प्रसन्नता या खुशी हमारे अंतर्मन में स्वतः प्रस्फुटित होने वाला एक ऐसा सुंदर भाव है जिसके रसास्वादन से अंतः करण को एक सुखद अनुभूति होती है। भौतिकता की कसौटियों के आधार पर प्रसन्नता का मापदंड निर्धारित कर पाना असंभव है क्योंकि प्रसन्नता एक नैसर्गिक उपहार है। वर्तमान स्थितियों पर यदि दृष्टि डाली जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य ने प्रकृति से यह उपहार ग्रहण करना बंद कर दिया है अथवा प्रकृति ने मनुष्य को प्रसन्नतावृष्टि से कोसों दूर कर दिया है। स्थिति के कारणों की तह तक जाने से पहले प्रसन्नता के उद्भव पर विचार करना अत्यावश्यक है। हमारे चतुर्दिक विद्यमान संसार हमें तभी सुंदर दिखता है जबकि प्रकाश की उपस्थिति एवं अंधकार की अनुपस्थिति सुनिश्चित हो। इन दोनों मूल शर्तों के अभाव में हम ईश्वररचित इस सुंदर संसार को नहीं देख सकते। प्रसन्नता की अनुभूति हेतु भी मन में संतुष्टि का होना एवं तनाव की अनुपस्थिति एक अपरिहार्य शर्त है। मन के असंतुष्ट होने एवं तनाव व अवसाद से घिरे रहने की स्थिति में प्रसन्नता का अमृत हमारे आसपास भी नहीं फटकेगा।
वस्तुतः मानव मन पूर्णतया एक ऐसी प्रेमिका के तुल्य है जो कभी पूर्णरूपेण संतुष्ट नहीं हो सकती। वर्तमान में जगी हुई अभिलाषा, इच्छा अथवा कामना की पूर्ति कर देने पर, इन दोनों की नवीन इच्छा के जागृत होने में क्षणभर का भी समय नहीं लगता। दूसरे शब्दों में यदि कहा जाए कि दोनों ही क्षणिक संतुष्टि के उपरांत पुनः असंतुष्टि के सागर में डूब जाते हैं, तो गलत ना होगा। कहीं ना कहीं यह असंतुष्टि ही तनाव के जन्म का कारण बन जाती है।
आज की भागदौड़ में हम अव्यवस्थित जीवन शैली, कार्य का अनावश्यक बोझ, नित्य प्रति बढ़ती हुई लालसाओं एवं नकारात्मक विचारों से पूर्णरूपेण घिर चुके हैं ।अपनी दिनचर्या से, हमें अपने शरीर के सारथी अर्थात मन को विश्राम देने हेतु समय निकालना एक कठिन चुनौती सा लगता है । यदि येन केन प्रकारेण, अल्प विश्राम हेतु सौभाग्य से समय मिल भी गया, तो नकारात्मकता एवं अनावश्यक सोच विचार, शत्रु की तरह हम पर टूटने का पूर्ण प्रयास करते हैं। नकारात्मक विचार अपना प्रथम आक्रमण हमारे सबसे विश्वसनीय मित्र आत्मविश्वास पर करते हैं। एक बार यदि आत्मविश्वास ने हमारा साथ छोड़ दिया तो फिर हमें असफलता का गुलाम बनते देर नहीं लगती। जीवन में सफलता व उन्नति की सीढ़ियां चढ़ने के लिए प्रसन्न मन का होना नितांत आवश्यक है। कुछ मूल मंत्रों का आश्रय लेकर हम प्रसन्नता के कोष पर अपना अधिकार सिद्ध कर सकते हैं ।
हमें किसी भी प्रकार की अनावश्यक चिंता, ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट आदि से दूर रहकर, मस्तिष्क को सकारात्मक विचारों से सिंचित करके, वर्तमान से संतुष्ट रहते हुए जीवन के छोटे-छोटे पलों को आनंद के साथ जीना चाहिए। हमें प्रतिदिन समय का कुछ अंश स्वयं को देना चाहिए क्योंकि हमारा सबसे अमूल्य कोष स्वयं हम हैं। हमें गीता के श्लोक कर्मण्येवाधिकारस्ते को अपने जीवन का सूत्र बनाना चाहिए क्योंकि भविष्य एवं कर्मफल किसी प्रकार से हमारे वश में नहीं ।
©शिशिर शुक्ला