दिन भर के श्रमसाध्य परिश्रम से थकी विश्वमोहिनी जब भाई धंग एवं परिचारिकाओं के साथ राजभवन पहुंची तो सांझ होने लग गई थी ।रात के अंधेरे से बचने के लिये पक्षी भी अपने अपने घोंसलों की ओर नभ में विचरण करते जा रहे थे ।पशु भी चल दिये थे अपने ठिकानों की ओर जहां उनकेशिशु उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे । मानव हो या पशु पक्षी सभी का प्राकृतिक स्वभाव एक समान ही उनका आचरण भी होता है ।केवल मनुष्य के पास ही तो चिंतन एवं मनन करने की विवेक बुद्धि होती है जिसके अनुसार कार्य करते हुये वह अपने ही कर्मानुबंधन से मुक्त हो जाता है।राजभवन में सभी के होते हुये भी महारानी चंद्रावली चिंता मग्न होकर इधर से उधर होरही थीं ।कभी वह राजभवन के प्रवेश द्वार तक जातीं तो कभी अंदर अपने कक्ष में कुछ देर बैठ कर विश्राम करती सोचती । चिंता करना उनका स्वभाव होता जारहा था । महाराज यशोवर्मन ने उन्हें समझाते हुये कहा भी आप क्यों इतनी चिंता कर रही हैं ।हमारी बेटी अब बड़ी होगई है और समझदार भी । आज तो उनके साथ राजकुमार धंग कोभी आपने भेज दिया था । वह भी अकेला नही वरन् अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ । मोहिनी केसाथ उसकी परिचारिकायें भी तो गई हैं कोई वह अकेली तो नही जो आप उसकी इतनी चिंता कर रही है । वहां पर चित्रलेखा जी भी तो हैंअपनी शिष्याओं के साथ । फिर भी आपको और किसी की चिंता नही सिवाय अपनी बेटी के । यह इतना मोह और चिंता करना छोड़ दीजिये ।कल के दिन जब वह अपनी ससुराल चली जायेगी तब क्या करेंगी आप ।
महाराज की बात सुनकर भी महारानी मौन रहीं ।इस समय वह बेवजह बहस नही करना चाह रही थी ।तभी राजकुमार धंग ने आकर उन्हें प्रणाम किया उनके पीछे मोहिनी ने भी आकर महाराज एवं महारानी दोनों को प्रणाम कर जब वह अपने कक्ष की ओर जाने लगी तो महारानी की नजर उसके पैर में बंधी पट्टी पर पड़ी । उन्होंने कहा यह क्या होगया पैर में चोट कैसे लगी ।तभी मधूलिका ने कहा आज शाल भंजिका की मूर्ति और पैर से कांटटा निकालन का प्रतिबिंब बनते समय यह बबूल का कांटा पैर में चुभ गया था ।
महारानी चंद्रावली क्रोध से तमतमा कर बोली चुभ गया था या जानबूझ कर चुभोया गया ।
यह सब मेरी बेटी के ही साथ उन्हें और कोई नही मिला अपने प्रतिदर्श के लिये जो मेरी बेटी की ही हर समय बलि दिये जा रहे ।नही जायेगी कल से मोहिनी वहां ।तुम्हारा मंदिर बने या नही मैं अपनी बेटी की बलि उस मंदिर के लिये नहीं दे सकती ।जैसा पागल वह राजशिल्पी वैसा ही पागल कापालिक ।दोनों ही मेरी बेटी के ही पीछे पड़े ।सुना महाराज मैं कुछ कह रही हूं आपसे ।यदि आप उन्हें नही समझा सकते तो फिर मैं ही जाकर उन्हें अच्छे से समझा दूंगी ।महाराज ने चंद्रावली का हाथ थामते हुये कहा- " महारानी जी शांत हो जाईये ।अधिक क्रोध आपकी सेहत के लिये अच्छा नही" । धंग ने अपने पिता का पक्ष लेते हुये कहा- "मां आप तो व्यर्थ ही चिंता कर रही अभिनय के समय बहुत कुछ करना और सहना पड़ता है ।फिर वह अपने किसी निजी स्वार्थ के लिये तो नही बल्कि हमारे ही कार्य के क्रियान्वयन के लिये ही तो यह सब कर रहे हैं मंदिर तो चंदेलों का ही उनके पूर्वजोंके स्वप्न को साकार करने के लिये बन रहा उनका अपना क्या ? मैं भी तो युद्ध शैली एवं युद्ध किस प्रकार से लड़ा जाता है । अश्व पर युद्ध के लिये तैयार होकर कैसे सवार हो कैसे युद्ध करें उस वार को करने की तकनीक होगी बाण को धनुष पर चढ़ा कर लक्ष्य तक पहुंचने के लिये कितना खींच कर तब छोड़े । आज मैनें भी तो युद्धकला का प्रदर्शन किया इस बीच संतुलन सही न हो पाने के कारण अश्व पर सवार होते समय गिरा भी ।आपको मेरी चोटें नही दिखी ।बस केवल हर समय दीदी की ही चिंता में लगी रहती हैं आप ।
अपने बेटे की बात सुनकर चंद्रावली के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई वह कहने लगी- "तू पुरुष है कलके दिन अपने पिता के साथ युद्ध पर भी जायेगा । तुझे तो साहसी बनना ही हैएक शक्तिशाली महाराज बनने के लिये "।लेकिन वह नारी है शरीर से सुकोमल उसकी रक्षा का भार भी तो तुझे ही उठाना है ।भाई है उसका हर मुसीबत के समय उसके आगे खड़ा रहकर ।स्त्री और पुरुष दोनों के कार्य क्षेत्र भिन्न हैं ।तू अपनी तुलना उससे नही कर सकता तुझे तोकठोर बनना ही पड़ेगा ।यदि अश्व से गिरेगा नही तो उस पर चढ़ना कैसे और कब सीखेगा ।
शेष फिर :-धन्यवाद ।ऊषा सक्सेना