आदिवासियों की 'ढुकू' प्रथा जिसे कहते है 'लिव-इन रिलेशन' सदियों पुरानी है
आदिवासियों की 'ढुकू' प्रथा जिसे कहते है 'लिव-इन रिलेशन' सदियों पुरानी है
प्यार करने वाले शादी के बंधंन में बंधे बिना ही साथ रहने का फैसला लेते हैं, उसे लिव-इन रिलेशनशिप कहते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि देश के कई आदिवासी इलाकों में 'ढुकू' के नाम से लिव-इन की प्रथा पहले से चली आ रही है।
ढुकू कपल्स 70 की उम्र में भी शादी करते हैं। ये प्रथा सबसे ज्यादा झारखंड के गुमला, खूंटी, बसिया, घाघरा, पालकोट, चटकपुर, तोरपा, सिमडेगा और मनातू आदि जिलों और यहां के गांवों में देखी गई है।
साल 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक इन जिलों के गांवों में कुल 358 कपल्स लिव-इन में रहते थे। पूरे झारखंड में करीब 2 लाख कपल्स लिव-इन में रहते हैं। आदिवासियों में ढुकू प्रथा प्यार ही नहीं बल्कि मजबूरी की वजह से भी कायम है।
कहां से आया ये ढुकू शब्द?
'ढुकू' शब्द 'ढुकना' से जन्मा है। इसका मतलब है घर में प्रवेश करना। अगर कोई महिला बिना शादी के किसी के घर में रहती है तो उसे 'ढुकू' या ढुकनी महिला कहा जाता हैं। यानी वो महिला जो किसी के घर में दाखिल हो चुकी है या घुस आई है। लिव-इन में रहने वाले कपल्स को 'ढुकू' कपल्स कहते हैं।
शादी के लिए खिलानी पड़ती है पूरे गांव को दावत, इसलिए बनते हैं ढुकू कपल
दरअसल, झारखंड के इन गांवों में शादी को लेकर रस्में काफी अलग हैं। जिन कपल्स को शादी करनी होती है, उनके परिवार को पूरे गांव वालों को दावत देनी होती है। लड़की वाले अपने गांव में लोगों को खाना खिलाते हैं और लड़के के गांव में अलग दावत होती है।
गांव के लोगों को मीट, चावल खिलाने के साथ ही हड़िया का भी इंतजाम करना होता है। इसमें करीब 1 से 1.5 लाख रुपये तक का खर्च आता है। दिन के 200-250 रुपये कमाने वाले परिवारों के लिए इतनी बड़ी रकम इकट्ठी करना काफी मुश्किल होता है।
ऐसे में प्यार करने वाले जोड़े बिना शादी के ही साथ रहना शुरू कर देते हैं। इसलिए ये महिलाएं ढुकू कहलाती हैं। इन्हें समाज में इज्जत नहीं मिलती और न ही ढुकू कपल्स के बच्चों को कानूनी अधिकार मिलता है।
सिंदूर तो लगा लेती थी, लेकिन घर की पूजा में शामिल होने की नहीं मिलती थी इजाजत'
गुमला जिले के चैनपुर गांव की रहने वाली रवीना देवी बताती हैं कि उनकी शादी को पांच साल हो गए हैं लेकिन पति बजरंग कुमार राम के साथ वे पिछले नौ सालों से रह रही हैं। शुरू के चार साल वे ढुकनी बनकर ससुराल रहीं।
शुरुआत का समय उनके लिए काफी दर्दनाक था, क्योंकि लोग उन्हें अछूता मानते थे। हालांकि, उन्हें शादीशुदा महिलाओं की तरह माथे पर सिंदूर लगाने की इजाजत तो मिल गई थी, लेकिन घर की किसी भी पूजा में शामिल नहीं किया जाता था और न ही कभी प्रसाद नसीब होता था। यहां तक की छठ पूजा में शामिल होने की अनुमति नहीं मिलती थी।
शादी से पहले थीं ईसाई, ढुकू बनने के लिए बदला धर्म,
रवीना ने बताया, गांव में शादीशुदा और ढुकू महिला के लिए रिवाज अलग-अलग हैं, लेकिन उन्हें ढुकू बनने से पहले भी एक परीक्षा पास करनी पड़ी। रवीना जन्म से ईसाई धर्म की थी और अपना नाम रवीना इक्का लिखती थीं।
