मां के जातेही विश्व मोहिनी अपने पर्यंक पर शयन करते ही सो गई निश्चिंतता की गहरी नींद । अब उसे किसी बात की चिंता नही थी ।
गहरी निद्रा में ही वह आज फिर उसी स्वपन लोक में विचरण करने लगी । बार-बार ही कापालिक का चेहरा उसके सामने आ जाता और वह भयभीत हो जाती ।ऐसा क्या था उसके मन में जो वह कापालिक से डर रही थी ।उसे देखते ही वह असहज हो उठती । उसकी आंखों में अजीब सा सम्मोहन था । मोहिनी उसकी आंखों में झांक कर उसे पढ़ना चाहती किंतु नही पढ़ पा रही थी ।तभी दूर कहीं से बांसुरी का। स्वर सुनाई देता है । पूर्णिमा की रात नीले निरभ्र नभ पर तारों के साथ अपनी ज्योत्स्ना के साथ शीतलता देता चंद्रमा पूर्ण यौवन पर अपनी छटा बिखेर सबको लुभाता । एक निर्जन वन में अपनी प्रेयसी की प्रतीक्षा करता बांसुरी के स्वर को भर कर आमंत्रण देता वह प्रेमी । पूर्ण श्रृंगार कर वह अपने प्रिय से मिलने के लिये आंचल में दीप की ओट कर ले जाती अभिसारिका ।
वह अपने प्रेमी के पास पहुंचे उससे पहले ही उस निर्जन वन में उसे कोई पकड़ लेता है ।वह सहायता के लिये किसी को पुकारे उसके पहले ही उसका मुख बंद कर दिया जाता हवा के झोंके और अचानक आक्रमण से बुझा दीप । पेड़ों के झुरमुट में उसे कुछ दिखता भी नही सिवाय कुछ मानव आकृतियों के जो उसे कैद कर रही थीं ।तभी दूर से आता बांसुरी का स्वर
अचानक बंद हो जाता है और फिर किसी के चीखने की आवाज जैसे कोई उसे पुकार रहा है ।वह उन लोगों की कैद से छूटने का प्रयास करती
किंतु बलिष्ठ भुजाओं ने उसे इतना जकड़ रखा था की वह छूट ही नही पाती ।अचानक अपना नाम सुनकर चौंक जाती है ।वह पुरुष कह रहा था मेरी मंगेतर होकर उससे प्यार करेगी री !मार दिया हमने तेरे यार हरिया को ...अब तो मुझसे ही शादी करनी पड़ेगी ।चल अभी ले जाकर सबके सामने शादी करता हूं ।देखता हूं कौन रोकता है मुझे । कुलिश को रोकने की हिम्मत किसमें है । कुलिश अचानक ही कुलिश का नाम याद आते ही उसकी आंखों के समक्ष वही बलिष्ठ हृष्ट पुष्ट पुरुष सामने आजाता है । परंतु यह क्या कापालिक को देख कर मेरे मन में उसके प्रति श्रद्धा का भाव न होकर वितृष्णा सी क्यों होने लगती है ।जब कि उसने अपनी जान पर खेल कर मुझे डूबने से बचा कर जीवन दान दिया ।मुझे तो उसका कृतज्ञ होना चाहिये । हरिया... हरिया..मेरा प्रेम जिससे मिलने के लिये मैं जा रही थी नदी का तटपेड़ के नीचे बैठा बांसुरी बजाकर मेरी प्रतीक्षा करता हरिया । कुलिश के साथियों द्वारा उसकी हत्या ।और मेरा कुलिश के बाहुपाश से छूटकर अपना नाम पुकारते हरिया के पास जाने के लिये भागना । कुलिश का मुझे रोकना और तब कुलिश के ही मुख पर थूक कर उसकी ही कटार ले अपने सीने में भौंक कर आत्म हत्या करना ।मेरे घायल होने पर कुलिश का पश्चाताप और मुझे मृत समझ छोड़ कर चलेजाना ।प्रकृति का प्रकोप घनघोर घटाओं का बरसना और मेरा घायल होकर भी लहूलुहान हरिया के शव को लेकर लेकर नदी में कूद जाना । सब कुछ किसी चलचित्र की तरह साफ नजर आ रहा था।पर आज वह डर नही रही थी और न चीख रही थी बल्कि सारे तथ्य एक साथ जोड़कर उन्हें समझने का प्रयास कर रही थी ।
कापालिक का और पंडित जी का यह कहना की मेरा जन्म किसी विशेष उद्देश्य के लिये हुआ ।मेरा मन राज शिल्पी विश्वजित में क्यों उलझ कर रह जाता है बार बार जब भी उसे देखती भ्रम का बार बार सामने आना क्या उद्देश्य हो सकता है । कुछ तो ऐसा है जो अभी मुझे स्पष्ट नहीहो रहा । आज स्वप्न में वह डरी नही सब कुछ एक चलचित्र सा उसके समक्ष चल रहा था ।
