लैटरल एंट्री: जुगाड़ या प्रतिभा से खिलवाड़

Update: 2022-03-27 09:57 GMT



भारतवर्ष की एक अद्भुत विशेषता यह है कि यहां पर किसी भी विकरालतम समस्या के समाधान हेतु एक अमोघ व अचूक अस्त्र सदैव उपलब्ध रहता है जिसका नाम है 'जुगाड़'। यहाँ किसी भी कार्य की सिद्धि में सामान्य तरीके उतने कारगर नहीं हैं जितना कारगर 'जुगाड़' है। हम यदि तन, मन और धन से जुगाड़ के प्रति समर्पित हो जाएं तो जुगाड़ भी हम पर एहसान करने में कोई कसर बाकी नहीं रखता। भारतवर्ष में किसी भी क्षेत्र में प्रवेश हेतु दो द्वार उपलब्ध हैं- एक द्वार जो जन सामान्य को यथोचित नियमानुसार उस क्षेत्र में प्रवेश दिलाता है और दूसरा द्वार जो सामान्य नियमों को दरकिनार कर अपने कुछ विशिष्ट नियमों के संरक्षण में क्षेत्र विशेष हेतु पार्श्व प्रवेश (लैटरल एंट्री) का अनोखा विकल्प उपलब्ध कराता है। यह दूसरा द्वार 'जुगाड़' का ही एक रूप है। और तो और, भगवान के मंदिर के दृश्य का भी यदि अवलोकन किया जाए, तो वहां पर भी ईश्वर के दर्शन हेतु दो विकल्प उपलब्ध रहते हैं- एक तो लंबी कतार का हिस्सा बनकर घंटों का समय कतार के साथ मंद गति से आगे बढ़ने में व्यतीत करके दर्शन पाना और दूसरा कुछ निश्चित दक्षिणा का दान करके पीछे के द्वार से धीरे से पार्श्वप्रवेश कर अत्यल्प समय में दर्शन कर लेना। प्रशासनिक सेवा में लैटरल एंट्री के निर्णयोपरांत, अब इस अनूठे प्रयोग को शिक्षा के क्षेत्र में भी अंजाम देने का प्रयास करने की तैयारी चल रही है। मजेदार बात यह है कि इस विधि से शिक्षा जगत में प्रवेश हेतु, पी.एच.डी जैसी शैक्षिक योग्यता अनिवार्य नहीं होगी। यह एक ऐसे प्रयोग के तुल्य प्रतीत होता है जिसके परिणाम से प्रयोगकर्ता सर्वथा अनभिज्ञ है। इस विचित्र प्रयोग में शिक्षा का क्षेत्र एक प्रयोगशाला तथा इस जगत से जुड़े व्यक्ति एक प्रायोगिक उपकरण की भांति हैं। प्रश्न यह उठता है कि शिक्षा के क्षेत्र में लैटरल एंट्री की आवश्यकता आखिर क्यों पड़ी ? क्या उन्हीं पदों को सामान्य रूप से प्रतियोगी परीक्षा एवं साक्षात्कार के माध्यम से भरना संभव नहीं है ? यदि नहीं तो क्यों नहीं? अथवा लैटरल एंट्री का विकल्प किसी बड़ी नीति व योजना का प्रारंभिक चरण तो नहीं? इन प्रश्नों का उत्तर चाहे जो भी हो किंतु एक बात कटु सत्य के रूप में स्वीकार करनी पड़ेगी की लैटरल एंट्री से प्रतियोगिता की दौड़ में दौड़ रही अगणित प्रतिभाओं के सर पर असुरक्षा एवं अनिश्चितता का संकट मंडराने लगेगा।लंबी कठिन तपस्या के बाद यदि प्रतिफल कहीं और जाता दिखे, तो कितना कष्ट होता है, इसकी कल्पना करना बहुत मुश्किल है। जरा कल्पना करें, कि जिस स्थान पर आईआईटी जैसे संस्थान से शिक्षा पाया हुआ व्यक्ति एवं लैटरल एंट्री के 'जुगाड़' से प्रवेश पाया हुआ व्यक्ति एक साथ कार्य करेंगे, तो क्या वहाँ उनके मध्य मानसिक सामंजस्य स्थापित हो पाएगा? संभवतः शिक्षण कार्य से कहीं अधिक, उनका ध्यान अपनी विचारधाराओं के मध्य संतुलन बिठाने में लगेगा। एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या लैटरल एंट्री हेतु कुछ नियम व प्रावधान बनेंगे अथवा इसका पूर्ण अधिकार संस्थानों के शीर्ष पर बैठे व्यक्तियों के हाथों में होगा, क्योंकि मंदिर का पिछला दरवाजा खोलने पर भीड़ पिछले दरवाजे से भी प्रवेश का पूर्ण प्रयास करती है किंतु प्रवेश केवल उसी को मिलता है जो उस दरवाजे के मानकों को पूर्ण करता हो । खैर, प्रक्रिया, नियम व कानून आदि जो भी हों, किंतु इस पार्श्वप्रवेश का एक गंभीर दुष्परिणाम सौ फ़ीसदी नियत है। इससे अगणित प्रतिभाएं कुंठा एवं हताशा के गहरे गर्त में धकेली जाएंगी।

©शिशिर शुक्ला

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