जब वे बजरंग के घर आईं तो उन्हें सबसे पहले अपना धर्म बदलना पड़ा। दो महीने के अंदर उन्हें पंचायत के सामने पेश किया गया। इसके बाद घर में विशेष पूजा कर उन्होंने अपने पति का धर्म अपनाया। तब जाकर उन्हें रसोई में जाने की इजाजत मिली।
गांव के नल से घर के लिए पानी लाना भी किसी जंग से कम नहीं था। कोई जल्दी लाइन में लगने नहीं देता था और अगर वे पहले पानी भर लें तो बाकी महिलाएं उस नल को साफ करने के बाद ही छूती थीं। ये भेदभाव आज भी कई तरह से होता है। हमें लोहे के कड़े पहनने की इजाजत नहीं होती। इसी तरह परेशानी झेलने की वजह से कुछ समय बाद मैंने घर से बाहर निकलना ही बंद कर दिया था।'
'माइके में मां-पिता शराब पीते थे और ससुराल में थे खाने के लाले, इसलिए मैं और छोटी बहन 'ढुकनी' बन गए'
रवीना बताती हैं, 'मेरे मायके में मां और पिता दोनों को शराब पीने की लत थी। इस वजह से मैं कभी स्कूल की शक्ल नहीं देख सकी। उनके पास खाने और शादी के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए मैंने और छोटी बहन ने ढुकनी बनने का फैसला लिया।
ससुराल की हालत ये थी कि पति खेत में ट्रैक्टर चलाने का काम करते हैं और सास आंगनबाड़ी में खाना बनाती हैं। ससुर नहीं है और घर में करीब 6 से 7 सदस्य हैं, बड़ी मुश्किल से खाने का इंतजाम होता इसलिए ससुराल में भी उनके पति के पास शादी के पैसे नहीं थे।'
'शादी के लिए दिया 5 हजार जुर्माना, तब लिए सात फेरे'
ढुकू कपल को शादी करने के लिए गांव वालों को दावत देने के साथ ही पंचायत को जुर्माने की रकम भी देनी पड़ती है। हालांकि ये नियम हर गांव में अलग-अलग है। ऐसा माना जाता है ढुकू कपल समाज की परंपरा को तोड़कर साथ में रहते हैं, इसलिए उन्हें शादी करने से पहले एक आर्थिक दंड के रूप में जुर्माना गांव की पंचायत को देना होगा।
यहां लड़के वाले देते हैं दहेज
सलेश्वरी बताती हैं कि वे ढुकू इसलिए भी बनी क्योंकि दोनों परिवार आर्थिक रूप से बहुत कमजोर थे। गांव की दावत के लिए पैसे नहीं थे। गांव वालों को खिलाने के लिए करीब 1.5 लाख तक का खर्च आता है, इतने पैसे किसी के पास नहीं थे। जब वे शादी करने गई तब गांव वालों ने उनके ऊपर 64 हजार का जुर्माना भी लगाया था।
ढुकू महिला के बच्चों को नहीं मिलता पिता का नाम और संपत्ति
सलेश्वरी बताती हैं कि उनके दो बेटे हैं एक की उम्र 18 साल है और दूसरे की 13 साल। हालांकि उनके दोनों ही बेटे शादी के बाद जन्मे हैं, लेकिन जिन ढुकू कपल के बच्चे होते हैं उन्हें समाज और कागजों में पहचान नहीं मिलती। बच्चों को पिता का नाम नहीं मिल पाता है।
बच्चों के आधार कार्ड तो बनाते हैं लेकिन उसमें पिता का नाम नहीं लिखा जाता। यही दिक्कत राशन कार्ड और स्कूल में दाखिले के समय आती है। इन बच्चों को पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता।
एक ही मंडप पर सास-ससुर और बेटा - बहू करते हैं विवाह
झारखंड के इन गांवों में ढुकू कपल का विवाह कराने वाली सामाजिक संस्था निमित्त की संस्थापक सदस्य निकिता सिन्हा बताती हैं कि 2016 में सामूहिक विवाह की पहल शुरू की थी। अब तक वे 629 ढुकू कपल्स की शादी करा चुकी हैं। पैसे की तंगी के कारण ये कपल शादी नहीं कर पाते थे, इनमें से कुछ की हालत तो ऐसी भी होती थी कि उनके ढुकू होने के कारण बच्चों के भी रिश्ते नहीं हो पा रहे थे।