सजा ऐसी थी कि कैदी को लिटाकर चार घोड़ों से उसके हाथ पैर बांध दिए जाते थे। एक घोड़े से एक हाथ, दूसरे घोड़े से दूसरा हाथ। तीसरे घोड़े से एक पैर, चौथे घोड़े से दूसरा पैर। और चारों घोड़ों को चारों दिशाओं में दौड़ा दिया जाता था। टुकड़े—टुकड़े हो जाता था आदमी, खंड—खंड हो जाता था। सजा का नाम था क्वार्टरिंग। और ठीक ही था सजा का नाम, क्योंकि चार टुकड़े हो जाते थे, चौथाई हो जाता था। सजा का नाम था चौथाई।
लेकिन जिंदगी को अगर गौर से देखो तो ऐसी सजा तुम खुद अपने को दे रहे हो। तुमने कितनी वासनाओं के साथ अपने को जोड़ लिया! अलग—अलग दिशाओं में जाती वासनाएं…कोई पूरब, कोई पश्चिम, कोई दक्षिण, कोई उत्तर। चार घोड़े नहीं, हजार घोड़ों से तुम बंधे हो।
खंड खंड हुए जा रहे हो, टूटे जा रहे हो, बिखरे जा रहे हो। इसी बिखराव को तनाव कहो, चिंता कहो, बेचैनी कहो, विक्षिप्तता कहो, जो भी तुम्हें कहना हो, मगर यह बिखराव है। और इस बिखराव में कभी तुम्हें विश्राम न मिलेगा। तुम तपोगे, सड़ोगे, मरोगे; जिओगे कभी भी नहीं।
जीवन का संबंध तो तब होता है, जब तुम्हारी सारी वासनाएं एक अभीप्सा में समाहित हो जाती है; जब तुम्हारी अलग अलग दिशाओं में दौड़ती हुई कामनाएं एक जिज्ञासा में रूपांतरित हो जाती है!-