हमारे देश में एक समय था जब गुरुकुल शिक्षा दीक्षा का केंद्र हुआ करते थे। गुरुकुलों की परंपरा में गुरु के प्रति असीम भक्ति, समर्पण की भावना, त्याग, तपस्या तथा परिश्रम से युक्त जीवन के साथ-साथ भारतीय संस्कृति की अविरल धारा प्रवाहित होती थी। आज का परिदृश्य बिल्कुल परिवर्तित हो चुका है । आधारभूत शिक्षा की यदि बात की जाए तो इसके लिए मुख्यतः दो विकल्प उपलब्ध हैं -एक तो किंचित हेय दृष्टि से देखे जाने वाले सरकारी हिंदी माध्यम के विद्यालय और दूसरे हाई-फाई सोसाइटी का सिंबल माने जाने वाले कान्वेंट स्कूल। आज की स्थिति पर यदि नजर डाली जाए तो सरकारी स्कूल, मानो निर्धन परिवारों के लिए ही बने हैं ।
आर्थिक रूप से अतिसंपन्न अथवा संपन्न संवर्ग के लोग अपने बच्चों को प्राइमरी व जूनियर स्कूलों में कदापि भेजना नहीं चाहते। ऐसा करने में कहीं ना कहीं वे अपनी तौहीन महसूस करते हैं।शिक्षा हेतु अपने बच्चों को कॉन्वेंट स्कूलों के प्रांगण में भेजकर, मानो उनके अंदर एक अतिसन्तोषजनक भावना उमड़ने लगती है। रही बात निर्धन परिवारों की, तो वे बेचारे सरकारी स्कूलों का सहारा लेने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि कॉन्वेंट स्कूलों का खर्च वहन कर पाना उनके वश से पूर्णतया बाहर है।अधिकतम कान्वेंट विद्यालयों में, भारतीय संस्कृति एवं आचार विचार की झलक दूर-दूर तक भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। एक छोटा सा बच्चा भी 'भगिनी' की अपेक्षा 'गर्लफ्रेंड' एवं 'नमस्ते' की अपेक्षा 'गुड मॉर्निंग' शब्द से कहीं अधिक परिचित नजर आता है। बात यदि शुल्क पर की जाए, तो आप हाई फाई कॉन्वेंट विद्यालयों में प्रवेश हेतु स्वयं को तभी तैयार करें जब ऊपर वाले ने आपको छप्पर फाड़ कर दिया हो और धन की वर्षा आप पर अनवरत रूप से हो रही हो । यदि आप के ऊपर धनरूपी जल की केवल फुहारें ही गिर रही हैं, तो फिर आप कॉनवेंटेड बनने का सपना तुरंत छोड़ दीजिए।कॉन्वेंट स्कूलों में शिक्षा न लेने से विद्यार्थी निश्चित ही कुछ विशेष उपलब्धियों से वंचित रह जाता है, यथा- तथाकथित हाई-फाई फ्रेंड सर्कल, उच्च स्तर की मौज मस्ती, अत्याधुनिक तौर-तरीके, तथाकथित मॉडर्न कल्चर इत्यादि। वहीं सरकारी स्कूल में पढ़कर एक मध्यम स्तर की बिल्डिंग में बैठकर अंतर्मन में महज एक संतोषजनक (अच्छी नहीं) फीलिंग प्राप्त होती है। बेचारा विद्यार्थी भी जब अंकपत्र में विद्यालय के नाम में, "प्राथमिक विद्यालय.." इत्यादि लिखा देखता है तो कहीं ना कहीं उसे अपने उन साथियों की अपेक्षा हीन भावना महसूस होती है, जिनके अंकपत्र में "सेंट जॉर्ज...", "सेंट फलाना. " आदि विभिन्न आकर्षक नाम उल्लिखित होते हैं। मेरे विचार से यदि समाज एवं सरकार सजग, सतर्क व जागरूक होकर सरकारी विद्यालयों पर ध्यान दे, तो निश्चित रूप से इन विद्यालयों में संस्कृति, आचार विचार एवं शिक्षा का संगम एक उन्नत स्तर को प्राप्त कर सकेगा एवं समाज के किसी भी वर्ग को शिक्षा हेतु "ऊंची दुकान फीके पकवान" के पर्यायसदृश कॉन्वेंट स्कूलों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा।बहरहाल आज की स्थिति यही है कि कॉन्वेंट स्कूल समाज के लगभग हर तबके की विचारधारा पर पूर्णतया हावी हैं। भविष्य में यह स्थिति चिंताजनक हो सकती है।
©शिशिर शुक्ला