानगर में रह रहे हीरो अपनी हेरोइन के साथ किचन में

प्रेमालाप करते दिख जाते थे | अमर भाई के घर में तो किचन भी ओपन था |

सनोज भाई का घर बनारस में एक प्रतिष्ठित जगह था और उसमे पर्याप्त कमरे ,

कम से कम २५ से तीस थे ही और गाय माता के लिए अलग से कमरा | यही हाल हमारे

यहाँ था नीचे के पाच कमरे आने वाले लोगो के लिए और उपर पांच कमरों में हम

सब रहा करते थे | नीचे पिताजी गाँव से लगातार आने वाले लोगो के स्वागत में

लगे रहते थे | गाय माता हमे नित्य पौष्टिक दूध दे देती थी | गाँव से आये

हुए चावल , गेहू , मटर , चना, दाल, से घर का एक कमरा बड़े -बड़े कंडाल में

रखे अनाज से भरा पड़ा था | चावल – गेहू ख़रीदा जाता है ये हमे उस समय तक

ज्ञात नहीं था | न ही कभी ये पता चला की कौन रिश्तेदार आया और कौन कब गया |

आज जब हम स्पेंसर और बिगबाजार में जाकर एक एक किलो का चावल, दाल का पैकेट

लाते है तो लगता है की भारत विकसित हो गया या हम पीछे चले गए | दिन अच्छा

कौन सा था – वो जब आपको किसी का आना और घर में दस -दस दिन तक जमे रहना |

फिर भी घर के किसी सदस्य के चेहरे पे शिकन नहीं |

गर्मियों में छत पर सोने का चलन, घर के सारे लोग अपनी-अपनी खटिया की

रक्षा में लगे हुए एक अदद पंखे का रुख अपनी तरफ मोड़ने का संघर्ष, और रात

में अगर भगवान् ने हवा चला दी तो सैकड़ो ए सी फेल | कभी नाराज हो कर बिना

खाए छत पर सो जाओ तो माँ का रात में पूरा खाना लेकर आना और राजा की तरह

सबको दिखा कर रात में छत पर खाना शायद दुनिया का सबसे बड़ा सुख था जिसका

एहसास वक़्त बीत जाने पर सभी को होता है | हम लोगों ने कभी भी ये नहीं महसूस

किया की इतने आने -जाने वाले लोग और इतने भाई बहन (तीन बहन और तीन भाई

कमोबेश यही हाल उस समय सब परिवारों का था ) सभी को पढ़ा -लिखा कर योग्य

बनाने वाले माँ बाप किस तरह चीजो को मैनेज करते थे |

खैर खाना खत्म हो चुका था सोने के लिए दिल बैचन हो रहा था | तभी अमर भाई

ने कहा की हम लोग छत पर चलते है वही सोयेंगे | ये सुनते ही हमे मजा आ गया |

बॉम्बे में छत पर सोना हमे बनारस की याद दिला गया | पर जब उम छत पर जाने

के लिए निकले तो सांस अटक गयी | एक पतली सी सीढ़ी जो सीधे आसमान में जाते

दिखाई दे रही थी | जरा सा फिसले और कई मंजिल नीचे | सनोज भाई तो नीचे ही

अटक गए मैंने किसी तरह हिम्मत कर उपर जाने की तयारी की | मुझे एक मंजिल तक

पहुच जाने के बाद सनोज भाई का भी कॉन्फिडेंस लेवल बढ़ा और वो भी लपक कर आ गए

| सीढ़ी चढ़ने में जो भी सांस रुकी थी जब हम छत पर पहुचे तो मजा आ गया | बगल

में डी ए वी स्कूल की खाली जमीन और अगल -बगल किसी की नजरे हम पर नहीं |

बॉम्बे में वो रात कमाल की रात थी | छत पर लेट कर तारे गिनने का काम बनारस

ही नहीं बॉम्बे में भी किया जा सकता था ये हमे पहली बार एहसास हुआ |

आगे की यात्रा में फिर मिलेंगे तब तक आप भी रात में तारों की गिनती करे ….

अध्याय छह :

अमर भाई के घर पर रात तारे देख कर कटी | लगा था कि इतना ऊपर तो मच्छर

नहीं आ सकते पर उन मच्छरों ने हमारी सोचने की शक्ति से ज्यादा तरक्की कर ली

थी | रात भर हवा के साथ -साथ और हवा के बाद भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते

रहे | खैर रात कटी, नींद के एक झोंके ने सुबह हमे पूरी तरह से फ्रेश कर

दिया था | नित्य कर्म से पहले ही हम अपने होटल की और भाग लिए | दिन भर दवा

बनाने की फैक्ट्री लगाने के लिए कई बड़े लोगो से संपर्क हुआ | अब शाम हो चली

थी | हम बॉम्बे की उमस भरी गर्मी से निजात पाने के लिए तय कर लिया की अब

गोवा चलेंगे | बस अड्डे पर टिकट ले हम बैठ गए अपनी गोवा यात्रा के लिए |

बस में लगा की हम दूसरी दुनिया में आ गए है | ज्यादातर गोआनी थे जो या

तो कोंकणी बोलते या अंगरेजी | हम तो बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के छात्र

