टीबी से निपटने में बाधक सदियों से चली आ रही असमानताएं और अन्याय :शोभा शुक्ला, बॉबी रमाकांत – सीएनएस
प्रख्यात अमेरिकन लेखक जॉन ग्रीन ने पिछले साल संयक्त राष्ट्र महासभा के एक सत्र में कहा था कि टीबी से मृत्यु के लिए हम मनुष्य ही ज़िम्मेदार हैं क्योंकि यह मानव-निर्मित प्रणालियों का नतीजा है। इसका एक ही अर्थ निकलता है कि हर मानव जीवन को हम एक-समान बहुमूल्य नहीं मानते”।
टीबी महामारी और टीबी नियंत्रण कार्यक्रम के लंबे इतिहास को देखें तो पाएंगे कि सदियों से इसमें अनेक असमानताएं और अन्याय व्याप्त रहे हैं। वरना पक्की जाँच, पक्का इलाज और टीबी बचाव के प्रमाणित साधन और जानकारी होने के बावजूद, पिछले साल विश्व भर में 11 लाख लोग टीबी से मृत नहीं हुए होते और 1 करोड़ 8 लाख लोग टीबी से ग्रसित नहीं हुए होते। इनमें से अधिकांश टीबी रोग और मृत्यु ग्लोबल साउथ के ग़रीब या विकासशील देश में हुई हैं (न कि अमीर देशों में)। दुनिया के सभी देशों की तुलना में टीबी से संक्रमित सबसे अधिक लोग भारत में हैं।
महात्मा गांधी की पौत्री और दक्षिण अफ़्रीका की पूर्व सांसद और सामाजिक कार्यकर्ता इला गांधी ने सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) को बताया कि 1882 में जब डॉ रॉबर्ट कॉच ने यह प्रमाणित किया कि टीबी रोग एक बैक्टीरिया के कारण होता है तो उन दस्तावेजों में केवल अमरीका और यूरोप के देशों में टीबी के सबसे प्रमुख घातक संक्रामक रोग होने का ज़िक्र है। अफ़्रीका और एशिया का ज़िक्र क्यों नहीं है?
हम लोग यह कह के बच जाते हैं कि टीबी ग़रीबी की बीमारी है पर यह नहीं बताते हैं कि सामाजिक अन्याय और असमानता और दोहरी स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा -जो अमीर-गरीब में भेद करती हो - के कारण लाखों लोग टीबी रोग का शिकार होने को मजबूर हैं। जब ग़रीबी, कुपोषण, हवादार और पक्के घर का अभाव, सामाजिक न्याय के अनुरूप आय न होना, ज़मीनी हक़ीक़त है, तो ऐसे में टीबी कैसे खत्म होगी? विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, टीबी रोग का सबसे बड़ा कारण तो कुपोषण है। कुपोषण स्वयं में ही संगीन मानवाधिकार उल्लंघन है।
100 साल पहले, टीबी रोगियों की देखभाल करते थे ये अश्वेत देवदूत
100 साल पहले अमरीका के न्यू यॉर्क स्टेट में, टीबी सबसे जानलेवा संक्रामक रोग था। हज़ारों लोगों टीबी के कारण हर साल मृत हो रहे थे। ऐसे में न्यू यॉर्क में स्टेटन आइलैंड नामक स्थान पर 1913 में केवल टीबी से ग्रसित लोगों की देखभाल के लिए सीव्यू अस्पताल बनाया गया। उस समय टीबी का इलाज तो था नहीं, तो यह अस्पताल टीबी सैनिटोरियम भी था।
इस अस्पताल में सिर्फ़ अश्वेत नर्सें कार्यरत थीं क्योंकि श्वेत नर्सों ने टीबी रोगियों की देखभाल करने से मना कर दिया था (क्योंकि टीबी से संक्रमित होने का खतरा अत्यधिक था और इलाज था नहीं)।
