10 वर्षों में भारत की 55 फीसदी इलाकों में बारिश बढ़ी

Update: 2024-01-17 12:19 GMT

नई दिल्ली, 17 जनवरी (आरएनएस) । भारत के अधिकांश हिस्से में दक्षिण-पश्चिम मानसून वर्षा में बढ़ोतरी देखी जा रही है। काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के एक अध्ययन के अनुसार, देश की 55 फीसदी 'तहसीलों' या सब-डिस्ट्रिक्ट में पिछले दशक (2012-2022) में बारिश में 10 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी दिखाई दे रही है। इसमें राजस्थान, गुजरात, मध्य महाराष्ट्र और तमिलनाडु कुछ भागों जैसे पारंपरिक रूप से सूखे क्षेत्रों की तहसीलें शामिल हैं। इनमें से लगभग एक-चौथाई तहसीलों में जून से सितंबर की अवधि के दौरान वर्षा में 30 प्रतिशत से अधिक की स्पष्ट बढ़ोतरी देखी जा रही है। सीईईडब्ल्यू ने ‘डिकोडिंग इंडियाज चेंजिंग मानसून पैटर्न में पूरे देश में 4,500 से अधिक तहसीलों में 40 वर्षों (1982-2022) के दौरान हुई बारिश का अपनी तरह का पहला सूक्ष्म विश्लेषण किया है। इससे पिछले दशक में तेजी से बदलने वाले और अनियमित मानसून पैटर्न की जानकारी सामने आई है।

इसके लिए जलवायु परिवर्तन की तेज होती दर को कारण माना जा सकता है। सीईईडब्ल्यू के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि इन तहसीलों में बारिश में वृद्धि ‘कम समय में भारी वर्षा’ के रूप में हो रही है,। 2023 को वैश्विक स्तर पर सबसे गर्म वर्ष घोषित किया गया था, और 2024 में भी यह रुझान जारी रहने का अनुमान है। ऐसे में जलवायु संकट के विभिन्न प्रभाव मौसम की चरम घटनाओं में बढ़ोतरी के रूप में दिखाई दे सकते हैं। सीईईडब्ल्यू अध्ययन से पता चलता है कि पिछले दशक में देश की सिर्फ 11 प्रतिशत तहसीलों में दक्षिण-पश्चिम मानसूनी बारिश में कमी दिखाई दी है।

ये सभी तहसीलें वर्षा आधारित सिंधु-गंगा के मैदान, पूर्वोत्तर भारत और ऊपरी हिमालयी क्षेत्रों में स्थित हैं। ये क्षेत्र भारत के कृषि उत्पादन के लिए अति-महत्वपूर्ण हैं और जहां नाजुक पारिस्थितिकी-तंत्र मौजूद है, जो जलवायु की चरम घटनाओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है। सीईईडब्ल्यू ने कहा कि “जैसा कि भारत 2024 के केंद्रीय बजट के लिए तैयार है, बढ़ती अनियमित बारिश के पैटर्न को देखते हुए अर्थव्यवस्था को भविष्य में ऐसी घटनाओं के प्रभावों से सुरक्षित बनाने पर ध्यान देना महत्वपूर्ण होगा। मानसून हमारे जीवन के सभी पहलुओं पर असर डालता है।

सीईईडब्ल्यू का यह अध्ययन न केवल पूरे भारत में पिछले 40 वर्षों के दौरान दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पूर्वी मानसून के उतार-चढ़ावों की जानकारी जुटाता है, बल्कि स्थानीय स्तर पर जोखिम के आकलन के लिए निर्णय-निर्माताओं को तहसील-स्तरीय बारिश की जानकारी उपलब्ध कराता है। मौसम की बढ़ती चरम घटनाओं को देखते हुए, अति-स्थानीय स्तर पर जलवायु जोखिमों का आकलन करना और कार्य योजनाएं बनाना भारत के लिए बहुत जरूरी है। यह भारत को जलवायु कार्रवाइयों और आपदा जोखिम को घटाने में एक अग्रणी देश बनाए रखेगा। यह जीवन, आजीविका और बुनियादी ढांचे को बचाने में मदद करेगा।

सीईईडब्ल्यू के अध्ययन से पता चलता है कि बारिश में हुई बढ़ोतरी सभी मौसमों और महीनों में अच्छी तरह से बंटी या फैली नहीं है। दक्षिण-पश्चिम मानसून से बारिश में कमी का सामना करने वाली तहसीलों में से 87 प्रतिशत, बिहार, उत्तराखंड, असम और मेघालय जैसे राज्यों में स्थित हैं। इन तहसीलों में जून और जुलाई के शुरुआती मानसूनी महीनों में बारिश में गिरावट देखी गई, जो कि खरीफ फसलों की बुआई के लिए महत्वपूर्ण होती है। दूसरी तरफ, 48 प्रतिशत तहसीलों में अक्टूबर में बारिश में 10 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि देखी गई, जिसके पीछे उपमहाद्वीप से दक्षिण-पश्चिम मानसून की देरी से वापसी जिम्मेदार हो सकती है। इसका सीधा असर रबी फसलों की बुआई पर पड़ता है। सीईईडब्ल्यू ने कहा कि भारत में सूखे और बाढ़ जैसी मौसम की चरम घटनाएं भारतीय मानसून के साथ बहुत निकटता से जुड़ी हैं। हमारे रिसर्च से सामने आया है कि स्वाभाविक रूप से बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव (परिवर्तनशीलता) वाला भारतीय मानसून पिछले दशक में और भी ज्यादा परिवर्तनशील हुआ है, और एक अदला-बदली का पैटर्न (उदाहरण के लिए, बारिश की अधिकता वाली जगहों पर सूखा और सूखे की अधिकता वाली जगहों पर बारिश) प्रदर्शित कर रहा है।

इन उभरती हुई चुनौतियों का प्रभावी ढंग से सामना करने के लिए, कृषि, जल और ऊर्जा जैसे प्रमुख क्षेत्रों पर मानसून की परिवर्तनशीलता के प्रभावों का आकलन किया जाना चाहिए, और इसे सभी स्तरों पर - राज्यों से लेकर जिलों तक- जलवायु कार्य योजनाओं में जोड़ा जाना चाहिए। में, भले ही भारत ने पिछले 40 वर्षों में 29 ‘सामान्य’ दक्षिण-पश्चिम मानसून देखे हों, लेकिन सीईईडब्ल्यू का अध्ययन दिखाता है कि इसका जिला या तहसील स्तर पर बहुत बारीकी से विश्लेषण करने की आवश्यकता है। यह अध्ययन पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के नेशनल मानसून मिशन के उच्च रिजोल्यूशन वाले डेटा पर आधारित है। इससे पता चलता है कि पिछले 40 वर्षों में भारत के लगभग 30 प्रतिशत जिलों में बारिश की कमी वाले वर्षों और 38 प्रतिशत जिलों में बारिश की अधिकता वाले वर्षों की संख्या बढ़ी है। इनमें से नई दिल्ली, बेंगलुरु, नीलगिरी, जयपुर, कच्छ और इंदौर जैसे 23 प्रतिशत जिलों में कम और ज्यादा बारिश वाले दोनों प्रकार के वर्षों की संख्या भी बढ़ी है। इसलिए, प्रादेशिक स्तर पर अनुकूलन रणनीतियों (adaptation strategies) को लागू करने के लिए जलवायु जोखिम के तहसील-स्तरीय आकलन को शामिल करते हुए जिला-स्तरीय जलवायु कार्य योजनाओं को विकसित करना बहुत जरूरी है।

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