"स्वातंत्र वीर सावरकर" इस राष्ट्र से प्रेम करने वाले लोगों के लिए बनाई गई फिल्म है

Update: 2024-04-08 05:30 GMT

ध्रुव कांडपाल : फिल्म समीक्षक 

निर्देशक रणदीप हुड्डा ने "स्वातंत्र वीर सावरकर" फिल्म के एक-एक दृश्य को पेंटिंग की तरह पर्दे पर चित्रित किया है। जैसे-जैसे फिल्म आंखों के सामने से गुजरती है, स्वातंत्र वीर सावरकर का एक-एक फ्रेम अत्यंत महत्वपूर्ण होता चला जाता है। फिल्म देखते समय यादृच्छिक सुनाई देने वाली तालियों से महसूस होता है कि फिल्म  में प्रत्येक दर्शक के लिए कुछ ना कुछ महत्वपूर्ण है। यह एक महान क्रांतिकारी की कहानी का प्रभाव है कि फिल्म के दृश्यों पर बजने वाली तालियां पार्श्व संगीत की तरह सुनाई देती हैं।

"स्वातंत्र वीर सावरकर" इस राष्ट्र से प्रेम करने वाले लोगों के लिए बनाई गई फिल्म है। यह ना निर्देशक रणदीप हुड्डा की फिल्म है, ना फिल्म के अभिनेत्री या अभिनेताओं की। यह खालिस भारत के आम जनमानस का सिनेमा है और देश के प्रत्येक नागरिक को भारत की स्वतंत्रता हेतु हुए संघर्षों एवं बलिदानों को जानने के लिए यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए। यह कोई सामान्य कहानी नहीं है। यह समर्पण की कहानी है: विनायक दामोदर सावरकर के राष्ट्र प्रेम का वह सत्य है जिसे उनके पूरे परिवार ने आत्मसात किया तथा मुस्कुराते हुए अपना सर्वस्व राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया। बड़े भाई गणेश सावरकर ने अपने जीवन का समर्पण कर दिया, सरस्वतीबाई ने अपने परिवार का समर्पण कर दिया, यमुनाबाइ ने अपने पति और पुत्र को समर्पित कर दिया, नारायण सावरकर ने अपने बचपन एवं युवावस्था को राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए अर्पित कर दिया। रणदीप हुड्डा ने इस फिल्म के एक-एक दृश्य को बेशकीमती रत्न की तरह स्वातंत्र वीर सावरकर रूपी आभूषण में पिरोया है।

स्वातंत्र वीर सावरकर एक ऐसी फिल्म है जिसके सभी चरित्र भले ही वो 1 सेकेंड के लिए परदे में पर आएं या 1 घंटे के लिए, वे सभी इस फिल्म के नायक नजर आते हैं। यह वीर सावरकर की ही चेतना थी कि उनके संपर्क में जो आया, राष्ट्र भक्ति से स्वतः भर गया। वीर सावरकर ने अपने प्रखर दैदिप्य से बुझे दीयों में लौ जगाई और जलती लौ को मशाल बना दिया। फिल्म के एक दृश्य में जब इंडिया हाउस में रहने वाला एक विद्यार्थी जो पहले पांच पौंड के लिए वीर सावरकर तथा अन्य क्रांतिकार्यों के कार्यों की मुखबरी अंग्रेज अफसर से करता था, सावरकर के प्रभाव से बाद में अपने प्राणों की आहुति दे देता है लेकिन क्रांतिकारियों के बारे में एक शब्द अंग्रेज अफसर के आगे नहीं बोलता।

फिल्म का वह दृश्य जब वीर सावरकर एक ध्वज तैयार करके मैडम भीकाजी कामा तथा अन्य प्रमुख सदस्यों के समक्ष लाते हैं और उस ध्वज को देखकर मदन लाल ढींगरा कहते हैं यहां स्वतंत्र भारत का ध्वज है तब वीर सावरकर, मदन लाल ढींगरा को अखंड भारत के मानचित्र की ओर इंगित करते हुए कहते हैं- अखंड भारत का ध्वज। तथा उसके बाद ध्वज में वर्णित सभी धर्मों के चिन्हों एवं रंगों का वर्णन सावरकर के सद्भाव, दूरदृष्टि एवं अखंडता का चित्रण है।