तभी मुर्गे की बांग सुनाई दी । सभी जाग गये थे राजभवन में काफी चहल पहल हो रही थी ।कालिंजर विजय युद्ध के लिये प्रस्थान का मुहूर्त राज पुरोहित और कापालिक जी को संदेश भेजा गया था ।उनके आते ही अभिजित मुहूर्त में ही प्रस्थान का समय निर्धारित । आज की प्रस्तर मूर्ति शिल्प कार्य शाला का कार्य रोक दिया गया था सभी उसी की तैयारी में व्यस्त हो गये । महाराज यशोवर्मन नित्य क्रियाओं से निवृत्त हो स्नान कर पूजा की तैयारी में व्यस्त थे ।उनके साथ राजकुमार धंग और महारानी चंद्रावली भी श्रृंगार कर तैयार हो गई थी साथ में शस्त्रागार में शस्त्र पूजन के लिये । य राजकुमारी विश्व मोहिनी ने भी जल्दी से उठकर अपने आपको चैतन्य करते हुये तैयार होकर मां के पास बैठ गई । कापालिक जी के आते ही सबसे पहले राजपुरोहित ने मंत्रोच्चार करते हुये हवन यज्ञ में दसभी देवताओं का पूजन आवाहन करते हुये यज्ञ में आहुतियां दीं इसके पश्चात शस्त्र पूजन हुआ ।शस्त्र पूजन करते समय एक एक शस्त्र का अच्छे से निरीक्षण करते हुये उसे मंत्रों के माध्यम से चैतन्य किया जा रहा था । बाहर सैनिक दल इकट्ठा होना शुरू हो गये थे ।सारा प्रांगण हर हर महादेव का नारा लगाते हुये गुंजारित हो रहा था । सेनापति वीरसिंह ने आकर सभी के तैयारी की सूचना दी ।पूजन समाप्त होते ही कापालिक ने बाहर आकर सभी सैनिकों को विजय का आशीर्वाद देते हुये उनके माथे पर विजय तिलक लगाया ।कापालिक जी का आशीर्वाद उनके लिये ब्रहम वाक्य था ।शस्त्र पूजन के पश्चात सभी सैनिकों को उनकी इच्छानुसार शस्त्र लेने का आदेश । अंदर राजपुरोहित ने महाराज को रक्षासूत्र बांधते हुये विजय का आशीर्वाद दिया ।
अब महाराजयशोवर्मन को सैनिक वेष में तैयार होने के महारानी चंद्रावली और राजकुमार धंग उन्हें कवच एवं शिरस्त्राण पहनाते हुये तैयार कर रहे थे राज कुमारी मोहिनी अपने पिता को तैयार होते देख रही थी । बाहर सभी महाराजयशोवर्मन के नाम का जैकारा लगा रहे थे ।तैयार होने के पश्चात महाराज बाहर आये महारानी भी पूजा आरती का थाल लिये बाहर द्वार पर आईं ।सभी सैनिकों ने अपने-अपने शस्त्र ग्रहण करलिये थे । महाराज के विदा मांगते ही महारानी ने उनके माथे पर विजय तिलक लगाकर आरती उतारते हुये उनकी दोनों भुजाओं का पूजन करने के पश्चात् तलवार से अपने दाहिने हाथ के अंगूठे को चीरते हुये अपने रक्त से महाराज के भाल पर विजय तिलक लगा दिया ।विजय की कामना करते हुये तलवार का पूजन कर वह तलवार अपने दोनों हाथों में लेकर महाराज के हाथों में सौंप दी ।
महाराज ने उसे शक्ति की देवी द्वारा प्रदत्त मानते हुये मस्तक से लगा कर नमन कर चूमते हुये हाथ में ले लिया । वह अपने अशव् पर पर सवार होते इसके पहले कापालिक ने आकर अश्व का पूजन कर उसकी आरती उतार तिलक करते हुये अश्व से कहा इस विजय और महाराज की रक्षा का दायित्व तुम्हारा है ।विजय प्राप्त करके ही लौटना मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ । महाराज के कापालिक जी को प्रणाम कर सभी गुरुजनों का आशीर्वाद लेकर अश्व पर सवार होते ही सभी ने हर हर महादेव का नारा लगाते हुये उन्हें सेना सहित कालिंजर विजय के लिये विदा किया ।साथ में गुप्त रूप से कापालिक जी के कुछ युद्ध कला में प्रवीण एवं कालिंजर किले के गुप्त रहस्यों से परिचित शिष्य भी सैनिक वेष में थे जिनके ऊपर महाराज की रक्षा का विशेष दायित्व था ।एक प्रकार से वह महाराज के अंग रक्षक भी थे ।उनके कुछ शिष्य पहले से ही अपने साधू वेष में किसी भी प्रकार की सहायता एवं गुप्त चर के रूप में वहां रह रहे थे । देखने में यह भिक्षाटन करने वाले साधू थे जिससे कोई इन पर शंका भी नही कर सके ।
शेष कल :-धन्यवाद ऊषा सक्सेना