कापालिक चित्रलेखा जी और विश्वजित से बड़ी गंभीर मुद्रा में कह रहा था -"कालयोग से ही हम सभी का एकदूसरे के साथ संयोग और वियोग होता है । मनुष्य के सारे रिश्ते नाते पति पत्नी भाई बहिन ,माता पिता ,स्थान धन सम्पत्ति ऐश्वर्य,शत्रू और मित्र सब भाग्य से ही पूर्व जन्म के निर्धारित कर्मों के आधार पर एक निश्चित एवं निर्धारित समय के लिये ही प्राप्त होते हैं ।अपना नियत समय पूरा होने पर अपना कार्य पूरा करके वह अन्यत्र चले जाते हैं ।
जिस प्रकार शरीर के उत्पन्न होने केसाथ ही उसकी मत्यु का समय भी निश्चित होता है । उसी प्रकार इन सभी का एक साथ मिलना भी निश्चित होता है । जो अपना कार्य करने के लिये अवतरित हुये हैं उन्हें अपना वह दायित्व तो निभाना ही पड़ेगा ।आज हम सभी का एक स्थान पर एकत्र होने का भी अपना एक उद्देश्य है जिसके लिये हम सबको यहां आना पड़ा ।निरूद्देश्य कोई कार्य नही होता भले ही उस समय हम उसके प्रयोजन को न समझे ।सत्य को समझना इतना आसान नही कभी।
अपने करम की गति के अनुसार ही देहाभिमानी जीव अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिये दूसरा शरीर धारण कर लेता है।अपने अपने कर्म वश ही वह समयानुसार मिलते और अलग होते रहते हैं । यह सब उनके निहित उद्देश्य की पूर्ति और अंतिम इच्छा के अनुसार ही होता है ।
कभी सत्य कुछ और होता है जो हमें दिखाई नही देता पर्दे के पीछे ।उस सत्य के अनावृत होने पर आंखे चौंधिया जाती हैं विश्वास ही नही होता कि ऐसा भी हो सकता है ।इसीलिये कहा जाता है कि - "सत्येन हिरण्येन पात्रेण अभिहितं मुखं "।
हम सभी यहां अपने अपने कर्म बंधन से बंधकर आये हैं।
देवी हेमावती के स्वप्न् के पीछे छिपे और भी तथ्य हैं । वाराणसी के राजपुरोहित की अनिंद् सुंदरी बालविधवा पुत्री के साथ चंद्र ग्रहण के बाद निरभ्र नभ में ग्रहण से उबर कर उदय हो रहे चंद्रदेव का सरोवर में स्नान कर रही चंचल लहरों के साथ अठखेली करती हेमा पर कामासक्त होकर मोहित हो जाना । कुमुदिनी के पुष्प को तोड़कर चंद्रदेव को अर्ध्य के साथ अर्पित करती हेमा पर स्वयं सरोवर में उतर कर उस पुष्प को लेते हुये जब हेमा की ओर प्रेमातुर होकर देखा तो वह भी उनके सम्मोहन से अपने को नही बचा सकी । चंद्रदेव को अपना समर्पण करने के पश्चात जब उन्हें अपनी स्थिति का भान हुआ तो वह बहुत दुखी हुई और चंद्रदेव पर क्रोध करते हुये की आपने एक देवता होकर मुझे अपवित्र किया इसका फल आपको भोगना ही पड़ेगा ।
चंद्र ने क्षमा मांगते हुये कहा देवी आप इतनी सुंदर हैं की मैं आपके इस सुंदर रूप जाल में फंस गया ।मेरा मन आपको पाने के लिये आतुर था इसीलिए जब आप मुझे अर्ध्य देकर पुष्प अर्पित कर रहीं थी तो आपकी पूजा को स्वीकार कर वरदान देने मुझे आना पड़ा । इसे ईश्वर की इच्छा समझ कर स्वीकार कीजिये । मुझसे उत्पन्न हुआ यह पुत्र ही हमें और आपको इस पाप को पुण्य में परिवर्तित कर मुक्ति दिलायेगा । आप चिंता न करें मैं इसका दायित्व स्वयं लेता हूं ।आपको यदि लोक लाज का भय है तो आप अपने पिता के साथ चंदेलों के राज्य कालिंजर में चली जायें मैं उनका पूर्वज हूं ।वह आपको मेरे आदेश पर अवश्य संरक्षण देंगे । देवी हेमावती चाहतीं तो उस गर्भ को नष्ट भी कर सकती थीं पर नही ।उस पापके प्रायश्चित के लिये ही वह यहां आई ।कालिंजर महाराज ने उन्हें शरण देकर उनके पिता को पार्वती के मंदिर का पुरोहित बना दिया और हेमावती ने इसी निर्जन क्षेत्र में रहते हुये अपने पुत्र को जन्म दिया ।नाना के द्वारा पालित होने के कारण ही उन्हें प्यार से नान्नुक कहा जाता था ।
पुत्र के जन्म पर चंद्रदेव स्वयं देवगुरू बृहस्पति को उसका नाम रखने और जनम पत्री बनाने के लिये साथ लेकर आये ।जिन्होंने उनके बेटे का नाम चंद्र के ही नाम पर रखते हुये चंद्रवर्मन कहा और चंद्रदेव से कहा कि आपका यह पुत्र बहुत भाग्य वान है ।
यह महाप्रतापी राजा होगा जो आपके पाप का प्रायश्चित करते हुये इसे वरदान मे परिवर्तित कर पुण्य की तपसथली बनायेगा ।जहां भोग को मानवीय प्रवृत्ति के रूप मे मान कर भोग कोही योग का साधन बनाते हुये मुक्ति से मोक्ष की ओर ले जायेगा । जायेगा।
काम को केवल भोगने की दृष्टि से ही नही वरन् भुक्ति से मुक्ति पथ की ओर ले जाकर मोक्ष देने वाला माना जायेगा । जहां भोग का अंत है वहीं से योग की यात्रा का प्रारम्भ ।इस र स्य को संसार के समक्ष प्रकट करने का कार्य भी आपका यह पुत्र और इसकी आने वाली संतानें करेंगी।
चित्रलेखा जो अभी तक कापालिक जी की बातें बड़े ध्यान से सुन रही थी कहा-महाराज भोग से योग का क्या संबंध होसकता है।भोग का कार्य तो केवल भोक्ता को भोगना है अपनी काम वासना की तृप्ति और इन्द्रिय सुख के लिये । उससे मोक्ष का क्या संबंध ।यह तो मोह माया के जाल में फंसाने वाला वह पथ है जिससे मानव कभी उबर ही नही पाता ।फिर हम इसे योग का साधन कैसे माने।
धीरे धीरे अस्ताचल गामी सूर्य के सूर्य के साथ सांझ धरती कर गहराने लगी थी ।अत: चित्रलेखा ने बात को समाप्त करते हुये कहा कि अब कल हम इस विषय पर चर्चा करेंगे कहते हुये जाने की विदा मांगी । कापालिक जी भी अपने शिष्यों के साथ अपने निवास की ओर चल दिये ।विश्वजित सोच रहा था कल के विषय में अब कल क्या होगा । कहीं में किसी के हाथ की कठ पुतली तो नही बनरहा ।
शेष कल :-धन्यवाद । ऊषा सक्सेना