अपनी बात अथवा मांग को सरकार तक पहुंचाने और मनवाने के लिए व्यक्ति अथवा संगठन आदि ज्ञापन, पत्र व्यवहार, धरना,प्रदर्शन, हड़ताल, हड़ताली जुलूस, आंदोलन अथवा बंद तक का सहारा संवैधानिक रूप से लेते हैं जिसका अहिंसक तरीके से करने का अधिकार संविधान में हर व्यक्ति और संगठन आदि को दिया है.हड़ताल, हड़ताली जुलूस, आंदोलन अथवा बंद तक की नौबत तो बहुत बाद की स्थिति है. इससे पहले तो ज्ञापन से बात नहीं बनी तो धरना अथवा प्रदर्शन अथवा टेबल टॉक तक भी बात बनने की प्रबल सम्भावनएं रहती हैं. किन्तु आखिर हड़ताल, आंदोलन और बंद तक की नौबत क्यों आ जाती है ? क्या इस बीच में दोनों ओर से विद्वता नहीं दिखाई जा सकती ? आखिर क्यों स्वार्थ और जिद्द के चलते देश को करोड़ों रुपयों की आर्थिक हानि और लोगों को बेवजह की परेशानी में डाला जाता है ? अंततोगत्वा कहीं न कहीं तो दोनों को समझौता करना ही पड़ता है फिर ऐसी नौबत क्यों लाई जाती है ?
हम दूर क्यों जाएँ हाल ही में दीर्घकाल तक चले आंदोलन का उदहारण देख लें जहाँ अंत में आखिर किसी एक को तो समझौता करना ही पड़ा. अभी-अभी दो दिन की बैंक कर्मचारियों कोई हड़ताल के कारण देश की बैंकों में तालाबंदी रही. इससे बैंकों को तो आर्थिक हानि उठानी ही पड़ी, सरकार को भी राजस्व का नुकसान हुआ, पब्लिक भी परेशान हुई साथ ही बैंक कर्मचारियों की भी "नो वर्क नो पेय'' के नियमानुसार दो दिन की आर्थिक हानि हुई. लोगों की परेशानी और देश की हानि को मद्देनजर रखते हुए संगठनों और सरकार को गंभीरता से विचार-विमर्श करना चाहिए। दोनों को स्वार्थ, वर्चस्व और राजनीतिक लाभ-हानि से परे रहकर जनहित में किसी भी तरह की हड़ताल या आंदोलन की नौबत न आये और न ही समस्या गले की हड्डी बनने पाए उससे पहले ही शांतिपूर्वक वार्ता के जरिये विचार-विमर्श करके समस्याओं का समाधान कर लेना चाहिए.........
शकुंतला महेश नेनावा