कलियुग के कल्मषों से निवृत्ति दिलाता है राम के चरित्रों का अनुशीलन

Update: 2022-04-09 11:55 GMT


प्रभु श्रीराम ने अपने जीवन में तमाम मुश्किलों का सामना किया था लेकिन अपने स्वाभाविक चरित्र में वे हमेशा अवस्थित रहे।मर्यादाओं की राह जीवन भर चलते रहकर मर्यादा पुरुषोत्तम हो गये।जीवन जीने की अद्भुत कला उनके जीवन प्रसंगों से सीखी जा सकती है।जिंदगी सुख और दुख दोनों अवसरों को दिखाती है।सुख पाकर मनुष्य अतिप्रसन्नता में और दुख पाकर विषाद में अपनी सहजता और निजता से कहीं दूर जाकर अपने सहज स्वभाव से विचलित हो जाता है। प्रभु श्रीराम के स्वभाव का यही वैशिष्ट्य है कि सुख और दुख में समता का पुट बना ही रहा।आज वे जगतपूज्य हैं तो उसके पीछे यही कारण है कि लोग उनके स्वभाव और चरित्र के पुजारी हैं।माता, पिता, गुरु, शिष्य, भाई आदि तमाम शारीरिक सम्बन्धों को मर्यादा के साथ उन्होंने जिया है।उनके जीवन की प्रत्येक घटना समाज के लिए प्रेरक हैं।वर्तमान में सामाजिक सौहार्द और पारिवारिक मधुरता का जो लोप दृष्टिगोचर होता दिख रहा है उसकी पुनर्स्थापना केवल और केवल श्रीराम के चरित्रों को आत्मसात करके ही सम्भव दिखाई देता है।भाई-भाई में झगड़े आज की कड़वी हकीकत है।अधिकतर विवाद सम्पत्ति के बंटवारे को लेकर ही चलते दिखाई देते हैं।थोड़ी थोड़ी जमीन और सम्पत्ति की खातिर नौबत हिंसा और अदालतों तक जा पहुंचती है।लेकिन प्रभु राम ने तो भाई भरत को अयोध्या की गद्दी हंसते हंसते सौप दी थी।क्या राम को उनके पिता दशरथ ने वनवास दिया था? या उनकी माता कौशल्या ने उन्हें वनगमन का आदेश सुनाया था? इन दोनों में से किसी ने भी तो उन्हें वन जाने के लिए नही कहा था।तो क्या राम सौतेली माँ कैकेयी के वरदानों की वजह से चौदह बरस वनवासी हो गये?जी हां श्रीराम सौतेली माँ के वचनों की मर्यादा बनी रहे इसलिए वन को चले गये।