हाल ही में सीएनएस संस्थापक शोभा शुक्ला ऐसी ही अश्वेत नर्स, वर्जीनिया एलेन से मिलीं जो 1947 से 1957 तक सीव्यू अस्पताल में कार्यरत थीं। वर्जीनिया इस समय 93 वर्ष से अधिक आयु की हैं, अपना सभी ज़रूरी कार्य स्वयं करती हैं और स्वयं अपनी कार चलाती हैं।
वर्जीनिया ने 16 वर्ष की आयु में सीव्यू अस्पताल में एक प्रशिक्षु नर्स के रूप में कार्य शुरू किया। उनको टीबी से ग्रसित बच्चों की देखभाल के लिए नियुक्त किया गया था।
वर्जीनिया ने बताया कि अश्वेत नर्सें, सीव्यू अस्पताल में बड़ी मेहनत से कार्य करती थीं क्योंकि न्यू यॉर्क शहर के 29 अस्पतालों में से सिर्फ़ 4 अस्पतालों में अश्वेत नर्स कार्य कर सकती थीं, जिनमें सीव्यू अस्पताल भी एक था – बाक़ी सभी अस्पतालों में केवल श्वेत नर्स को ही नियुक्ति मिलती थी।तब रंग-भेद अपने चरम पर था। गौर तलब है कि जब अश्वेत नर्सें वहाँ काम कर रही थीं तब टीबी का कोई इलाज नहीं था। मगर वे अपनी जान जोखिम में डाल कर टीबी रोगियों की सेवा में रत थीं।
वर्जीनिया ने बताया कि टीबी ग्रसित बच्चों के साथ कार्य करना जटिल था क्योंकि न केवल वे एक ऐसी बीमारी से ग्रस्त थे जिसका कोई इलाज नहीं था, वरन् वे अपने माता पिता और परिवार से भी दूर थे (संक्रमण फैलने के डर से इन टीबी ग्रसित बच्चों को अस्पताल में परिवार से अलग रखा गया था)।
इसीलिए सी व्यू अस्पताल में भर्ती टीबी रोगी, इन अश्वेत नर्सों को सम्मानपूर्वक “अश्वेत देवदूत” (ब्लैक एंजेल) नाम से संबोधित करते थे।
1951 में आइसोनियाज़िड नामक दवा का परीक्षण होना था जिससे यह पता चले कि यह औषधि टीबी के इलाज में कारगर होगी या नहीं। सीव्यू अस्पताल में भर्ती टीबी रोगियों पर आइसोनियाज़िड दवा का परीक्षण होना तय हुआ। यह एक ऐतिहासिक अध्ययन था, क्योंकि आइसोनियाज़िड दवा उन रोगियों पर कारगर हुई जिन पर उस समय उपलब्ध अन्य दवाएँ असफल रही थीं। नतीजों ने यह सिद्ध किया कि टीबी इलाज के लिए आइसोनियाज़िड एक प्रभावकारी दवा है और अन्य दवाओं के साथ देने से उपचार के बेहतर परिणाम.मिलते हैं। आज भी टीबी के इलाज के लिए पहली पंक्ति की सबसे अधिक प्रभावकारी दवाओं में से एक आइसोनियाज़िड है।
इस परीक्षण को करने में अश्वेत नर्सों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों ने अभूतपूर्व भूमिका निभायी- हर रोगी से संस्तुति लेना, उन्हें नियमानुसार दवा देना, मरीजों की नियमित निगरानी और निरीक्षण करना, तथा प्रभारी डॉक्टरों (डॉ. एडवर्ड रोबिट्जेक और डॉ. इरविंग सेलिकॉफ) को परिणामों की रिपोर्ट देना। दस्तावेज़ों के अनुसार डॉ एडवर्ड रॉबिट्ज़ेक ने यह ज़िक्र भी किया था कि यदि अश्वेत नर्स और अन्य स्वास्थ्य कर्मी न होते, तो यह परीक्षण हो ही नहीं सकता था।
इस वैज्ञानिक कार्य के लिए डॉ एडवर्ड और डॉ इरविंग को प्रख्यात “लस्कर पुरुस्कार” मिला, लेकिन अश्वेत नर्सों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की मेहनत को कोई मान्यता नहीं मिली।
क्या आपने ब्लैक एंजेल्स (अश्वेत देवदूत) नामक पुस्तक पढ़ी है ?