सेल्यूलर जेल से मुक्त होने के बाद भी अंग्रेजो को वीर सावरकर का इतना खौफ था कि अंग्रेजी हुकूमत वीर सावरकर को रत्नागिरी में नजरबंद कर उनपर सख्त पहरा रखते थे। नजरबंद होने के बावजूद वीर सावरकर समाज के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध रहे। सामूहिक भोजन आयोजित करना, मंदिर प्रवेश के लिए संघर्ष तथा समाज के सभी वर्गों के लिए पवितपावन मंदिर का निर्माण एवं सामाजिक समरसता के लिए वीर सावरकर आजीवन जुटे रहे।

फिल्म का पहले हाफ में वीर सावरकर के संघर्ष में जितनी ऊंचाई है, दूसरे हाफ के संघर्ष में उतनी गहराई है। फिल्म जिस ऊर्जा के साथ प्रारंभ होती है वह भारत से लंदन और लंदन से सेल्यूलर जेल की यातनाएं सहती हुई होती हुई पुनः अखंड भारत के निर्माण को तत्पर वीर सावरकर के उसी ऊर्जा और उत्साह पर समाप्त होती है।

"स्वातंत्र वीर सावरकर" सिनेमा के सभी मापदंडों पर बेहतर तरीके से खरी उतरती है। "स्वातंत्र वीर सावरकर" की कहानी तो महत्वपूर्ण है ही लेकिन स्क्रीनप्ले बेहद लाजवाब करता है। बड़ी और सच्ची कहानी कहना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, और रणदीप हुड्डा तथा उत्कर्ष नैथानी ने ये जिम्मेदारी बखूबी निभाई है। "स्वातंत्र वीर सावरकर" का फिल्मांकन और संपादन बहुत बेहतरीन है। एक निर्देशक के तौर पर यह फिल्म रणदीप हुड्डा की पहली फिल्म बिलकुल भी नहीं लगती। रणदीप हुड्डा ने समसामयिक निर्देशकों की कल्पना से बहुत आगे का सिनेमा बनाकर अपने आप को एक उम्दा निर्देशक के तौर पर साबित किया है। "स्वातंत्र वीर सावरकर" फिल्म इस समय की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म है, जो भारतीय सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित होगी।

संगीत, संपादन, निर्देशन, वेशभूषा, अभिनय सब बहुत प्रभावित करता हैं। स्वातंत्र वीर सावरकर फिल्म के कई दृश्य दर्शकों के मन को भीतर तक झकझोर देते हैं। अपने बेटे की मृत्यु के बाद वीर सावरकर की वेदना भीतर तक झकझोरने वाली है। फिल्म का यह दृश्य अपने अभिनय, पार्श्व संगीत तथा फिल्मांकन द्वारा स्वयं में एक करुण कविता रचता है जो दर्शकों के अंतःकरण को व्यथित कर देता है। सेल्यूलर जेल का वह दृश्य जब एक ही जेल में वर्षों से कैद, एक साथ सजा काट रहे गणेश सवारकर और वीर सावरकर वर्षों बाद एक दूसरे से गले मिलते हैं। स्वातंत्र वीर सावरकर का यह दृश्य इस पुण्य भूमि की स्वतंत्रता के लिए अपना सबकुछ नौछावर करने वाले क्रातिकारियों के समर्पण और त्याग को बखूबी दर्शाता है। कई दिनों तक एक खूंटे से लटके रहने की पीड़ा, ना खड़े रहने की ताकत ना बैठने का स्थान और कलाइयों से रिछते हुए रक्त की प्रत्येक बूंद कहती है कि इस स्वतंत्रता रूपी वृक्ष को वीर सावरकर ने अपने रक्त से सींचा है।

फिल्म के संवाद बहुत उम्दा लिखे हैं, वो शिक्षित करते हैं, उत्साहित करते हैं, हंसाते हैं, दुखी करते हैं, रुलाते हैं, प्रश्न खड़े करते हैं और प्रश्नों का उत्तर भी देते हैं। फिल्म के पात्र सीधे दर्शकों से संवाद करते नजर आते हैं। स्वातंत्र वीर सावरकर के वह संवाद जहां वीर सावरकर दृष्टिकोण बदलने की बात करते हैं, उन तमाम स्पष्टताओं में आज भी गर्त लगी हुई है। इन गर्तों को हटाने के लिए स्वातंत्र वीर सावरकर फिल्म महत्वपूर्ण हो जाती है।

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