होने के नाते अपनी हाल में हासिल थोड़ा बहुत अंगरेजी ज्ञान के दम पर कुछ

लोगो से बात कर पा रहे थे | सनोज भाई अब थोड़ा असहज महसूस करने लगे थे |

हमारे सामने की सीट पर पति , पत्नी और उनका एक बच्चा बैठा हुआ था | वो

बच्चा लगातार अंगरेजी में अपने माँ -बाप से बाते कर रहा था | सनोज भाई ने

परेशान होकर पूछा कि यार हम किस देश में है | मैंने बताया की भारत ही है |

ये प्रश्न हमारी पूरी यात्रा के दौरान कई बार आया जब सनोज भाई ने अंगरेजी

और कोंकणी भाषा के बीच ये समझ लिया की वो किसी और देश की यात्रा कर रहे है |

सनोज भाई ने हमेशा से पढाई को भगवान् भरोसे और दूसरे के भरोसे छोड़ रखा था |

एक बार उनका साइकोलॉजी की प्रैक्टिकल परीक्षा थी | उन्होंने मुझे बुला रखा

था | मै बी एच यू से और वो उससे सम्बद्ध एक कॉलेज से पढ़ रहे थे |

सनोज भाई की बी एच यू से पढ़ने की तमन्ना थी पर परीक्षा उत्तीर्ण करना,

उन्होंने इसका जोखिम कभी नहीं उठाया | वो तैयारी पूरी करते थे पर भगवान् था

की कभी उनपर परीक्षा को लेकर मेहरबान नहीं हुआ | वैसे तो वे बनारस के एक

प्रतिष्ठित परिवार से थे , दवा का अच्छा बिज़नेस था | पैसे -रुपये की कोई

कमी नहीं थी | वो हमारे सीनियर थे पर शिक्षा के मंदिर में गहरी आस्था होने

के कारन वो कभी -कभी किसी क्लास में एक साल से ज्यादा भी पढ़ लेते थे | उनकी

बी ए प्रथम वर्ष की परीक्षा थी | चुकी हमारे और उनके प्रैक्टिकल की डेट

में फर्क था तो वो हमे ही साइकोलॉजी विषय में प्रैक्टिकल के लिए सब्जेक्ट

बना कर लाये थे |

गजब माहौल था | एक सज्जन कुर्सी पर बैठ के कहानी की किताब पढ़ रहे थे तो

वहॉ दो चार लोग उनका प्रैक्टिकल का काम कर रहे थे | किसी ने धीरे से बताया

की पूर्वांचल के कोई उभरते माफिया है जिन्हे पढ़ने का भी शौक है | गोली

चलाने में बीए साइकोलॉजी का अध्ययन ये बनारस है रजा , यही ये सब आधुनिक

प्रयोग होते है | वही एक तरफ एक ख़ूबसूरत लड़की बैठी थी जिसकी आव -भगत में

पूरी क्लास लगी थी | हम लोग ये देख कर पूरी तरह मस्त हो गए | लगा परीक्षा

नहीं कोई पिकनिक चल रही है |

सनोज भाई भी पूरी तरह कॉंफिडेंट थे | उन्हें पता था की उनका सब्जेक्ट

बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी का विद्यार्थी है वो सब काम सही करेगा | लिखने

पढ़ने के बाद अब बारी थी वाइवा की | सनोज भाई थोड़ा घबराये लग रहे थे | वो इस

सोच में थे की परीक्षक क्या पूछेगा | सनोज भाई अपनी बारी आने से पहले

पशीने से पूरी तरह लथ -पथ थे | उन्हें कुछ ज्यादा ही पसीना होता था पर उस

दिन लगा जैसे बारिश हो रही थी | वाइवा देने के बाद जब सनोज भाई बाहर आये तो

मैंने पूछा क्या हुआ | सनोज भाई ने बहादुरी से बताया की मैंने किसी भी

सवाल का जवाब नहीं दिया | मैंने पूछा की आखिर एग्जामिनर ने क्या पूछा |

उन्होंने बताया की वो तो साइकोलॉजी की स्पेलिंग पूछ रहा था मैंने भी बता

दिया की मुझे पीलिया हो गया था इसलिए मैं पढ़ नहीं पाया |

खैर वो बात बीत गयी जब परीक्षा का रिसल्ट आया तो चमत्कार हो गया | सनोज

भाई मुझे पीछे छोड़ कर कुछ ज्यादा नंबर पा गए | उन्होंने बताया की – देखा

मैंने कैसे बीएचयू के छात्र को पीछे छोड़ दिया | मैंने उनकी बातों को ध्यान

से सुना | आखिर जीत तो जीत ही है | पर उनकी जीत पीछे एक कारन और भी था |

पिछला साल यानि १९९० मेरे लिए काफी कठिन था | इच्छा थी की डॉक्टर बनू | पर

माँ बीमार थी और ये हमारे लिए बहुत कठिन पल थे | तरुणाई धीरे -धीरे यौवन की

ओर ले जा रही थी | गुप्ता संगीतालय मैदागिन पर गिटार बजाने की शिक्षा जोर

-शोर से चल रही थी | युवावस्था उस ओर खींच रही थी जिस ओर हम जाना नहीं

चाहते थे | हमारी बड़ी बहन ने मुझे डॉक्टर बनाने की ठान ली थी | माँ की

बीमारी देख लगता था की इन्हे बचाने के लिए डॉक्टर बनूँगा | पर हालात बिगड़ते

गए जब तक हम समझ पाते तब तक वो हमे छोड़ जा चुकी थी | अब डॉक्टर बनने की

इच्छा नहीं थी | जिंदगी के मायने बदल चुके थे | पर शायद ये मित्रों की फ़ौज

और गिटार के तार थे जो हमे उस बड़ी कमी से बाहर निकाल ले गए |

अब साइंस छोड़ दिया कुछ मित्रों ने कहा कि बीएचयू का फॉर्म निकला है भर

दो | परीक्षा पास कर ली और बीए साइकोलॉजी ऑनर्स में प्रवेश ले लिया |

फिर मिलेंगे बीएचयू की कहानियो और सनोज भाई के नयी मारुती वैन के किस्सों के साथ

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