मारिया स्माइलियोस ने इन अश्वेत नर्सों पर एक बहुचर्चित और पुरस्कृत पुस्तक लिखी है जिसका शीर्षक है “द ब्लैक एंजेल्स: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ द नर्सेज हु हेल्पेड क्योर ट्यूबरक्लोसिस (The Black Angels: the untold story of the nurses who helped cure tuberculosis who helped cure tuberculosis)”। ब्लैक एंजेल यानी अश्वेत नर्स। इस पुस्तक में न सिर्फ़ वर्जीनिया एलेन का साक्षात्कार है , बल्कि अन्य अश्वेत नर्सों के साक्षात्कार भी शामिल हैं जो 70-80 साल पहले सीव्यू अस्पताल में कार्यरत रही थीं। मारिया ने आइसोनियाज़िड परीक्षण में प्रतिभागी लोगों का भी साक्षात्कार किया जो उस समय सीव्यू अस्पताल में भर्ती थे और इस अध्ययन में भागीदार थे।
मारिया ने सीएनएस से कहा कि इस वैज्ञानिक अध्ययन के वर्णन में अश्वेत महिलाओं के योगदान का कोई ज़िक्र क्यों नहीं हैं? वे भी तो सम्मान और पुरस्कार की हक़दार थीं।
आइसोनियाज़िड शोध में भी पुरुष शोधकर्ताओं को सम्मानित करना उचित है, पर जिन अश्वेत नर्सों ने इस परीक्षण में अहम भूमिका निभायी थी उनको को भी सम्मान मिलना चाहिए था।
क्या हर जीवन समान रूप से बहुमूल्य है?
मारिया स्मिलियोस ने कहा कि दोहरी स्वास्थ्य व्यवस्था के चलते, व्यवस्था में व्याप्त अन्याय ख़त्म नहीं हो सकते। अमीर और गरीब के लिए दो अलग स्वास्थ्य व्यवस्थाएं हैं जहां अमीर के लिए तो सभी अत्याधुनिक सेवाएँ उपलब्ध हैं, परंतु गरीब के लिए मूलभूत सुविधाएं तक दुर्लभ हैं।
ज़िम्बाब्वे की एचआईवी पॉजिटिव और टीबी पर विजय पा चुकीं तरीरो कुताडज़ा ने सीएनएस को बताया कि वर्जीनिया एलेन और अन्य अश्वेत नर्सों को सलाम है क्योंकि उन्होंने अपना कर्तव्य बिना भेदभाव के निभाया। सीव्यू अस्पताल में अनेक देशों के रोगी आते थे- श्वेत भी और अश्वेत भी। पर सभी का सम्मान से देखभाल करने वाली अश्वेत नर्सें ही थीं। सवाल तो उन श्वेत नर्सों पर है जिन्होंने टीबी रोगियों की देखभाल करने से मना कर दिया।
तरीरो ने कहा कि टीबी आज भी अन्याय का शिकार है। ऐसा क्यों है कि हर साल अधिकांश टीबी सिर्फ़ ग़रीब या विकासशील देशों में होती है, न कि अमीर देशों में? टीबी से होने वाली सबसे अधिक मृत्यु भी ग़रीब या विकासशील देशों में हुईं।
तरीरो ने कहा कि इसी साल अमरीका के "लोंग आइलैंड" नामक जगह में एक टीबी से ग्रसित व्यक्ति की और कुछ और लोग की संभावित टीबी होने की पुष्टि हुई। जन स्वास्थ्य आपदा घोषित हो गई। पर गरीब और विकासशील देशों में तो सैंकड़ों-हज़ारों लोग रोज़ाना टीबी से ग्रसित होते हैं तो जन स्वास्थ्य और सामाजिक अन्याय आपदा क्यों नहीं घोषित होती है?
