अपनी सुख सुविधा एवं वैभव वृद्धि के लिए किसी को पीड़ा पहुंचना,कष्ट देना घोर दुष्कर्म है।इसका दुष्परिणाम संताप कष्ट और पीड़ा के रूप में ही आयेगा।हो सकता है उसमें कुछ समय लगे।स्रुष्टि रूपी ड्रामा हूबहू रिपीट होता है।यह प्रकृति रूपी ड्रामा है और हर किसी का अपना अपना पार्ट है।कोई यह सोचकर किसी को दुख देता है कि कोई मेरा क्या बिगाड़ लेगा।लेकिन कर्मो की गुह्य गति है हम और आपको जन्म लेकर ही हिसाब किताब चुकतु करना पड़ता है।दुख के बदले दुख और सुख के बदले सुख मिलता है।कोई किसी की हत्या कर फरार हो जाता है।उसका भांडा साल दो साल या पांच साल के बाद भी फूटता है।इसलिए किसी को दुःख नही तो लेना है और न किसी को दुःख देना है।क्योकि कर्मवाद का सिद्धांत अटल और परम सत्य है।विश्व के सभी विचारक तत्व चिंतकों ने इस सिद्धांत का समर्थन किया है।इस सिद्धांत के मूल दृष्टि है कि व्यक्ति जैसे कर्म करता है उसके परिणाम वैसे ही आते है।हो सकता है वे कुछ रूपांतरित हो जाए।जैसा किया वैसा पाया इस सत्य को सिद्ध करने वाला लंबा इतिहास अपने पास है।वर्तमान में भी अनेक उदाहरण हमारे सामने फैले हुए है जो करणी के फल को व्यक्त कर रहे है।मानव की यह भ्रांत धारणा है कि मैं चालाकी से अपने पाप को छुपा लू और उसके दुष्फल से बच जाऊंगा।प्रकृति ऐसा अवसर प्रदान नही करती है।दुष्कर्मी को प्रकृति परिणाम देकर ही रहती है।इसमें अविश्वास करना मूर्खता है।आज भारत मे ही नही सारे विश्व मे उत्पीड़न बढ़ गया है।इसका बस से बड़ा कारण है मानव का कर्मवाद में विश्वास कम होना।कर्मवाद जैसी करनी वैसी भरनी सिद्ध करता है व्यक्ति का यदि उसमे विश्वास बना रहे तो वह ऐसा कोई कार्य नही करेगा जिसका परिणाम दुःखद और संतापपूर्ण हो।विश्व मे धर्म के द्वारा प्रदत्त इस कर्मवाद की धारणा से ही शांति और अमन का विस्तार हो सकता है।कानून के फंदे और कारावास के भय से पापो का रुकना संभव नही है।अधर्म और उत्पीड़न को रोकने के लिए धर्म के संस्कारों की स्थापना करनी होगी।कर्मवाद धर्म संस्कार का मौलिक आधार है।यह खंडित नही होना चाहिए।
*कांतिलाल मांडोत, सूरत*