जरा सोचकर देखिए जिन राम को राजतिलक देने की तैयारी चल रही थी उन्हें अगले ही दिन उदासीन वेश धारण कर वनवासी होना पड़ा हो तो कितना कष्ट हुआ होगा लेकिन बावजूद इसके उनके चेहरे पर खिन्नता की लेशमात्र भी उपस्थिति न दिखी।आज का आदमी होता तो यही कह कर मुकर जाता कि यह इच्छा कौन मेरी जन्मदात्री या सगी माँ की है, और सौतेली माँ को वर्तमान परिवेश में परायेपन के भावों से देखने का रोग ही लग गया है समाज को। प्रभु श्री राम ने सगी माँ से सौतेली माँ का महत्व कई गुना करके दिखाया है।गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीराम चरित मानस में यह वर्णन किया है कि जिनकी श्वास प्रति श्वास में वेद के मंत्रों उनकी ऋचाओं का स्पंदन सहज ही होता था ऐसे अखिल कोटि ब्रह्माण्ड नायक प्रभु श्री राम गुरु के आश्रम में विद्याध्ययन करने जाते हैं।ऐसा करके वह जगत के लोगों को मानो यह उपदेश करते हैं कि विद्या प्राप्त करने के लिए गुरु चरणों में निमग्न होने की आवश्यकता है।साथ ही शीलता और विनम्रता के गुणों को धारण करके अकिंचन सी स्थिति में जब व्यक्ति गुरुचरणों में बैठेगा तो गुरु कृपा का वर्षण होने में देर नही होगी।जगतपति जब गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र के अंगुल्यानिर्देश पर चलता है तो कदाचित हम संसारियों को यह शिक्षा देना चाहता होगा कि ज्ञान, विज्ञान से लबालब भरे होने के बावजूद भी गुरु के लखाये मार्ग का अनुसरण ही कल्याणकारी होता है।प्रभु श्री राम ने जिन्दगी भर विपत्तियों का सामना किया किन्तु अन्दर की प्रसन्नता हमेशा बनाये रखी। इसीलिए कष्ट के क्षणों में लोग हे राम या हाय राम कहकर प्रभु श्रीराम का स्मरण करते हैं जिससे उन्हें सम्बल प्राप्त होता है।विवाह के कुछ ही दिनों बाद श्रीराम को मां जानकी को साथ लेकर वन को जाना पड़ा था। माँ जानकी कोई आदिवासी घराने से तो थीं नही कि उन्हें जंगल में रहने का अभ्यास रहा हो वे तो राजा जनक की लाड़ली दुलारी थीं।मायके में समस्त वैभव उनके चरणों में लोटता था।ऐसे में सुकोमल चरणों से वनपथ की कटीली और पथरीली भूमि पर जब मां जानकी चलती रही होंगी तो उनके स्वामी प्रभु राम के हृदय की पीड़ा को कोई शब्दों में कैसे बयान कर सकता है, लेकिन मर्यादा की डोर को मजबूती से थामें प्रभु जीवन यात्रा में आगे बढते रहे।रघुकुल की मान मर्यादा और वचन निभाने की प्रतिबद्धता पर कहीं आंच न आये इसलिए प्रसन्नता के साथ वन चले गए और इस तरह पिता के वचनों की रक्षा करके एक योग्य पुत्र की भूमिका को जीवन्त किया।प्रभु राम का एक विशेष चरित्र उल्लेखनीय है कि जीवन भर परस्त्री को माता या बहन के रूप में ही देखा।सूर्पनखा प्रसंग इसी ओर इशारा करता है।शबरी के झूठे बेर खाकर यह दिखाया कि प्रेम के बन्धनों में बांधकर ब्रह्म को भी उसके नियमों के उल्लंघन पर मजबूर किया जा सकता है।शबरी, कोल, भील, निषादराज को गले लगाकर ऊंच नीच की सारी खाई को उन्होंने पाटने की कोशिश की।लंका विजय के पश्चात जब अयोध्या का राज्य संभाला तो एक रजक के कहने पर मां जानकी को सगर्भा स्थिति में वन को भेज दिया।पत्नी को इस स्थिति में जंगल छोड़ कर क्या प्रभु राम दुखी न हुए होंगे?निश्चित ही हुए होंगे लेकिन प्रजा को अपने शासन में महत्ता देने के लिए उन्होंने ऐसा भी किया।वरना जो राम शबरी और अहिल्या के दुख को नही देख पाये वे माँ जानकी को कैसे दुख दे सकते हैं।वन में गये तो पत्नी का हरण हो गया,लौटकर अयोध्या आये तो रजक ने इल्जाम लगा दिया।कितना सहन किया इस किरदार ने अपने जीवन में,और मुंह से उफ्फ भी न किया।पिता का पार्थिव शरीर पडा़ था और खुद जंगल का वास करने चल दिए।राम का ही ऐसा चरित्र हो सकता है जो अन्दर के आनन्द को सुख हो या दुख तिरोहित होने नही देता है।राम भारत के प्राणतत्व हैं।राम के जीवन का अनुसरण देश, समाज, व्यक्ति को पतित होने से बचा लेता है।राम का स्मरण, उनकी कथायें हमें और हमारे समाज को सुनते रहना चाहिए इससे समाज की मनोमालिन्यता दूर होती रहेगी।गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम चरित मानस की रचना करके जनमानस पर बहुत बड़ा उपकार किया है। जो काम राम करते हैं वही काम यह ग्रन्थ भी करता है।रामनवमी के दिन ही प्रभु श्री राम और श्री राम चरित मानस दोनों का हा ही प्राकट्य हुआ था।प्रभु राम का ही वाड्मय स्वरूप मानस की पोथी है।जिसके गायन से, मनन से, प्रचार प्रसार से कलियुग के कल्मषों से निवृत्ति होती है।प्रभु राम अकारण करुणावरुणालय हैं।"जाकी कृपा लवलेश ते मतिमंद तुलसीदासहूं पायो परम विश्राम राम समान प्रभु नाही कहूं " के द्वारा श्री गोस्वामी तुलसीदास जी अपने जीवन की धन्यता को बखानते हुए कहते हैं कि मेरे जीवन की दीनता का हरण करके मुझ जैसे मतिमंद तुलसीदास को तुलसी पत्र जैसा पवित्र और अलंकृत करने वाले मेरे राम के अलावा और दूसरा कौन है जिसकी कृपा से मुझे परम विश्राम की प्राप्ति हुई है।आज के परिवेश का परिमार्जन करने के लिए राम तथा रामकथा का प्रचार प्रसार होते रहना नितान्त आवश्यक है।

रमा निवास तिवारी

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