तरीरो की माँग है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की मार्गनिर्देशिका के अनुसार, टीबी की उचित जांच और इलाज हो और टीबी से बचाव हो- जब आज के समय में हमारे पास टीबी के निदान, उपचार और बचाव के लिए सर्वोत्तम उपकरण मौजूद हैं।
परंतु जमीनी हकीकत इससे परे है: टीबी जाँच, टीबी इलाज और रोकथाम सब स्थानों पर संतोषजनक ढंग से नहीं होती है। इसका नतीजा है कि पिछले वर्ष विश्व में 108 लाख लोगों को टीबी रोग हुआ और 11 लाख की मृत्यु।
तरीरो का कहना सही है कि दुनिया के सभी देश 2030 तक टीबी उन्मूलन का वायदा तो करते हैं परंतु न भुखमरी का अंत करते हैं, न ग़रीबी का। न सबके लिए नवीनतम टीबी जांच (मॉलिक्यूलर टेस्ट) उपलब्ध करवाते हैं और न ही नवीनतम इलाज।
लेखिका मारिया स्माइल्स ने कहा कि कितना विरोधाभास है कि हम एक ही वाक्य में यह कहते हैं कि ‘टीबी की पक्की जाँच, पक्का इलाज है' और यह भी कि 'टीबी दुनिया का सबसे घातक संक्रामक रोग है’। जब पक्की जांच और इलाज है तो टीबी क्यों सबसे घातक संक्रामक रोग बना हुआ है? लोग टीबी से ग्रसित होते हैं और मृत तक होते हैं क्योंकि अन्याय व्याप्त है। यदि स्वास्थ्य सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा सभी को एक समान मिलती तो टीबी क्यों पनपता?
गैब्रिएला लियोन एक प्रख्यात प्रदर्शनी संग्रहाध्यक्ष हैं जिनकी प्रदर्शनी, "टेकिंग केयर: ब्लैक एंजेल्स ऑफ़ सीव्यू हॉस्पिटल (सीव्यू अस्पताल की अश्वेत नर्सें जो सबकी देखभाल करती हैं)", 29 दिसंबर 2024 तक स्टेटन आइलैंड म्यूजियम में लगी है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनुसार, हर संभावित टीबी रोगी को आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस युक्त, हाथ में ली एक्सरे मशीन से परखना चाहिए, यदि संभावित टीबी मिले तो मॉलिक्यूलर टेस्ट से जांच मिलनी चाहिए, यदि टीबी रोग हो तो ड्रग सेंस्टिविटी टेस्ट हो जिससे कि यह पता चले कि रोगी के टीबी बैक्टीरिया पर कौन सी दवाएँ प्रभावकारी रहेंगी, और इलाज पूरा हो – और सभी मुमकिन सहायता मिले। इतनी तरक्की हो चुकी है कि टीबी परखने वाले एक्स-रे से मॉलिक्यूलर टेस्ट जांच और इलाज एक दिन में शुरू हो सकता है। पर अधिकांश टीबी कार्यकमों का मूल्यांकन करें तो पाएंगे कि ज़मीनी हकीकत इससे परे हैं। उदाहरण के तौर पर, दुनिया में पचास प्रतिशत टीबी रोगियों को मॉलिक्यूलर टेस्ट जांच तक मुहैया नहीं। भारत समेत अनेक देशों में टीबी रोगियों को पक्की जांच काफ़ी देरी से मिलती है (जिसके कारण वे अनावश्यक पीड़ा झेलते हैं और संक्रमण फैलता रहता है)।
2030 तक दुनिया की सभी सरकारों ने टीबी उन्मूलन करने का वायदा किया है। भारत सरकार ने 2025 तक टीबी उन्मूलन का स्वप्न साकार करने का वायदा किया है। टीबी उन्मूलन का रास्ता सतत विकास के द्वारा ही पूरा हो सकता है।